बि हार विधानसभा चुनाव के लिए नीतीश कुमार की अगुवाई में तथाकथित 'सेक्युलर गठबंधन' बनाया गया है। एक-दूसरे के खिलाफ आग उगलने वाले लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार भी एक मंच पर आ गए। कांग्रेस ने दोनों को एक साथ लाने के लिए विशेष प्रयास किए। 'भानुमति के कुनबे' में शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी भी शामिल हो गई थी। गठबंधन में शामिल पार्टियों ने आपस की कटुता भुलाकर भाजपा को रोकने के लिए राजनीतिक मंचों से गहरी एकजुटता का प्रदर्शन किया। लेकिन, सब जानते थे कि 'भांति-भांति' की ये पार्टियां अधिक दिन साथ रहने वाली नहीं हैं। सबके हित अलग-अलग हैं। राजनीतिक एजेंडे अलग-अलग हैं। राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए सबके चूल्हे भी अलग-अलग हैं। व्यक्तिगत स्वार्थ भी हावी हैं। बहरहाल, भाजपा के खिलाफ बुलंद हुए गठबंधन में सीटों के बंटवारे के साथ ही दरारें दिखने लगी हैं।
बुधवार को बिहार विधानसभा चुनाव के लिए सीटों के बंटवारे की घोषणा की गई है। नीतीश और लालू ने आपस में 100-100 सीटें बांट लीं। कांग्रेस को 40 सीटों पर राजी कर लिया। जबकि एनसीपी को महज तीन सीट ही दीं। असल में, एक भी दल इस बंटवारे से खुश नहीं हैं। नीतीश कुमार और अधिक सीटें चाहते थे, यही तमन्ना लालू प्रसाद यादव की थी। गठबंधन और बिहार के प्रमुख दलों में टकराव न दिखे इसलिए दोनों ने मनमसोस कर 100-100 आपस में बांट लीं। तुम भी खुश, हम भी खुश। कांग्रेस तो मजबूरी में मन मारकर रह गई है। उसके पास 40 सीट के अलावा कोई विकल्प नहीं था। लेकिन, महज तीन सीट मिलने पर एनसीपी ने बगावत कर दी है। कांग्रेस महासचिव सीपी जोशी, आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद यादव और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार प्रेसवार्ता करने पहुंचे तब एनसीपी का कोई भी प्रतिनिधि नहीं था। खबर है कि सीटों के बंटवारे में एनसीपी से बातचीत ही नहीं की गई थी। सीटों की बंदरबांट और घोषणा से तिलमिलाई एनसीपी ने गठबंधन छोड़ दिया है।
भाजपा के खिलाफ हर हाल में साथ रहने की कसम खाने वाले सेक्युलर गठबंधन में दरार! गठबंधन के दरकने की इतनी जल्दी शुरुआत! बहरहाल, यह तो होना ही था। आज नहीं तो कल। गठबंधन के हिसाब से चुनाव परिणाम नहीं आए तो आपस में चख-चख होना तय है। आज एकजुटता दिखा रहे तीनों दल हार का ठींकरा एक-दूसरे पर फोडेंगे। यह तो भविष्य ही बताएगा कि तब सेक्युलर एकजुटता और 'सांप्रदायिक ताकत' के खिलाफ लड़ाई का क्या होगा? लेकिन, भूत और वर्तमान तो स्पष्ट बता रहा है कि भारतीय जनता पार्टी से मुकाबला करने के लिए 'सेक्युलर गठबंधन' तीनों दलों की राजनीतिक मजबूरी है। कथित 'जंगलराज' के प्रतीक बन चुके लालू प्रसाद यादव की पार्टी आरजेडी की लालटेन का तेल कम हो गया है। लालू को अपनी लालटेन की रोशनी बढ़ाने के लिए सत्ता का साथ बहुत जरूरी है। इसीलिए लालू न चाहते हुए भी नीतीश के साथ चुनाव लडऩे को राजी हुए हैं। नीतीश कुमार को अपनी प्रतिष्ठा बचानी हैं। उन्हें भाजपा से अलग होने के अपने फैसले को सही साबित करना है। नरेन्द्र मोदी बनाम नीतीश कुमार की लड़ाई में उन्हें यह भी साबित करना है कि बिहार में उनकी लोकप्रियता का मुकाबला मोदी की लोकप्रियता नहीं कर सकती। वहीं, कांग्रेस को अपना जनाधार बढ़ाना है। खोया हुआ विश्वास वापस पाना है। इसलिए बिहार चुनाव में तथाकथित 'सेक्युलर गठबंधन' तीनों राजनीतिक दलों की मजबूरी ही है। ये तीन तो कम से कम चुनाव बीत जाने तक हाथ थामकर रखेंगे।
चूंकि बिहार चुनाव में एनसीपी की भूमिका बहुत सीमित है। इसलिए तीनों दलों ने एनसीपी की अनदेखी की है। तीन सीट के लिए गठबंधन में रहना एनसीपी के लिए फायदेमंद तो नहीं, अपमानजनक स्थिति जरूर होती। इसीलिए एनसीपी ने खुद को गठबंधन से अलग कर लिया। एनसीपी नेता और लोकसभा सांसद तारिक अनवर ने कहा भी है कि एनसीपी को तीन सीट देना अपमानजनक है। बंटवारे में नीतीश, लालू और कांग्रेस का घमंड साफ दिख रहा है। बहरहाल, 243 सीटों की बिहार विधानसभा के चुनाव के लिए सीट बंटवारे की अनौपचारिक घोषणा से ही सेक्युलर गठबंधन में दरार पड़ गई है। अब देखना होगा कि गठबंधन के तीनों दलों के अंदरखानों में पल रहीं टीसें कब उभरकर आती हैं।
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