अब पढ़ाया जाएगा- भारत का सच्चा और संतुलित इतिहास
राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) ने अपनी पाठ्य पुस्तकों को संशोधित करने का बहुप्रतीक्षित काम किया है। देश में लंबे समय से यह बहस चल रही थी कि पाठ्य पुस्तकों में भारत का संतुलित इतिहास क्यों नहीं पढ़ाया जाता है? आखिर वह क्या सोच रही होगी जिसने भारतीय नायकों को इतिहास में न केवल सीमित स्थान दिया, अपितु उनको पराजित राजा की तरह ही प्रस्तुत किया? वहीं, भारत को लूटने के उद्देश्य से आए मुगल आक्रांताओं का न केवल महिमामंडन किया अपितु इतिहास की पुस्तकों में उन्हें सर्वाधिक स्थान देकर यह स्थापित करने का प्रयास किया कि मुगल काल ही भारत का वास्तविक इतिहास है। बौद्धिक चतुराई दिखाकर मुगलिया शासन की क्रूरताओं पर पर्दा डाल दिया गया। अब जबकि एनसीईआरटी ने भारत के इतिहास को भारतीय दृष्टिकोण से प्रस्तुत करने की दिशा में जनाकांक्षाओं के अनुरूप पहल की है, तब यही सोच विरोध कर रही है।
कहना होगा कि भारत सरकार ने इतिहास के सभी पहलुओं को नये पाठ्यक्रम में शामिल किया है। एनसीईआरटी की नवीन पुस्तकें अधिक प्रामाणिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ इतिहास लेखन के अंतरराष्ट्रीय मापदंड़ों के अनुरूप तैयार की गई हैं। ऐसा नहीं है कि मुलग शासकों के केवल अत्याचार को ही सामने रखा गया है अपितु उन्होंने जो कुछ अच्छा किया है, उसकी भी चर्चा की गई है। जबकि पहले केवल उनका महिमामंडन किया गया था, उनके क्रूरतम चरित्र पर पूरी तरह से पर्दा डाल दिया गया था। तथ्यों को छिपाना इतिहास लेखन कतई नहीं है। यह तो विद्यार्थियों के साथ छल है, जो उन्हें वास्तविक इतिहास से दूर रखता है। चयनित इतिहास पढ़कर किसी विद्यार्थी के भीतर ‘क्रिटिकल थिंकिंग’ कैसे विकसित हो पाएगी? एनसीईआरटी की इस नई पहल से यह स्पष्ट है कि अब छात्रों को इतिहास के सिर्फ एक पक्ष को नहीं, बल्कि घटनाओं के बहु-आयामी दृष्टिकोण को भी समझने का अवसर मिलेगा। यह बदलाव न केवल शिक्षा के स्तर को ऊँचा उठाएगा, बल्कि छात्रों में आलोचनात्मक सोच और ऐतिहासिक समझ को भी मजबूत करेगा।
एनसीईआरटी की नवीन पाठ्य पुस्तकें राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के अनुरूप तथा राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा - स्कूल शिक्षा-2023 के प्रकाश में विकसित की गई हैं। पुस्तकों में उल्लेखित सभी तथ्य प्राथमिक एवं द्वितीयक ऐतिहासिक स्रोतों पर आधारित हैं, जो इतिहास की सत्यनिष्ठ एवं शोधपरक समझ को प्रकट करते हैं। पहले के इतिहासकारों की तरह उपन्यास शैली में इतिहास को मनगढंत तथ्यों के आधार पर उल्लेखित नहीं किया गया है। हमें याद होगा कि शिक्षा बचाओ आंदोलन के तहत दीनानाथ बत्रा जी ने पाठ्य पुस्तकों से ऐसे कई तथ्य और घटनाक्रमों को न्यायालय में चुनौती दी थी, जिन्हें वामपंथ और कांग्रेस द्वारा पोषित तथाकथित इतिहासकारों ने बिना प्रमाणों के शामिल कर दिया था। न्यायालय के आदेश पर ऐसी पुस्तकों एवं तथ्यों को हटाने के लिए सरकारों को मजबूर होना पड़ा था। शिक्षा बचाओ आंदोलन की सफलता है कि अब भारत के इतिहास को भारतीय दृष्टिकोण से पढ़ाया जाएगा।
मुगल बादशाहों के स्तुतिगान लिखते समय कम्युनिस्ट इतिहासकारों ने कितनी चतुराई से सच को छिपाया है, उसके कुछ तथ्य नवीन पाठ्यक्रम में शामिल किए गए हैं। ‘एक्सप्लोरिंग सोसाइटी: इंडिया एंड बियॉन्ड’ पाठ में मुगल शासकों की क्रूरता और लूटपाट को उजागर करने के साथ ही उन्हें बुद्धिजीवी और कला प्रेमी भी बताया गया है। यानी एक संतुलित दृष्टिकोण से उनके संबंध में लिखा गया है। एक अन्य अध्याय- ‘रीशेपिंग इंडियाज पॉलिटिकल मैप’ में बाबर को एक ओर कविता, वास्तुकला और प्रकृति प्रेमी के रूप में बताया गया है, वहीं दूसरी ओर उसे क्रूर और शहरों को लूटने वाला, महिलाओं और बच्चों को गुलाम बनाने वाला और ‘खोपड़ियों के टावर’ बनवाकर उस पर गर्व महससू करने वाला बताया गया है। यह तथ्य कहीं ओर नहीं अपितु बाबरनामा में ही स्पष्ट रूप से कई स्थानों पर वर्णित है।
इसी तरह, अकबर के शासन को ‘क्रूरता और सहिष्णुता’ का मिश्रण बताया गया है। चित्तौड़ किले पर कब्जे के दौरान अकबर ने 30,000 आम नागरिकों के नरसंहार और महिलाओं-बच्चों को गुलाम बनाने का आदेश दिया था। इसका उल्लेख प्रो. सतीश चंद्र की पुस्तक "Medieval India: From Sultanat to the Mughals – Mughal Empire (1526–1748)" (पृष्ठ 107) में स्पष्ट रूप से किया गया है। अकबर के एक बयान का भी जिक्र एनसीईआरटी की पुस्तक में है, जिसमें वह कहता है कि “उन्होंने काफिरों के किलों पर कब्जा कर इस्लाम स्थापित किया और मंदिरों को नष्ट किया”। इसी पुस्तक में अकबर के उस पक्ष को भी सामने रखा गया है, जिसमें कुछ साल बाद उसके शांति की ओर झुकाव के संकेत मिलते हैं। इस संदर्भ में अबुल फजल की रचनाओं से उद्धृत कर अकबर के इस विचार को उल्लिखित किया गया है, जिसमें वह कहता है, “पहले मैं दूसरों को अपने धर्म में परिवर्तित करने हेतु विवश करता था और उसे इस्लाम समझता था। परंतु जैसे-जैसे मेरी समझ बढ़ी, मुझे लज्जा आई। जब मैं स्वयं मुसलमान नहीं तो दूसरों को बलपूर्वक मुसलमान बनाना अनुचित था”। उल्लेखनीय है कि अकबर ने बाद में ‘दीन-ए-इलाही’ संप्रदाय का प्रवर्तन किया था।
हर कोई आश्चर्यचकित रह जाता है कि कम्युनिस्ट लेखकों ने औरंगजेब जैसे क्रूर बादशाहा को उदारवादी बताने की बेशर्म कोशिश की है। औरंगजेब के चरित्र को उजला दिखाने के लिए ये इतिहासकार तर्क देते हैं कि औरंगजेब ऐसा बादशाह था जो टोपियां सिलकर अपना खर्च निकालता था। सच यह है कि औरंगजेब का शासनकाल रक्त रंजित है। उसने मंदिरों, जैन मंदिरों और सिख गुरुद्वारों को नष्ट करने के फरमान जारी किए। बनारस, मथुरा और सोमनाथ जैसे मंदिरों के साथ-साथ सूफी और पारसी समुदायों पर अत्याचार किया। सिख गुरुओं को जिस नृशंसता से औरंगजेब ने कत्ल किया, उसकी कल्पना करने से ही उसका चरित्र सामने आ जाता है। गुरु तेग बहादुर को साथ औरंगजेब के आदेश पर दी गई क्रूर यातना एवं उनके बलिदान का उल्लेख पाठ्यपुस्तक के पृष्ठ-51 पर किया गया है। इसका विवरण उमेर मिर्ज़ा की पुस्तक ‘Guru Tegh Bahadur: Prophet & Martyr – A Biography’ में भी प्रमाणित रूप से उपलब्ध है।
इस्लाम के विस्तार में ‘गाजी’ बनने की चाहत के साथ मुगल बादशाहों ने हिन्दू मंदिरों को ध्वस्त करने का काम किया है। प्रसिद्ध इतिहासकार आर.सी. मजूमदार द्वारा संपादित ग्रंथ ‘The Mughal Empire’ (The History and Culture of the Indian People, खंड 7, भारतीय विद्या भवन, 1974, पृष्ठ 234–235) में प्रमाणित रूप से उल्लिखित किया है कि “बनारस (वाराणसी), मथुरा और सोमनाथ सहित अनेक मंदिरों का विध्वंस किया गया”। नेविल एचआर द्वारा लिखित Benaras Gazetteer (पृष्ठ 206) में भी यह तथ्य उल्लिखित है कि “ऐसा कहा जाता है कि केवल अकेले बनारस नगर में ही कम से कम छिहत्तर मंदिरों को ध्वस्त कर दिया गया”। मथुरा के मंदिर के विध्वंस का उल्लेख सर जदुनाथ सरकार की ऐतिहासिक अनुवादित कृति ‘मआसिर-ए-आलमगीरी’ में भी विस्तार से किया गया है।
इन प्रमाणों से यह स्पष्ट होता है कि एनसीईआरटी द्वारा तैयार की गई कक्षा-8 की सामाजिक विज्ञान की पाठ्यपुस्तक गहन शोध एवं ऐतिहासिक प्रमाणिकता पर आधारित है। यह तथ्यात्मक प्रस्तुति एवं विवेकपूर्ण विश्लेषण के बीच संतुलन स्थापित करती है। अतीत के असुविधाजनक तथ्यों से बचने की अपेक्षा उन्हें स्पष्टता, संवेदनशीलता और शोधपरक विवेक के साथ विद्यार्थियों को बताने की आवश्यकता है। यही प्रयास एनसीईआरटी ने किया है। एनसीईआरटी के राजनीतिक विज्ञान समूह के प्रमुख मिशेल डैनिनो ने एक समाचारपत्र को दिए साक्षात्कार में कहा है कि “इतिहास को साफ-सुथरा दिखाने के बजाय, उसके उजले और स्याह, दोनों पक्षों को सामने लाना जरूरी है। हम मुगल शासकों को बदनाम नहीं कर रहे, लेकिन उन्हें समझाना जरूरी है। अकबर ने खुद स्वीकार किया था कि उनके शुरुआती वर्षों में वे क्रूर थे। हमें यह दिखाना होगा कि इन शासकों की अपनी सीमाएं थीं और उन्होंने क्रूर कृत्य किए”। कहना होगा कि नवीन पाठ्य पुस्तकें को लेकर भ्रम का वातावरण बनाने की अपेक्षा उनकी सराहना करनी चाहिए। यह केवल इतिहास पढ़ने का माध्यम नहीं अपितु चिंतनशील, सजग और उत्तरदायी नागरिकों के निर्माण की दिशा में एक सुदृढ़ शैक्षिक पहल है।
जन आंदोलन की कहानियों को भी मिला स्थान :
नवीन पुस्तक में मुगलों के विरुद्ध अलग-अलग समुदायों और सामान्य जनों के आंदोलन को भी स्थान दिया गया है। इसमें जाट किसान, भिल, गोंड, संथाल और कोच जनजातियों के विद्रोह का उल्लेख है, जिन्होंने अपनी जमीन बचाने के लिए संघर्ष किया। रणक्षेत्र में अकबर की सेना को लोहे के चने चबाने के लिए मजबूर करनेवाली पराक्रमी रानी दुर्गावती का उल्लेख है। मेवाड़ के राणा प्रताप की कहानियां भी शामिल हैं। इसके अलावा, औरंगजेब की सेना के खिलाफ असम के अहोम समुदाय के प्रतिरोध को भी शामिल किया गया है, जिसे अब तक स्थान नहीं मिला था। अहोम साम्राज्य के महान सेनापति लचित बोरफुकन ने औरंगजेब को असम में घुसने नहीं दिया था। ओडिशा के शक्तिशाली गजपति शासक नरसिंहदेव प्रथम, तुलुनाडु की वीर रानी अबक्का और त्रावणकोर के दूरदर्शी शासक मार्तंड वर्मा जैसे महत्वपूर्ण भारतीय नायकों से जुड़े अध्याय शामिल किए गए हैं। यह पहल भारत के विभिन्न कोनों से आने वाले ऐतिहासिक योगदानों को उजागर करती है।
सिख साम्राज्य का विस्तृत चित्रण :
सिख इतिहास को भी नवीन पुस्तक में गहराई से प्रस्तुत किया गया है। अब गुरु नानक देव की आध्यात्मिक यात्रा और गुरु गोबिंद सिंह के सैन्य प्रतिरोध पर विशेष अध्याय जोड़े गए हैं। विद्यार्थियों को यह जानकारी मिलेगी कि खालसा पंथ की नींव कैसे रखी गई। पुस्तक इस बात पर भी प्रकाश डालती है कि कैसे 19वीं सदी के मध्य तक सिख साम्राज्य ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ एक मजबूत शक्ति के रूप में खड़ा रहा।
मराठा इतिहास का विस्तार :
मराठा इतिहास को अब तक 8वीं कक्षा की पुस्तकों में केवल डेढ़ पृष्ठ में समेटा जाता था, लेकिन अब इसे 22 पृष्ठों का एक विस्तृत अध्याय दिया गया है। यह विस्तार 17वीं शताब्दी में छत्रपति शिवाजी महाराज के उदय, रायगढ़ किले में उनके राज्याभिषेक, हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना, उनकी अद्वितीय गुरिल्ला युद्ध शैली, सैन्य रणनीतियों और प्रशासन पर केंद्रित है। याद रहे कि कम्युनिस्टों ने यह स्थापित किया कि अंग्रेजों ने मुगल बादशाहों से भारत की सत्ता के सूत्र प्राप्त किए थे लेकिन सच यह है कि सन् 1803 में असई की लड़ाई के साथ ही भारत में अंग्रेजों का वर्चस्व बढ़ गया, जो तीसरे आंग्ल-मराठा युद्ध-1818 में अंग्रेजों की जीत के साथ लंबे समय तक स्थायी हो गया। स्मरण रखें कि हिन्दवी स्वराज्य पर हमला करने के लिए मुगलों ने ही अंग्रेजों को आमंत्रित किया था। नयी पुस्तक में छत्रपति शिवाजी महाराज के अलावा, छत्रपति शंभूराजे (संभाजी महाराज), राजाराम, शाहूजी, ताराबाई, बाजीराव, महादजी सिंधिया और नाना फडणवीस का योगदान भी अब पाठ्यक्रम का हिस्सा है। वामपंथी इतिहासकारों ने मुगलों के शासन का झूठा महिमामंडन करने के लिए इन सब नायकों को पहले कुछ पंक्तियों/पृष्ठों में ही समेट दिया था, लेकिन अब भारत के इन नायकों पर पूरे अध्याय शामिल करके उनके योगदान को उचित महत्व दिया है। यह बदलाव विद्यार्थियों को भारत के विविध और समृद्ध इतिहास की अधिक व्यापक समझ प्रदान करेगा।
मुगल आक्रांताओं की क्रूरता पर पर्दा डालने के लिए छत्रपति शिवाजी महाराज को लांछित करने का अपराध करते कम्युनिस्ट लेखक :
कम्युनिस्ट इतिहासकार एवं लेखक भारत और भारतीय नायकों के प्रति किस हद तक दूषित सोच रखते हैं, उसका उदाहरण हमें इस मुद्दे को लेकर चल रही बहसों में दिखायी पड़ता है। मुगलों के अत्याचार और क्रूरताओं का बचाव करने के लिए कम्युनिज्म खेमे तथाकथित इतिहासकार छत्रपति शिवाजी महाराज को लांछित करने का अपराध कर रहे हैं। छत्रपति शिवाजी महाराज और मुगल बादशाहों की तुलना किसी भी रूप में नहीं की जा सकती है। एक ओर मुगल बादशाह थे, जिन्होंने लूट-खसोट और अपने संप्रदाय के विस्तार के उद्देश्य से शासन किया। वहीं, छत्रपति शिवाजी महाराज ने मुगलिया सल्तनत द्वारा किए जा रहे अत्याचार के विरुद्ध बिगुल फूंका। महाराज का शासन भारतीय जीवनमूल्यों पर आधारित था। उनके द्वारा स्थापित हिन्दवी स्वराज्य में लोक की महत्वपूर्ण भूमिका है। जबकि मुगलों ने इस्लाम के विस्तार के लिए राज्य की शक्ति का दुरुपयोग किया। बाबर से लेकर औरंगजेब तक का मुगलिया इतिहास क्रूरताओं से भरा पड़ा है। याद रहे कि कम्युनिस्ट इतिहासकारों ने पूर्व में भी छत्रपति शिवाजी महाराज के व्यक्तित्व को लांछित करने का पाप किया है लेकिन न तो तब समाज ने उनकी सुनी और न अब सुनेगा। भारत के नायकों की प्रतिष्ठा को धूमिल करनेवाले कम्युनिस्ट लेखकों को समझ लेना चाहिए कि अब उनके दिन पूरी तरह लद चुके हैं। उनकी स्थिति उस दीपक की तरह है, जो बुझने से पहले फड़फड़ाता है।
दरअसल, कम्युनिस्ट विचारधारा का भारत के साथ गहरा जुड़ाव नहीं रहा है। कम्युनिस्ट भी भारत के बाहर से प्रेरणा लेते रहे हैं। इसलिए भारतीय नायकों को उसी दृष्टिकोण से देखते हैं। यह सच भी देश के सामने है कि भारत के इतिहास को विकृत ढंग से लिखने/पढ़ाने के पीछे कम्युनिस्ट विचारधारा मुख्य रूप से रही है। कांग्रेस के शासनकाल में शिक्षा संस्थानों एवं शिक्षा नीति तय करनेवाले स्थानों पर बैठकर कम्युनिस्ट विचार के लेखकों एवं शिक्षाविदों ने ऐसा इतिहास लिखा, जो अर्धसत्य पर आधारित है और इतिहास की वास्तविक तस्वीर को छिपाता है। इसके साथ कम्युनिस्टों द्वारा लिखा इतिहास भारत के लोगों में आत्म गौरव की भावना नहीं जगाता अपितु वह भारतीय समाज को आत्मदैन्य की ओर धकेलता है। अब जब देश में भारतीय दृष्टिकोण की सरकार है, तब कम्युनिस्टों की लीपा-पोती को साफ करके एवं एक सम्यक दृष्टि पाठ्य पुस्तकों के माध्यम से नवागत पीढ़ी को देने का उपक्रम किया जा रहा है, तब कम्युनिस्ट और उनको पालने-पोषने वाले राजनीतिक दलों को तकलीफ होना स्वाभाविक ही है।
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