प्र धानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने चिंता जताई है कि जब भाजपा सत्ता में होती है, झूठों का समूह दुष्प्रचार में जुट जाता है। मुंबई में डॉ. भीमराव आम्बेडकर के स्मारक का शिलान्यास करते हुए उन्होंने यह चिंता 'आरक्षण विवाद' के संदर्भ में जताई है। उन्होंने कहा कि अटल बिहारी वाजपेयी के समय भी यह समूह दुष्प्रचार में सक्रिय था। प्रधानमंत्री ने स्पष्ट किया है कि भाजपा आरक्षण को खत्म नहीं करेगी। प्रधानमंत्री ने 'झूठों के समूह' में निश्चिततौर पर उन्हीं तथाकथित प्रगतिशीलों को चिन्हित किया होगा, जो वर्षों से भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रवादी विचारधारा के प्रति अछूतों की तरह व्यवहार करते आए हैं। इस समूह को राष्ट्रवादी विचारधारा का विरोधी समूह भी कहा जा सकता है। या कहें कि 'झूठों का समूह' की अपेक्षा 'राष्ट्रवाद विरोधी समूह' कहना अधिक उचित होगा।
बहरहाल, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत के साक्षात्कार के एक अंश को लेकर आरक्षण का विवाद उपजा था। सरसंघचालक ने यह इंटरव्यू किसी लोकप्रिय-लोकव्यापी समाचार पत्र-पत्रिका या न्यूज चैनल को नहीं दिया था। बल्कि, राष्ट्रवादी विचारधारा के संवाहक 'पाञ्चजन्य' को दिया था। उन्होंने आरक्षण की समीक्षा की बात की थी, आरक्षण खत्म करने की नहीं। समाज में जब तक विषमता है, तब तक आरक्षण की अनिवार्यता पर संघ पहले भी समय-समय पर अपनी स्पष्ट राय जाहिर कर चुका है। लेकिन, राष्ट्रवाद विरोधी समूह ने सरसंघचालक के बयान को इस तरह पेश किया, जैसे संघ के इशारे पर भाजपा सरकार आरक्षण व्यवस्था खत्म कर देगी।
दादरी की घटना दु:खद है। लेकिन, झूठों के समूह ने इस घटना को भी विश्व पटल पर इस तरह पेश किया कि जैसे अब इस देश में मुसलमानों का रहना मुश्किल हो गया है। भाजपा की सरकार बनते ही भारत में मुसलमानों पर अत्याचार होने लगे हैं। भारत में सांप्रदायिक घटनाएं आजादी के पहले से चली आ रही हैं। भाजपा के शासन में होने वाली घटनाओं को इस नजरिए से देखना कि ये जहर राष्ट्रवादी ताकतों ने फैलाया है, पूर्णत: गलत नजरिया है। राष्ट्रवाद विरोधी समूह रणनीति बनाकर विरोध प्रदर्शन करते हैं ताकि चर्चा में अधिक समय तक बने रहा जा सके। बुद्धिजीवियों की हत्या और दादरी की सांप्रदायिक घटना को आधार बनाकर अब तक सबसे पहले नयनतारा सहगल ने सम्मान लौटाया, फिर अशोक वाजपेयी और उसके बाद एक-एक करके अब तक नौ साहित्यकार साहित्य अकादमी से वर्षों पहले प्राप्त सम्मान लौटा चुके हैं। साहित्य अकादमी के निदेशक सहित अन्य प्रबुद्धजन भी साहित्यकारों की 'नैतिकता' पर प्रश्न चिह्न खड़े कर रहे हैं।
एफटीआईआई में हो रहे हंगामे को ही देख लीजिए। वहाँ गजेन्द्र चौहान की नियुक्ति को 'शिक्षा का भगवाकरण' का रूप देकर हंगामा काटा जा रहा है। इससे पहले वहाँ कम्युनिस्ट विचारधारा के अध्यक्ष रहे तब किसी ने 'शिक्षा का वामपंथीकरण' का नारा बुलंद नहीं किया। जबकि वामपंथ का पोषण कर रहे पूर्ववर्ती अध्यक्षों ने तो एफटीआईआइ के छात्रों को बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराने के कभी प्रयास भी नहीं किए। अब एफटीआईआई की दशा सुधारने की जिम्मेदारी सरकार ने अभिनेता गजेन्द्र चौहान को दी तो इसी समूह ने आसमान सिर पर उठा लिया। प्रधानमंत्री का पीड़ा कहें या आरोप अपनी जगह पर सही है।
कांग्रेस के शासन काल में 1975 में अभिव्यक्ति का अधिकार छीनकर आपातकाल लगा दिया गया, 1984 में सिक्खों का एकतरफा नरसंहार किया गया, 1986 में जम्मू-कश्मीर दंगा, 1987 में मेरठ दंगा, 1989 भागलपुर दंगा, 1989 में वाराणसी दंगा, 2006 में अलीगढ़ में दंगा, 2010 में देगंगा दंगे (पश्चिम बंगाल), 2012 में असम में दंगा और 2013 में मुजफ्फरपुर में दंगा हुआ। लेकिन, देश-विदेश में चर्चा सिर्फ बाबरी ढहाने, गुजरात दंगों और दादरी की ही हो रही है। भारत माता को डायन कहने वाला कट्टर मुस्लिम नेता आजम खान दादरी के बहाने बाबरी का जिक्र करना नहीं चूका। राष्ट्रवाद विरोधी समूह के षड्यंत्र के कारण ही दादरी काण्ड अब तक का 'सबसे भयंकर सांप्रदायिक दंगा' प्रतीत होने लगा है।
सामान्य जनता भी यह महसूस करती है कि कुछ खास किस्म के बुद्धिजीवि गिरगिट की तरह व्यवहार करते हैं। इस तरह के समूहों को अपने स्वार्थों, वैचारिक और राजनीतिक संघर्षों के बीच में इस देश को पीसने से बाज आना होगा। कोई भी अपनी वैचारिक लड़ाई इस तरह नहीं लड़े कि छोटी-छोटी घटनाओं पर देश बदनाम होता रहे। जनता ने भारतीय जनता पार्टी को जनादेश दिया है, प्रतिपक्ष को उसका सम्मान करना तो सीखना होगा। नीतिगत विरोध करिए, स्वागत है, जरूरी भी है। लेकिन, बेवजह तिल का ताड़, राई का पहाड़ बनाने का प्रयत्न मत कीजिए।
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