भा रतीय नेता और राजनीति वोट बैंक की तलाश में अंधे गलियारों में भटक रहे हैं। आतंकवाद के नाम पर दोहरा रवैया अपनाने वाली कुछ चिह्नित पार्टियां और नेता पहले मुम्बई शृंखलाबद्ध धमाकों के दोषी याकूब मेमन की फाँसी की सजा को माफ कराने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे थे। हद तो तब हो गई जब आतंकवाद को धर्म से न जोडऩे की दुहाई देने वाले ही एक आतंकवादी को धर्म विशेष से जोडऩे लगे। उसके बचाव में कुतर्कों पर भी उतर आए। न राष्ट्र के स्वाभिमान का ख्याल उन्होंने किया और न ही न्यायपालिका के प्रति सम्मान व्यक्त किया। नेताओं के बयानों को पढ़-सुन-देखकर आतंकवादी हमलों में अपने परिजनों को खोने वाले परिवार क्या सोच रहे होंगे? शहीद जवान आसमान से देख रहे होंगे तो खून के आँसू रो पड़ेंगे। लेकिन, नेताओं को शर्म नहीं, आतंकियों की पैरवी करने में, उन्हें 'जी' और 'साहब' कहने में भी। आतंकवादी की फाँसी पर अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकने की कोशिश की गई। अपराधी को धर्म से जोड़ दिया।
वोट के भूखे नेताओं ने देश के प्रति अपनी आस्था रखने वाले मुसलमानों को भी कठघरे में खड़ा कर दिया। एक अपराधी को इस्लाम से जोडऩे की नापाक हरकत की है। इस खेल में कुछ चिन्दी पार्टियां लम्बे समय से शामिल रही हैं। उनका बर्ताव मुस्लिम लीग पार्टी सरीखा होता है। कम्युनिस्ट दलों की संवेदनाएं भी अफजल, कसाब और याकूब नाम वाले अपराधियों की फाँसी पर जागती हैं। आतंकवादी जब निर्दोष लोगों की हत्याएं करते हैं तब इनका दिल नहीं पिघलता। खुद को देश की सबसे बड़ी और सबसे पुरानी पार्टी मानने वाली कांग्रेस पार्टी भी सांप्रदायिक राजनीति की माहिर खिलाड़ी है। लगातार पतन के बाद भी उसको समझ नहीं आ रहा कि अब यह खेल देश में नहीं चलने वाला। दोहरा रवैया अस्वीकार है। देश की सुरक्षा, स्वाभिमान और सम्मान से बढ़कर कुछ नहीं। जनता अब 'एक देश-एक कानून' के साथ ही 'एक देश-एक बर्ताव' की जरूरत महसूस कर रही है। कम्युनिस्ट वर्षों बाद भी देशभर में अपना जनाधार खड़ा नहीं कर सकी, इसका सीधा कारण है कि राष्ट्र के प्रति उनकी आस्था मजबूत नहीं है। उनके प्रेरणास्रोत भी देश से बाहर के हैं। उनका चेहरा देश की जनता बहुत पहले ही पहचान चुकी है। बहरहाल, चिल्ला-चौंट में एक बड़ा प्रश्न यह सामने आता है कि मुसलमान धर्म को मानने वाले अपराधी के लिए घडिय़ाली आँसू बहाकर आखिर नेता और राजनीतिक दल क्या पाना चाहते हैं? मुसलमानों की बड़ी आबादी का भरोसा? थोक के भाव में वोट? अरे राजपुरुषो, इस देश का बहुसंख्यक मुसलमान आतंकवादियों के साथ नहीं है। आतंकियों का समर्थन करके तुम उनकी सहानुभूति नहीं हासिल कर रहे हो। संभवत: उनकी नजरों में गिर रहे हो। इससे भी अधिक तुम मुसलमानों को लज्जित कर रहे हो। अपने कृत्यों-बयानों से क्या साबित करना चाहते हो कि बहुसंख्यक मुसलमान आतंकवादी के साथ है।
अगर कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह, वरिष्ठ नेता एवं सांसद शशि थरूर, कम्युनिस्ट नेता प्रकाश करात, वृंदा करात और सीताराम येचुरी सहित अन्य नेता ऐसा सोचते हैं तो वे बिल्कुल गलत हैं। भारत के नेता जिसे सियासत समझ रहे हैं, दरअसल वह सियासत कम नौटंकी ज्यादा है। यह बौद्धिक आतंकवाद है। राजनेताओं का यह रवैया देश के लिए खतरनाक भी है। उनके इस रवैये से देश का बहुसंख्यक समाज हिन्दू भी भड़कता है। दो धर्मों के बीच खाई गहरी होती है। दुनिया में क्या संदेश जा रहा है? किसी ने ये विचार करने का प्रयास किया? क्या सुरक्षा से जुड़े मसलों पर इस तरह की घटिया हरकतें जायज हैं? आतंकवादियों के प्रति इस तरह की सहानुभूति रखी जाएगी तो फिर आतंकवाद का समूल नाश कैसे संभव होगा? वोट बैंक की गंदी राजनीति करने वाले नेताओं से गुजारिश है कि देश के स्वाभिमान को बख्शें, आतंरिक और बाह्य सुरक्षा के मसलों पर राजनीति न करें। राजपुरुषो, समझो, ये सियासत नहीं है।
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