रविवार, 25 अक्टूबर 2015

कौन हैं गोमांस के लिए भूखे बैठे लोग?


'मैंने गाय का मांस खाया है। हिन्दुओ आओ मेरी हत्या कर दो।' 
'मैं गाय काट रहा हूं। तुम मेरा क्या बिगाड़ लोगे?'
'मैं तो बड़े मजे से गोमांस खाता हूं।' 
'हिन्दुओं के लिए होगी गाय माता, मेरे लिए तो एक पशु से अधिक कुछ नहीं।' 
'वैदिक काल में ऋषि-मुनि खाते थे गोमांस।' 
'मैं बीफ फेस्टीवल मना रहा हूं, मेरा कोई क्या बिगाड़ सकता है?' 
आपको नहीं लगता ये बयान जानबूझकर हिन्दुओं को चिढ़ाने के लिए दिए गए हैं। हिन्दुओं की भावनाओं का मजाक बनाकर कोई आखिर क्या हासिल करना चाहता है? ये बयान सांप्रदायिक सौहार्द बनाने वाले हैं या बिगाडऩे वाले? दरअसल, इस समय गाय के बहाने सब अपना लक्ष्य भेदने का प्रयास कर रहे हैं। लक्ष्य भाँति-भाँति के हैं, राजनीतिक, सांप्रदायिक और वैचारिक।
  धर्मनिरपेक्षता का खोल ओढ़कर बैठे प्रबुद्ध वर्ग के लिए गाय एक चौपाया मात्र हो सकती है। गाय को माता मानने वाले हिन्दू के लिए वह पूज्य है। भले ही आज अधिकांश हिन्दू घरों में गाय नहीं पाली जाती लेकिन आज भी प्रत्येक हिन्दू परिवार में पहली रोटी गाय के लिए ही बनती है। यह गाय के लिए हिन्दू की संवेदना और समर्पण का प्रतीक है। ऐसी अनेक परम्पराएं हैं जो साबित करती हैं कि भारत में गाय केवल पशु नहीं है। फिर क्यों, गोहत्या को सामान्य और गोमांस भक्षण को आम आदमी का अधिकार बताकर सहिष्णु हिन्दू को चिढ़ाने का काम किया जा रहा है? हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं पर चोट करके कुछ लोग निश्चिततौर पर सांप्रदायिक सद्भाव बिगाडऩा चाहते हैं। हिन्दुओं की भावनाओं के ईंधन से गोमांस पकाकर मुसलमानों की उदरपूर्ति करने का खिनौना षड्यंत्र रचा जा रहा है। मुसलमान को गाय का मांस खाने का फरमान कुरान ने सुनाया है क्या? उदारवादी और कुरान की समझ रखने वाला सच्चा मुसलमान इसका उत्तर देगा- 'नहीं।' मुसलमानों से ही क्यों, यह सवाल तो बहुत से ढोंगी सेक्युलर हिन्दुओं से भी है कि अपने पेट को कब्रिस्तान बनाने के लिए उन्हें गाय की बलि ही क्यों चाहिए? जीव हत्या से अपना पेट भरने वाले लोगों के निशाने पर हिन्दुओं की आस्था की प्रतीक गाय क्यों है? कौन हैं ये लोग जो गोमांस के लिए भूखे बैठे हैं? 
  कुरान, बाईबिल और किसी भी वैदिक ग्रंथ में गोमांस खाने का उपदेश नहीं दिया गया है। बल्कि सभी धार्मिक पुस्तकों में दूध देने वाले, मनुष्य का पोषण करने वाले जीवों के संरक्षण का आग्रह जरूर किया गया है। सनातन परंपरा तो जीव हत्या को पाप मानती है। बड़ी मजेदार बात है कि भारतीय वेद-पुराणों, रामायण-महाभारत को गल्प बताने वाले भी वेद के कुछेक सूत्रों का हवाला देकर यह साबित करने का प्रयास कर रहे हैं कि भारत में हिन्दू भी गोमांस खाता रहा है। गो-संरक्षण के उपदेशों से भरे पड़े वेदों के मंत्र, उपनिषदों की कहानियां, पुराणों की कथाएं इन लोगों को नहीं दिखती हैं। वेदों से घृणा करने वाले वामपंथी बुद्धिजीवियों को वेदों की कितनी समझ है? अपने हिसाब से वेदों की ऋचाओं का अनुवाद करने का वर्षों पुराना फार्मूला वामपंथियों ने यहां भी अपना लिया। अपने कुतर्कों से ये लोग जबरन ऋषि-मुनियों के मुंह में गोमांस ठूंसने का प्रयास कर रहे हैं? ऐसा कैसे संभव हो सकता है कि जिन वेदों-उपनिषदों-पुराणों में गो-संरक्षण, गो-पूजन और गो-पालन के उपदेश भरे पड़े हों, उनमें कहीं-कहीं एकाध सूत्र में गो हत्या और गोमांस भक्षण को जायज ठहराने की बात कही गई होगी। यह सब हिन्दुओं को लज्जित या भ्रमित करने के षड्यंत्र से अधिक और कुछ नहीं है। ऋग्वेद की आठ ऋचाएं गाय की आराधना मे लिखी गयी हैं, जबकि अथर्ववेद की 24 ऋचाओं में बैल (ऋषभ) को देवता मान कर उसकी प्रार्थना की गयी है। वेदों मे गाय के लिए अघन्या शब्द का बार-बार प्रयोग किया गया है। कम से कम ऐसी 16 ऋचाएं हैं, जिनमें गाय के लिए अघन्या शब्द का प्रयोग किया गया है। 
  भारत के इतिहास की मनमानी व्याख्या करने वाले इतिहासकारों ने गोमेध शब्द के आधार पर कहा है कि वैदिक काल में गायों को मारा जाता था। ऋषि-मुनि, देवी-देवता, ब्राह्मण और सामान्य हिन्दू परिवारों में गोमांस सेवन का प्रचलन था। गोमेध शब्द का अर्थ गायों की हत्या करना है तो फिर अश्वमेध यज्ञ में क्या होता था? क्या घोड़े मारे जाते थे? नरमेध यज्ञ में क्या मनुष्यों की बलि दी जाती थी? तब तो पितृमेध यज्ञ में निश्चित ही पिता को मारा जाता होगा? भाषा-शब्द और उसके प्रयोग की पृष्ठभूमि को समझे बिना या जानबूझकर अर्थ का अनर्थ करना घातक है। वामपंथ से प्रेरित षड्यंत्रकारी लेखक गोघन् शब्द का मतलब भी गाय की हत्या करने वाला निकालते हैं। जबकि स्वामी प्रकाशानंद सरस्वती ने अपनी पुस्तक 'द ट्रू हिस्ट्री ऑफ रिलीजन ऑफ इंडिया' के पृष्ठ क्रमांक-274 पर गोघन् (गोहन) शब्द का मतलब लिखा है- 'ऐसे अतिथि जो उपहार के रूप में गाय स्वीकार करते हैं।' व्याकरण के विद्वान महर्षि पाणिनी ने भी गोघन् (गोहन) शब्द का मानक अर्थ गाय को प्राप्त करने वाला बताया है। मनु को बदनाम करने वाले लोग भी स्पष्ट जान लें कि मनु ने मांस भक्षण का समर्थन नहीं किया है। उन्होंने तो यहां तक कहा है कि व्यक्ति जिस जीव का मांस खा रहा है, परलोक में वह उस मनुष्य का भक्षण करेगा। (मांस भक्षयितामुत्र यस्य मांसमदाम्यह्। एतन्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिण:।।) मनु ने प्राणियों की अहिंसा का गुणगान कई श्लोकों में करते हुए मांस भक्षण को पुण्यफल का विरोधी माना है। उन्होंने कहा है कि यदि कोई व्यक्ति सौ साल तक हर साल अश्वमेध यज्ञ करता रहे और यदि कोई व्यक्ति मांस न खाए तो उनका पुण्यफल समान होता है। स्वामी दयानंद सरस्वती ने 'सत्यार्थ प्रकाशÓ में स्पष्ट किया है कि कुछ शातिर लोगों ने हिन्दू धर्म को नुकसान पहुंचाने के लिए वेदों के उपदेश का अर्थ करने की जगह अनर्थ कर दिया है। गोमांस खाने के लिए वेदों को आधार बनाने वाले ये लोग कभी भी नहीं मानेंगे कि वेदों में गोमांस तो क्या किसी पशु का मांस खाने का उपदेश नहीं है। वैसे भी वामपंथी विचारकों के बारे में कहा जाता है कि वे अपनी ओर से गढ़े झूठ को इतनी जोर से बोलते हैं कि दूसरे का तर्क उन्हें सुनाई ही न दे। बाकि के लोगों के कान भी अपने झूठ के शोर से फोड़ देना इनकी आदत है। 
  वेदों ने गाय को अखिल ब्रह्माण का रूप बतलाया है। अथर्ववेद के अनुसार गाय के रोम-रोम में देवताओं का निवास है। भगवान श्रीकृष्ण ने अपने दिव्य-स्वरूपों का वर्णन करते हुए 'धेनूनामस्मि कामधुक्' कहा है। ऋषिकुलों में गुरुसेवा के साथ गोसेवा भी अनिवार्य होती थी। यजुर्वेद कहता है (१३/४२)- गां या हिंसीरदितिं विराजम् यानी गौ तेजस्वी और अवध्य है, इसलिए उसकी हत्या मत कर। ऐतरेय ब्राह्मण (४/१७) में कहा गया है- सर्वस्य वै गाव: प्रेमाण: सर्वस्य चारूतां गता: यानी गायें सबके प्रेम की वस्तु हैं, सबके लिए सुंदर हैं। वेद व्यास महाभारत के शांतिपर्व में कहते हैं (२६२/४७)- अहन्या इति गवां नामक एता हन्तुमर्हति/महच्चकाराकुशलं वृषं गा वाडडलभेत् तु य: यानी गायों का नाम ही अघ्न्या (अवध्य) है। फिर गायों को कौन काट सकता है? जो लोग गायों या बैलों को मारते हैं, वे बड़ा अयोग्य कर्म करते हैं। भगवान राम और कृष्ण भी गोपालक थे। बौद्ध धर्म के अनुयायी सम्राट अशोक के शिलालेखों में गाय-बैल आदि प्राणियों की हत्या न होने देने की आज्ञाएं मिलती हैं। सत्यकाम की ज्ञान परीक्षा की कहानी हो, महर्षि वशिष्ठ और शबला गाय की कथा हो, राजा जनक की ओर से याज्ञवल्क्य को एक हजार गाय दान देने का प्रकरण हो, राजा दिलीप की सत्व परीक्षा हो, गोदावरी की उत्पत्ति की कथा हो, ऐसे अनेक ऐतिहासिक उदाहरण हैं, जो गाय के महत्व एवं उसके संरक्षण की बात को प्रमाणित करते हैं। 
  सबसे महत्वपूर्ण बात यह मान भी लिया जाए कि वेदों में कहीं-कहीं पर गोमांस के सेवन की बात आती है तो क्या उस परम्परा को आज भी जारी रखना चाहिए क्या? यूं तो प्राचीन भारत की बात करते ही वामपंथी विचारक दस-दस हाथ उछलने लगते हैं। हो-हल्ला मचाते हैं कि देखिए राष्ट्रवादी षड्यंत्र रच रहे हैं, भारत को आदिम युग की ओर धकेलना चाह रहे हैं। वामपंथी अभी ठीक से न तो भारत को समझे हैं, न भारतीय परम्पराओं को और न ही हिन्दू धर्म को जान पाए हैं। हिन्दू वैज्ञानिक जीवन पद्धति है। हिन्दू प्रगतिशील और सुधारवादी हैं। अलग-अलग काल में प्रकारान्तर आईं कुरीतियों को दूर करके ही हिन्दू धर्म बढ़ता रहा है। इसलिए यदि वैदिक युग में गोमांस खाया भी जाता होगा तो अब हिन्दू गोमांस खाना नहीं चाहता है। 
बुद्धिवादियों को समझना होगा कि इस देश में मुसलमानों के साथ-साथ हिन्दू भी रहते हैं। जिस तरह वे मुसलमानों की धार्मिक भावनाओं की चिंता करते हैं, उसी तरह हिन्दुओं की भावनाओं का आदर उन्हें करना चाहिए। परिवार में तब तक ही एकता बनी रहती है जब तक सभी भाइयों को समान आदर-अधिकार मिलता है। किसी एक भाई का अधिक तुष्टीकरण और दूसरे भाई की भावनाओं की लगातार उपेक्षा दोनों के बीच झगड़े का कारण बनती है। 
  कुछ भी खाने की आजादी का समर्थन करते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय के एक मुस्लिम प्रोफेसर एश्ले एनपी ने अपनी संकीर्ण मानसिकता का परिचय दिया है। उन्होंने अपने फेसबुक पोस्ट में लिखा था- 'वे सूअर का मांस खाने वाले पांच लोगों को पार्टी देना चाहते हैं। हालांकि मैं धार्मिक कारणों से सूअर का मांस नहीं खाता हूं।' उन्हें अपना धार्मिक कारण तो याद है लेकिन हिन्दुओं की आस्था का क्या करें साहब? कहने वाले कह सकते हैं कि प्रो. एश्ले एनपी खुद सूअर का गोश्त खाएं, अपने मौलानाओं को भी खिलाएं, हिन्दुओं को इससे कोई आपत्ति नहीं है। हिन्दू तो आपसे इतनी सद्भावना चाहते हैं कि गाय को मत काटो, गाय का मांस मत खाओ। जेएनयू से लेकर जम्मू-कश्मीर तक, कहीं भी हिन्दुओं को चिढ़ाने के लिए 'बीफ पार्टी' का आयोजन न किया जाए। भारत के मुसलमानों को आंखें खोलकर देखना चाहिए कि कौन लोग हैं जो उन्हें गाय का मांस खाने वाला सिद्ध करके अपना हित साधना चाहते हैं? जबकि हिन्दुओं की धार्मिक/सांस्कृतिक भावनाओं के भड़क जाने के भय से बाबर जैसे बादशाह ने भी अपने बेटे हुमायूं को पत्र लिखकर कहा कि तुम्हें गो हत्या से दूर रहना चाहिए। बाबरनामा में इसका जिक्र है। बाबर ने स्वयं भी अपने शासनकाल में गोवध पर पाबन्दी लगा रखी थी। अकबर के शासनकाल में भी गोवध की मनाही थी। यहाँ तक कि औरंगजेब जैसे कट्टर और धर्मांध शासक ने भी गोवध पर मृत्युदण्ड घोषित कर रखा था। आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफऱ ने भी 28 जुलाई 1857 को बकरीद के मौके पर गाय की कुर्बानी न करने का फऱमान जारी किया था। साथ ही यह भी चेतावनी दी थी कि जो भी गौहत्या करने या कराने का दोषी पाया जाएगा उसे मौत की सज़ा दी जाएगी।
  मुस्लिम विद्वान बताते हैं कि उनके धार्मिक ग्रंथों में भी गाय के दूध को फायदेमंद और गोश्त को नुकसानदेह बताया गया है। कुरान में सात आयतें ऐसी हैं, जिनमें दूध और ऊन देने वाले पशुओं के प्रति कृतज्ञता प्रकट की गई है। गाय और बैलों से इंसानों को मिलने वाले फायदों के लिए उनका आभार जताया गया है। उम्मुल मोमिनीन (हजऱत मुहम्मद साहब की पत्नी) फऱमाती हैं कि नबी-ए-करीम हजऱत मुहम्मद सलल्लाह फरमाते हैं कि गाय का दूध व घी फायदेमंद है और गोश्त बीमारी पैदा करता है। फिर क्या कारण है कि कुछ मुसलमान भी गोहत्या को अपना अधिकार समझ रहे हैं? क्यों गोमांस खाकर हिन्दुओं का दिल दुखा रहे हैं? सांप्रदायिकता का जहर घोलने वाले वामपंथियों-सेक्युलरों के षड्यंत्र को मुसलमान अपनी एक पहल से समाप्त कर सकते हैं। हिन्दू के लिए बरसों से गाय आस्था का प्रतीक है। हिन्दू चाहता है कि गाय का सम्मान हो, उसका अपमान नहीं। सामाजिक सौहार्द के लिए मुसलमानों को गोहत्या और गोमांस भक्षण से दूर रहना चाहिए। यदि ऐसा होता है तो भारतीय संस्कृति की धुरी गाय पर चल रही घृणित राजनीति भी धरी रह जाएगी। 

1 टिप्पणी:

  1. ठीक कह रहे हैं आप. बात गौमांस खाने या सूअर का मांस खाने की नहीं है. बात है एक धर्म के लोगों में दूसरों के प्रति घृणा फैलाने की.

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