ति ल का ताड़ और राई का पहाड़ बनाने की कला किसी को सीखनी हो तो न्यूज चैनल्स से सर्टिफिकेट कोर्स किया जा सकता है। हमारे न्यूज चैनल्स इसमें माहिर हैं। बात का बतंगड़ बनाना भी उन्हें बखूबी आत है। मुद्दों को सुनियोजित दिशा में मोडऩे की कलाकारी भी उनसे सीखी जा सकती है। संदर्भ हटाकर किसी एक वाक्य पर रायता फैलाने में टीवी पत्रकारिता अव्वल होती जा रही है। टीआरपी का बेताल पीठ पर सवार है या फिर न्यूज चैनल्स का कोई और एजेंडा है? टीआरपी के चक्कर में टीवी मीडिया घनचक्कर हो गया है, यह हम सभी जानते हैं। लेकिन, इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि कुछ टीवी चैनल्स के मालिकों, संपादकों और पत्रकारों के भी अपने एजेंडे हैं। अपनी विचारधारा है। अपना चिंतन है। विचारधारा और चिंतक होना कोई अपराध नहीं, होना ही चाहिए। लेकन, पत्रकारिता का धर्म कहता है कि खबर लिखते-दिखाते-सुनाते समय अपनी विचारधारा को किनारे रख देना चाहिए। जरा खुलेमन से सोचिए, पत्रकार अपने धर्म का पालन कर रहे हैं क्या? सब पत्रकार एक जैसे नहीं हैं। लेकिन, देखने में आ रहा है कि अधिकतर पत्रकार या तो चैनल की विचारधारा के दबाव में या फिर अपनी विचारधारा के दबाव में पत्रकारिता के धर्म का पालन नहीं कर रहे हैं। ऐसा करके वे समूची पत्रकारिता की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े करवा रहे हैं।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक मोहनराव भागवत के आरक्षण संबंध बयान पर जो देखने-सुनने और पढऩे को मिला, उस पर कहा जा सकता है कि पत्रकार अपना एजेंडा चला रहे हैं? या फिर किसी भी कीमत पर टीआरपी की दौड़ जीतना चाहते हैं। उनके लिए समाजहित चिंता का विषय नहीं, मुद्दे को सही दिशा देना जरूरी नहीं। जरूरी है तो सनसनी फैलाना, हायतौबा मचाना। आरक्षण जैसे संवेदनशील मुद्दे पर जिस तरह की बहसें टीवी चैनल्स ने आयोजित की हैं, उनसे आरक्षण पर राजनीति को हवा मिलेगी, आरक्षण का हल नहीं निकलेगा।
सरसंघचालक भागवत ने क्या कहा, कब कहा और किस संदर्भ में कहा? यह सब विलोपित करके टीवी एंकर जोर-जोर से चिल्लाए जा रहे थे कि संघ आरक्षण खत्म करना चाहता है। आरक्षण और सरसंघचालक के बयान के संदर्भ में उचित और तार्किक बातों को सुनने के लिए एंकर राजी ही नहीं थे। अपने एजेंडे के खिलाफ तर्क देने वाले वक्ता को एंकर बोलने ही नहीं देते।
पत्रकारों को वाल्टेयर के वाक्य (हो सकता है कि मैं आपके विचारों से सहमत न हो पाऊं फिर भी विचार प्रकट करने के आपके अधिकारों की रक्षा करूंगा।) का तो ध्यान रखना चाहिए। ध्यान देने की बात है कि कुछ दिन पहले ठीक इसके उलट ये ही एंकर और न्यूज चैनल्स चीख-चीखकर कह रहे थे कि देखिए संघ आरक्षण के पक्ष में है। तब भागवतजी ने वंचित वर्गों को मुख्यधारा में लाने के लिए आरक्षण की आवश्यकता पर बयान दिया था। उन्होंने कहा था कि जब तक समाज में विषमता है तब तक आरक्षण की आवश्यकता है। अभी जो विवाद हुआ है, वह पाञ्चजन्य और आर्गेनाइजर को दिए भागवतजी के साक्षात्कार पर आधारित है। अपने साक्षात्कार में सरसंघचालक ने ऐसा कुछ भी नहीं कहा है कि जिससे यह चिल्ला-चौंट मचाई जाए कि संघ आरक्षण को खत्म करना चाहता है।
भागवतजी के कहने का आशय है कि आरक्षण पर अब तक राजनीति ही होती रही है, इस कारण यह विवाद का विषय बन गया है। यदि संविधानकारों के मन के अनुरूप इस व्यवस्था को लागू किया जाता तो आज विषम स्थितियां नहीं बनती। आरक्षण किसे मिले और कब तक मिले? यह तय करने का अधिकार समाज के ही लोगों को देने का सुझाव उन्होंने दिया है ताकि इस पर राजनीतिक रोटियां न सेकी जा सकें। इसके लिए उन्होंने एक समिति बनाने की बात कही है, जिसमें सेवाभावी लोगों को शामिल किया जाए।
एक महत्वपूर्ण तथ्य जो न्यूज चैनल्स की बहस में हटा दिया गया कि यह संपूर्ण साक्षात्कार केवल आरक्षण के संदर्भ में नहीं है बल्कि दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानवदर्शन के संदर्भ में है। दीनदयाल उपाध्याय की जन्मशती २५ अक्टूबर से प्रारंभ हो रही है। बहरहाल, यदि हम मोहन भागवतजी के साक्षात्कार के आरक्षण संबंधी सवाल-जवाब के हिस्से को पढ़ें तो स्पष्ट होता है कि उन्होंने आरक्षण की समीक्षा की बात कही है, आरक्षण को खत्म करने की नहीं। समीक्षा तो होनी ही चाहिए। जनता को लाभ पहुंचाने के लिए लागू की गई योजना काम कर रही है या नहीं, कितना काम कर रही है, योजना को अधिक प्रभावी बनाने की जरूरत है या नहीं? ये ऐसे सवाल हैं जो सिद्ध करते हैं कि किसी भी योजना और व्यवस्था की सफलता-विफलता के परीक्षण के लिए उसकी समीक्षा अवश्य होनी चाहिए।
न्यूज चैनल्स चाहते तो विवाद खड़ा करने की जगह सरसंघचालक के बयान से उपजी बहस को उचित संदर्भ में ले जा सकते थे। लेकिन, जिन्हें संदर्भ हटाकर बयानों पर विवाद कराने में मजा आता हो, उनसे अब यह अपेक्षा बेमानी है। फिर भी, पत्रकारों से उम्मीद तो रहती ही है कि वे समाज हित में मुद्दों को उचित दिशा दें। आरक्षण ऐसा विषय बन गया है जिस पर कुछ भी कहना कठिन हो गया है। पत्रकारिता को इतना तो तय करना ही होगा कि उनके कारण आरक्षण का भूत समाज को भयभीत न करे। कुछ मुद्दों को टीआरपी का खेल न खेला जाए तो बेहतर होगा।
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