शि क्षा व्यवस्था को लेकर इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला ऐतिहासिक है। लगातार अनदेखी से दुर्दशा के शिकार हुए सरकारी स्कूलों में शिक्षा व्यवस्था को ठीक करने का यह प्रभावी रास्ता हो सकता है। हाईकोर्ट के फैसले को महज उत्तरप्रदेश के संदर्भ में नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि स्कूली शिक्षा की हालत तो पूरे देश में लगभग एकसमान है। अच्छा होगा यदि सभी राज्य स्वत: पहल करके अपने यहां भी इस फैसले को लागू करें। हाईकोर्ट ने कहा है कि जनप्रतिनिधि, नौकरशाह और न्यायाधीश अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाएं। हाईकोर्ट ने यह भी कहा है कि जिन नेताओं, अधिकारियों और न्यायाधीशों के बच्चे सरकारी स्कूल में नहीं पढ़ें, उनके वेतन से स्कूल की फीस के बराबर राशि काटकर सरकारी स्कूलों के कल्याण पर खर्च की जाए। प्राथमिक स्कूलों की दयनीय हालत के संदर्भ में दायर की गई जनहित याचिका पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने यह ऐतिहासिक निर्णय सुनाया है। फैसला सुनाते वक्त न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल ने कहा कि खराब हालत होने के बाद भी करीब 90 फीसदी बच्चे इन्हीं सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं, ऐसे में इनकी दशा सुधारना बहुत जरूरी है।
आपको याद हो तो पटना में आयोजित चौरसिया महासम्मेलन में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सामने देश की शिक्षा व्यवस्था पर ऐसी ही चोट महज सात साल के बच्चे कुमार राज ने की थी। उसने कहा था कि देश में दो तरह की शिक्षा व्यवस्था है, अमीरों के लिए अलग, गरीबों के लिए अलग। अमीरों के लिए प्राइवेट स्कूल और गरीबों के लिए सरकारी स्कूल। उसने सवाल उठाया था, आखिर क्या कारण है कि कोई भी डॉक्टर, इंजीनियर, वकील यहां तक कि उस स्कूल के शिक्षक भी अपने बच्चे को सरकारी स्कूल में पढ़ाना नहीं चाहते? अपने भाषण में कुमार ने कहा था कि सरकारी स्कूलों की दशा सुधारनी है तो सभी सरकारी कर्मचारी-अधिकारी और नेताओं के बच्चों को वहां पढऩे के लिए भेजना अनिवार्य करना चाहिए। कलेक्टर, कमिश्नर, एसपी, डॉक्टर, शिक्षक, न्यायाधीश, विधायक और सांसदों के बच्चे यदि सरकारी स्कूलों में पढऩे जाएंगे तो निश्चित ही ये सब मिलकर शिक्षा व्यवस्था और स्कूल की बुनियादी सुविधाओं की चिंता करेंगे। शिक्षक भी समय पर स्कूल आएंगे। पूरे समय पढ़ाएंगे। क्योंकि, उनको डर रहेगा कि इनमें से किसी का भी बच्चा अपने माता-पिता से शिकायत कर सकता है। स्कूल में शौचालय की उचित व्यवस्था है या नहीं? पीने के पानी का पर्याप्त इंतजाम हैं या नहीं? गुणवत्तायुक्त शिक्षा मिल रही है या नहीं? कम्प्यूटर सिखाए भी जा रहे हैं या दिखाने के लिए रखे हैं? बच्चों को बैठने के लिए टेबल-कुर्सी है या नहीं? समय की मांग के अनुरूप स्मार्ट क्लासरूम है या नहीं? ये ऐसे सवाल हैं, जिनकी गंभीर चिंता शुरू हो जाएगी, यदि नौकरशाह और नेताओं के बच्चे सरकारी स्कूल में जाना शुरू कर दें। बुनियादी जरूरतों को तरस रहे सभी स्कूल मॉडल स्कूल बन जाएंगे, इसकी गारंटी है।
बहरहाल, हमारे नौकरशाह और नेता इतने सीधे नहीं हैं कि न्यायालय का आदेश सहजता से स्वीकार कर लेंगे। स्कूलों की दशा सुधारने की जगह अभी भी वे आदेश के पालन से बचने का उपाय खोजेंगे। दरअसल, सरकारी स्कूलों की दुर्दशा के पीछे शिक्षा माफियाओं के साथ नौकरशाहों और नेताओं की मिलीभगत है। इस गठजोड़ ने ही मिलकर सरकारी स्कूलों को इतनी बदतर हालत में पहुंचा दिया है कि आम आदमी मजबूरन प्राइवेट स्कूलों की ओर भागे। देखा जाए तो कई बड़े और महंगे स्कूलों में नौकरशाह और नेताओं की सीधी पार्टनरशिप है। यही कारण है कि सरकारी स्कूलों की बेहतरी पर इनका कोई ध्यान नहीं है। बल्कि ये तो चाहते हैं कि सरकारी स्कूल खत्म ही हो जाएं। मध्यप्रदेश में तो सरकारी स्कूलों को निजी हाथ में सौंपने की बात भी निकली थी। सामाजिक संस्थाओं की कड़ी आपत्ति के बाद सरकार ने इस विचार को वापस लिया। बहरहाल, यह देखने की बात होगी कि अगले शिक्षा सत्र से उत्तरप्रदेश किस तरह इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को लागू करता है और अन्य राज्य इस फैसले से सीख लेकर अपने यहां क्या पहल करते हैं। देश की जनता तो यही चाहती है कि सरकारी स्कूलों का इतना ध्यान रखा जाए कि प्रत्येक व्यक्ति अपने बच्चों को वहीं पढ़ाए। सबके लिए एकसमान शिक्षा व्यवस्था हो।
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