अ सहिष्णुता के झूठ पर भारत के प्रधान न्यायमूर्ति टीएस ठाकुर ने करारी चोट की है। तथाकथित बढ़ती असहिष्णुता की मुहिम को प्रधान न्यायमूर्ति ने राजनीति से प्रेरित बताया है। उन्होंने कहा है कि देश में कहीं भी असहिष्णुता नहीं है। असहिष्णुता पर बहस के राजनीतिक आयाम हो सकते हैं, लेकिन कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए देश में न्यायालय है। जब तक उच्च न्यायालय है तब तक किसी को डरने की जरूरत नहीं। इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि हम आपस में एक-दूसरे के प्रति प्रेम रखें और समाज में वैर भाव कम करके मिलजुल कर रहें। सरकार ने प्रधान न्यायमूर्ति टीएस ठाकुर के बयान का स्वागत किया है। प्रधान न्यायमूर्ति के साथ-साथ देश के प्रसिद्ध उद्योगपति रतन टाटा भी यही बात कह रहे हैं कि देश में सब आपस में मिल-जुल कर रह रहे हैं। समाज में एकता है। असहिष्णुता सिर्फ मीडिया में दिखाई दे रही है। देश में भय का कोई माहौल नहीं है।
दोनों विभूतियों के बयान सरकार को राहत देने वाले हैं। साहित्यकारों और कलाकारों के बौद्धिक आतंकवाद से पीडि़त सरकार को टीएस ठाकुर और रतन टाटा के विचारों से निश्चित ही ऑक्सीजन मिली होगी। प्रधान न्यायमूर्ति जब यह बात कह रहे हैं कि हम प्रत्येक जाति, धर्म और व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा करने में सक्षम हैं, तब देश को आश्वस्त हो जाना चाहिए। इस बात का भी भरोसा कर लेना चाहिए कि अपने राजनीतिक फायदे के लिए कांग्रेस और वामपंथियों ने असहिष्णुता का भूत खड़ा किया था।
असहिष्णुता के बहाने बीते दिनों में चयनित दृष्टिकोण वाले साहित्यकारों, कलाकारों और राजनीतिज्ञों ने भारत के चरित्र पर मिट्टी डालने के खूब प्रयास किए हैं। भारत की साफ-सुथरी तस्वीर को बिगाडऩे वाली यह धूल हटती दिखाई देती है जब प्रधान न्यायधीश कहते हैं कि - 'इस देश में कई धर्मों, जातियों और संप्रदायों के लोग रहते हैं। दूसरे धर्मों के लोग भी यहां आए और फले-फूले यही हमारी विरासत है।'
बहरहाल, यदि सहिष्णु शब्द का शाब्दिक अर्थ देखें तो ज्ञात होता है कि यह अपने आप में नकारात्मक है। सहिष्णु का अर्थ होता है, सहनशीलता अर्थात् सहन करना या झेलना। इस मायने में देखें तो भारत कभी सहिष्णु नहीं रहा है, वह तो हमेशा से सर्वसमावेशी था। यहाँ दूसरे पंथ और मत को सम्मान देने की परंपरा है, उन्हें सहन करने का उपदेश भारत में नहीं दिया गया। इसलिए यदि भारत के चरित्र के हिसाब से देखें तो सहिष्णुता बनाम असहिष्णुता की पूरी बहस ही खारिज हो जाती है।
समाज यह भी समझ रहा है कि असहिष्णुता की मुहिम किसी नरेन्द्र मोदी, भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रति नहीं है। बल्कि, यह उस विचारधारा के खिलाफ है, जिसके लम्बे प्रयासों के बाद देश में सांस्कृतिक बदलाव आता दिख रहा है। कांग्रेस और वामपंथ को भय है कि राष्ट्रवाद की यह विचारधारा और अधिक पुष्ट हो गई तो उनकी राजनीति के लिए जगह कहाँ बचेगी? इसलिए यह भी ध्यान रखना होगा कि अभी भले ही पुरस्कार वापसी की मुहिम थमी-थमी दिख रही होगी लेकिन यह खत्म नहीं हुई है। बल्कि, यह रूप बदल-बदल कर सामने आएगी। भारत को बदनाम करने की इस मुहिम के पीछे अंतरराष्ट्रीय ताकतों का सहयोग भी बताया जा रहा है। खैर, भारत को बदनाम करने का प्रयास कर रहीं राष्ट्र विरोधी ताकतों को यह समझ लेना चाहिए कि यह देश बहुत झंझावात झेलने के बाद भी अपनी मूल पहचान को बचाए रख सका है, फिर उनके षड्यंत्र के खिलाफ तो देश जाग गया है।
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