ज ब कभी पुलिस के हाथों कोई नक्सली मारा जाता है, तब तमाम मानवाधिकारी और वामपंथी विचारक आसमान सिर पर उठा लेते हैं। लेकिन, नक्सलियों की क्रूरता के खिलाफ इनके होंठ सिल जाते हैं। धिक्कार है ऐसे वामपंथी विचारकों और मानवाधिकारियों के प्रति जिन्होंने एक दुधमुंही बच्ची की हत्या पर शर्मनाक तरीके से खामोशी की चादर ओढ़ रखी है। गौरतलब है कि बीजापुर जिले में क्रूर नक्सलियों ने चार माह की दुधमुंही बच्ची की जघन्य हत्या कर दी थी। आखिर कोई बता सकता है कि उस दुधमुंही बच्ची ने किसी का क्या बिगाड़ा होगा? नक्सलियों से उसकी क्या दुश्मनी रही होगी? कोई इतना निर्दयी कैसे हो सकता है कि एक नन्हीं कली को ही मसल दिया? इस तरह की हिंसा किस तरह के समाज का निर्माण करेगी? इस नक्सलवाद ने खूबसूरत बस्तर को नर्क बना दिया है। नक्सलियों की इस बर्बरता पर भले ही मीडिया, वामपंथी बुद्धिजीवियों और मानवाधिकारी खामोश रह गए हों लेकिन बस्तर की बच्चियों ने साहस दिखाया है। उन्होंने नक्सलवाद का घिनोना चेहरा दुनिया को दिखाने का प्रयास किया है।
बीते २२ दिसम्बर को जगदलपुर की सड़कों पर नक्सलियों की क्रूरता के खिलाफ स्कूली बच्चियों ने धिक्कार रैली निकाली। रैली में करीब पांच हजार स्कूली छात्र-छात्राओं के साथ करीब इतने ही आम नागरिक शामिल थे। करीब १० हजार का यह जनसैलाब नक्सलियों को धिक्कार रहा था। आए दिन खून-खराबा करने वाले नक्सलियों के खिलाफ बच्चियों के मन में भारी आक्रोश और घृणा के भाव थे। बच्चियों की इस रैली से साफ संदेश जाता है कि नक्सलियों के अत्याचार से अब बस्तर आजिज आ चुका है।
बस्तर खुलकर नक्सलियों को चेतावनी दे रहा है कि अब उनके लिए यहां कोई जगह नहीं बची है। अपनी हिंसक मानसिकता लेकर नक्सली कहीं और चले जाएं या फिर हिंसा का रास्ता छोड़कर खुद को मानवता से जोड़े और समाज की मुख्यधारा में शामिल हो जाएं। धिक्कार रैली में शामिल स्कूली छात्र-छात्राएं और आम नागरिक अपनी बुलंद आवाज में नक्सलियों के खिलाफ नारे लगा रहे थे- 'बस्तर को बचाना है, नक्सलियों को भगाना है, नक्सलवाद मुर्दाबाद, नक्सलियों क्रूरता छोड़ो'।
संभवत: यह पहली बार है जब बस्तर में इस स्तर पर नक्सलियों को आम समाज से चुनौती मिली है। नक्सलियों और नक्सलवाद के समर्थकों को समझ लेना चाहिए कि अब समाज जागृत हो रहा है। आम आदमी शांतिपूर्ण तरीके से जीना चाहता है। हिंसा में समाज का कोई भरोसा नहीं है। नक्सलियों के भय के कारण बस्तर के स्कूलों में शिक्षक जाने को तैयार नहीं हैं। अस्पताल में डॉक्टर नहीं हैं। बस्तर विकास की मुख्यधारा से नहीं जुड़ सका है। नक्सलियों के कारण बस्तर अपने अधिकार से वंचित है। कहने को तो नक्सलियों ने वनवासी और वंचित समाज के अधिकारों के लिए बंदूकें उठाईं थीं, लेकिन असल में इन बंदूकों ने इस समाज का ही सबसे अधिक खून बहाया है। बस्तर अब और खून बहाने के लिए तैयार नहीं है। क्रूर नक्सलवाद के खिलाफ मासूम बच्चियों के साहस को प्रणाम है। आइए, उनके हौसले को हम सब मिलकर ताकत दें और नक्सलवाद को धिक्कारें।
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