कां ग्रेस खुद को सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी मानती है। यह सच भी है। आजादी के आंदोलन में शामिल कांग्रेस को छोड़ दें तब भी, आजाद भारत में कांग्रेस के पास भारतीय राजनीति का गहरा अनुभव है। लेकिन, इस समय संसद में और संसद के बाहर कांग्रेस का व्यवहार देखकर लगता नहीं कि वह अपनी विरासत को साथ लेकर चल रही है। जिस गंभीर राजनीति की अपेक्षा कांग्रेस से की जानी चाहिए, वह उतनी ही उथली राजनीति का प्रदर्शन कर रही है। संसद में मानसून सत्र से जारी हंगामे को शीतकालीन सत्र में सोमवार को भी कांग्रेसी सांसदों ने जारी रखा। कांग्रेसी सांसदों के व्यवहार को देखते हुए राज्यसभा के उपसभापति पीजे कुरियन को कहना पड़ गया है कि 'आपका यह बर्ताव अलोकतांत्रिक है।' उन्होंने यह भी कहा कि 'आपमें से कुछ लोग सदन को हाईजैक करना चाह रहे हैं। कुछ सदस्य अपनी मर्जी से सदन को चलाना चाहते हैं।' उपसभापति की यह टिप्पणी गंभीर है। यह टिप्पणी कांग्रेस के अलोकतांत्रिक व्यवहार पर करारी चोट है। लेकिन, शायद ही कांग्रेस इस टिप्पणी से संभले।
दुनिया के सबसे विशाल लोकतंत्र का संवर्धन करने की महती जिम्मेदारी कांग्रेस को अपने कंधों पर उठानी चाहिए थी। लेकिन, वह इसकी जड़ें खोदने के काम में लग गई है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और केन्द्र सरकार का विरोध करने के लिए कांग्रेस और प्रतिपक्ष इतनी जल्दी में रहते हैं कि तथ्यों की पड़ताल ही नहीं करते। सरकार का विरोध करने के लिए यह तरीका ठीक नहीं है। जिस आधार पर सरकार को दोषी बताया जा रहा है, वह आधार ही जब झूठा साबित होता है तब प्रतिपक्ष के प्रति अविश्वास गहराता है। प्रतिपक्ष के प्रति अविश्वास का बढऩा किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए ठीक नहीं है।
न्यायापालिका में विचाराधीन नेशनल हेराल्ड प्रकरण पर संसद में हंगामा करके कांग्रेस ने यही अविश्वास अर्जित किया। इससे पहले गृहमंत्री राजनाथ सिंह के संबंध में निराधार और झूठी टिप्पणी करके माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सांसद मोहम्मद सलीम ने प्रतिपक्ष को कठघरे में खड़ा कर दिया था। यही हाल दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के सर्वेसर्वा अरविन्द केजरीवाल का है। दिल्ली की शकूर बस्ती में एक बच्ची की मौत को रेलवे की अतिक्रमण हटाओ कार्रवाई से जोड़कर, उसका दोष केन्द्र सरकार पर डाल दिया। जबकि सच यह है कि बच्ची की मौत अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई से काफी पहले हो चुकी थी। लेकिन, केजरीवाल बिना कुछ सोचे-विचारे बच्ची के शव पर राजनीति करने निकल पड़े। उधर, कोल्लम में निजी कार्यक्रम में केरल के मुख्यमंत्री ओमान चांडी को नहीं बुलाए जाने के पीछे कांग्रेस और वामपंथी पार्टियां प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और केन्द्र सरकार का हाथ बता रही हैं। जबकि इसका भी सच कुछ और है। आयोजक संस्था ने ही चांडी को नहीं बुलाया तो इसमें प्रधानमंत्री को दोष देना कितना उचित है? भाजपा का दावा तो यह है कि मुख्यमंत्री ने स्वयं ही आयोजकों को पत्र लिखकर कार्यक्रम में शामिल होने में असमर्थता जताई है। वहीं, कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गाँधी दिन-रात बिना किसी आधार पर प्रत्येक मामले में भारतीय जनता पार्टी, प्रधानमंत्री कार्यालय और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को घसीटते रहते हैं। अब उन्होंने बयान दिया है कि असम के एक मंदिर में उन्हें घुसने से रोकने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने षड्यंत्र किया था। अपनी बात को साबित करने के लिए राहुल गाँधी के पास कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है।
बहरहाल, विरोध के लिए विरोध का यह तरीका ठीक नहीं है। कांग्रेस के इस व्यवहार से प्रतिपक्ष के प्रति अविश्वास गहराता जा रहा है। इससे लोकतंत्र कमजोर हो रहा है। निरंतर आधारहीन आरोप लगाने से एक बड़ा नुकसान यह होता है कि जब कभी प्रतिपक्ष का आरोप सत्य भी होगा तो जनता उस पर कान नहीं धरेगी।
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