कां ग्रेस ने जिस तरह से संसद को ठप करके रखा है, देश में उससे यही संदेश जा रहा है कि वह मनतंत्र से लोकतंत्र को चलाना चाह रही है। कांग्रेस का यह रवैया देश के साथ-साथ उसके लिए भी घातक साबित होगा। सत्तापक्ष और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के संसद को चलाने के सभी प्रयास कांग्रेस की मनमर्जी के आगे विफल साबित हो रहे हैं। कांग्रेस के साथ 'चाय पर चर्चा' भी काम नहीं आई। 'संविधान पर चर्चा' के साथ सकारात्मक संवाद के माहौल में संसद की शुरुआत भी विफल साबित होती दिख रही है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का प्रतिपक्ष से संवाद करना, संसद चलाने के लिए आग्रह करना, प्रतिपक्ष से सहयोग की अपील करना और सदन में सबके प्रति सम्मान प्रकट करने वाला भाषण भी प्रतिपक्ष की कठोरता को मोम नहीं बना सका है। प्रतिपक्ष के कई सुझावों को भी सत्तापक्ष ने स्वीकार कर लिया है, तब क्यों कांग्रेस महत्वपूर्ण विधेयकों के पारित होने में बाधा खड़ी कर रही है? कारण, कांग्रेस पहले से ही तय करके बैठी है कि उसे तो हंगामा करना है, संसद को ठप करना है और सरकार को काम नहीं करने देना है। इसीलिए कांग्रेस गैरजरूरी और अप्रासंगिक मुद्दों को भी आधार बनाकर संसद में गतिरोध खड़ा कर रही है।
देश सब देख और समझ रहा है। कांग्रेस पता नहीं किस भुलावे में है। कांग्रेस को समझ लेना चाहिए कि एक बहुमत प्राप्त सरकार को काम नहीं करने देने का दोष कांग्रेस के खाते में ही आने वाला है। नेशनल हेराल्ड मामले पर कांग्रेस ने देश के मूड को समझने का प्रयास नहीं किया है। जनता के बीच धारणा गहराती जा रही है कि सोनिया-राहुल गाँधी खुद को न्यायालय से ऊपर मानते हैं। इस देश की व्यवस्थाओं के प्रति उनके मन में सम्मान नहीं है। न्यायालय में विचाराधीन मामले के आधार पर संसद को लगातार तीन-चार दिन से ठप करके रखना, आखिर क्या संदेश देता है? साफतौर पर यह कांग्रेस की मनमर्जी है। वह अपने मनतंत्र के हिसाब से लोकतंत्र को चलाना चाह रही है। कांग्रेस के मनतंत्र से उसकी राजनीति तो चल रही है लेकिन, देश का क्या? उस जनता का क्या, जिसने काम करने के सभी सांसदों को चुनकर भेजा था?
बहरहाल, सब प्रयासों के बाद भी संसद में कामकाज नहीं होने से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी आहत हैं। उनका कहना ठीक ही तो है- देश मनतंत्र से नहीं चलता। संसद की कार्यवाही नहीं चलने से गरीबों को उनका हक नहीं मिल पा रहा है। जीएसटी का जो होगा, सो होगा लेकिन, गरीबों का क्या होगा? आम आदमी का क्या होगा? उनसे जुड़े महत्वपूर्ण कानून इस हंगामे के कारण अटके हुए हैं। इसलिए हमारा अनुरोध है कि संसद को चलने दिया जाए। अगर हम इसका सम्मान नहीं करेंगे तो लोकतंत्र पर प्रश्नचिह्न लगेगा।'
यहाँ कांग्रेस के व्यवहार से उसकी मंशा पर भी प्रश्नचिह्न खड़े हो रहे हैं। सत्तापक्ष के साथ-साथ राजनीतिक विश्लेषक, विचारक, प्रतिपक्ष के ही कुछ दल और समूचा देश बार-बार पूछ रहा है कि आखिर कांग्रेस चाहती क्या है? संसद में हंगामा क्यों? कांग्रेस को यदि सरकार की मंशा पर शक है तो संसद में बहस करे, विमर्श करे। सरकार ने बेबुनियाद 'असहिष्णुता' के मुद्दे पर भी प्रतिपक्ष की बहस की मांग स्वीकार की है। यानी सरकार तो संवाद के लिए तैयार है, लेकिन प्रतिपक्ष का मन हंगामे में रम गया है। नेशनल हेराल्ड मामले में भी सत्तापक्ष बहस करने का आग्रह कर रहा है, लेकिन कांग्रेस ही बहस से भाग रही है, क्यों? आश्चर्य तो इस बात का है कि कांग्रेस की राजनीतिक समझ कहाँ खो गई है?
बेकार के मसलों पर हंगामा खड़ा करके कांग्रेस सरकार के प्रति सहानुभूति और अपने प्रति नकारात्मकता का वातावरण तैयार कर रही है। इसे अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना कहते हैं। कांग्रेस को अविलम्ब हंगामा छोड़कर संसद के संचालन में अपनी सार्थक भूमिका का निर्वाहन करना चाहिए। वरना, जनता तो देख ही रही है कि कांग्रेस अच्छे दिनों को आने से रोक रही है।
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