8 मार्च, अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस
जब मैं इस दुनिया में आई
तो लोगों के दिल में उदासी
चेहरे पर झूठी खुशी पाई।
थोड़ी बड़ी हुई तो देखा,
भाई के लिए आते नए कपड़े
मुझे मिलते भाई के ओछे कपड़े।
काठी का हाथी, घोड़ा, बंदर आया
भाई थक जाता या
खेलकर उसका मन भर जाता
तब ही हाथी, घोड़ा दौड़ाने का,
मेरा नंबर आता।
मैं हमेशा से ये ही सोचती रही
क्यूं मुझे भाई का पुराना बस्ता मिलता
ना चाहते हुए भी
फटी-पुरानी किताबों से पढऩा पड़ता।
उसे स्कूल जाते रोज रुपया एक मिलता
मुझे आठाने से ही मन रखना पड़ता।
थोड़ी और बड़ी हुई, कॉलेज पहुंचे
भाई का नहीं था मन पढने में फिर भी,
उसका दाखिला बढिय़ा कॉलेज में करवाया
मेरी इच्छा थी बहुत इच्छा थी लेकिन,
मेरे लिए वही सरकारी कन्या महाविद्यालय था।
और बड़ी हुई
तो शादी हो गई, ससुराल गई
वहां भी थोड़े-बहुत अंतर के साथ
वही सबकुछ पाया।
जब भी बीमार होती तो
किसी को मेरे दर्द का अहसास न हो पाता
सब अपनी धुन में मगन -
बहू पानी ला, भाभी खाना ला
मम्मी दूध चाहिए, अरे मैडम चाय बना दे।
और बड़ी हो गई,
उम्र के आखरी पडाव पर आ गई
सोचती थी, काश अब खुशी मिलेगी
लेकिन, हालात और भी बद्तर हो गए
रोज सबेरा और संध्या बहू के नए-नए
ताने-तरानों से होता।
दो वक्त की रोटी में भी अधिकांश
नाती-पोतों का जूठन ही मिलता।
अंतिम यात्रा के लिए,
चिता पर सवार, सोच रही थी-
मेरे हिस्से में हरदम जूठन ही क्यों आया।
- लोकेन्द्र सिंह -
(काव्य संग्रह "मैं भारत हूँ" से)
दो वक्त की रोटी में भी अधिकांश
जवाब देंहटाएंनाती-पोतों का जूठन ही मिलता।
वास्तविकता इन शब्दों में अभिव्यक्त होती है ....आपका कहना सही है ...!
बहुत सुंदर प्रस्तुति,वास्तविकता से परिचय कराती रचना,..वाह!!!!क्या बात है
जवाब देंहटाएंलोकेन्द्र जी,सपरिवार होली की बहुत२ बधाई शुभकामनाए...
RECENT POST...काव्यान्जलि
...रंग रंगीली होली आई,
चले चकल्लस चार-दिन, होली रंग-बहार |
जवाब देंहटाएंढर्रा चर्चा का बदल, बदल गई सरकार ||
शुक्रवारीय चर्चा मंच पर--
आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति ||
charchamanch.blogspot.com
धन्यवाद रविकर जी....
हटाएंVery Very Nice Post
जवाब देंहटाएंआपके ब्लॉग को यहां जोड़ा है
1 ब्लॉग सबका
कृपया फालोवर बनकर उत्साह वर्धन कीजिये
राजपुरोहित जी धन्यवाद...
हटाएंहोली के रंगारंग शुभोत्सव पर बहुत बहुत हार्दिक शुभकामनाएँ.
जवाब देंहटाएंप्रभावशाली सृजन..... बधाईयाँ जी /
जवाब देंहटाएंदो वक्त की रोटी में भी अधिकांश
जवाब देंहटाएंनाती-पोतों का जूठन ही मिलता।
अंतिम यात्रा के लिए,
चिता पर सवार, सोच रही थी-
मेरे हिस्से में हरदम जूठन ही क्यों आया।
हृदय स्पर्शी मार्मिक कवितांश समाज के विद्रूप चेहरे पे कालिख पोतता हुआ .यही है अंतर -राष्ट्री महिला ढकोसलों दिवसों की हकीकत .
बेहद प्रभावशाली रचना..... अंतर तक जाती हुई...
जवाब देंहटाएंसादर.
बहुत सही लिखा है..अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस पर .. आज महिला के उत्थान के लिए जितनी बात की जाए पर महिला के लिए निहित दिमाग में खांचा नहीं बदल सका समाज.. और यही हाल हुवा महिला का जो कि आपकी कविता में हैं.. उम्दा
जवाब देंहटाएंबहुत सशक्त रचना....
जवाब देंहटाएंमन में कहीं गहरे उतर गयी....
बहुत खूब..
बहुत ही विचारणीय प्रासंगिक कविता ।
जवाब देंहटाएंनारी-मन की व्यथा को आपने हृदयस्पर्शी ढंग से प्रस्तुत किया है।
जवाब देंहटाएंमार्मिक .. बहुत ही संवेदनशील रचना है ..
जवाब देंहटाएंनारी के मन की व्यथा की लिखा है आपने ...
bahut hi sundar prastuti bilkul yatharth ka chitran ...sadar abhar ke sath badhai
जवाब देंहटाएंBeautifully defined the bitter reality of women.
जवाब देंहटाएंव्यथा और दुभांत तुम्हारी यही कहानी ,बेटी हो या नानी .
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया प्रस्तुति,भावपूर्ण संवेदनशील सुंदर रचना,...
जवाब देंहटाएंRESENT POST...काव्यान्जलि ...: तब मधुशाला हम जाते है,...