सु प्रीम कोर्ट ने समान नागरिक संहिता को लेकर भाजपानीत केन्द्र सरकार से सवाल पूछकर एक जरूरी बहस को जन्म दे दिया है। सुप्रीम कोर्ट में क्रिश्चयन डायवोर्स एक्ट की धारा 10ए (1) को चुनौती देने वाली याचिका की सुनवाई चल रही थी। याचिका दायर करने वाले अलबर्ट एंथोनी का सवाल है कि एक देश में एक ही मामले में अलग-अलग कानून क्यों हैं? ईसाई दंपती को तलाक लेने के लिए दो साल तक अलग-अलग रहना जरूरी है। जबकि हिन्दू मैरिज एक्ट में एक साल अलग रहने पर तलाक दे दिया जाता है। बात इसके आगे करें तो मुस्लिम पुरुष महज 'तलाक-तलाक-तलाक' कहकर ही महिला को छोड़ सकता है। वाट्सअप पर भी वह तीन बार तलाक लिख-बोल कर अपनी पत्नी को बता दे तो तलाक हो जाता है। हिन्दू और ईसाई दंपती को तलाक के लिए वाजिब कारण साबित करना होता है जबकि मुसलमानों में यह जरूरी नहीं है।
बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट ने साफ शब्दों में सरकार से पूछ लिया है- 'देश में कई पर्सनल लॉ हैं, इनसे बहुत भ्रम बना हुआ है। सरकार बताए कि वह समान नागरिक संहिता लाएगी या नहीं?' केन्द्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है। उसके घोषणा-पत्र में बरसों से समान नागरिक संहिता का मुद्दा शामिल है। इसलिए भी सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति विक्रमजीत सेन और शिवकीर्ति सिंह की खण्डपीठ ने नाखुशी जताते हुए वर्तमान सरकार पर टिप्पणी की है कि समान नागरिक संहिता पर आपको हो क्या गया है? आप इसको फौरन लागू क्यों नहीं करते? लेकिन, भाजपा सरकार के सामने अनेक दुविधाएं हैं।
भाजपा नेतृत्व चाहता है कि एक देश में एक ही कानून सबके लिए होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद समान नागरिक संहिता पर आम सहमति बनाने की बात कहने वाले केन्द्रीय विधि मंत्री डीवी सदानंद गौड़ा ने बहुत पहले समान नागरिक संहिता पर कानून लाने की बात कही थी। तब तुष्टीकरण और वोटबैंक की राजनीति करने वाले दलों और सेक्युलर बुद्धिजीवियों ने सरकार को आड़े हाथ ले लिया था। सेक्युलरों ने पिछले डेढ़ साल से ऐसा माहौल बना रखा है कि भाजपा शासन में मुसलमानों को कुचल दिया जाएगा। ऐसे माहौल में हिन्दू-मुसलमानों की सहमति लिए बिना सरकार कदम बढ़ाने में संकोच कर रही है। जबकि समान नागरिक संहिता वास्तव में धर्मनिरपेक्ष कानून है।
धर्म के आधार पर राजनीति की दुकानें चलाने वाले बेवजह मुसलमानों को समान नागरिक संहिता के नाम पर डराते/ठगते हैं। समान नागरिक संहिता न होने के कारण ही आज मुसलमान मुख्यधारा से पिछड़ गया है। मुस्लिम पर्सनल लॉ के कारण महिलाओं की क्या स्थिति है, यह किसी से छिपी नहीं है। मुस्लिम महिलाओं के सशक्तिकरण और समान नागरिक संहिता की ओर एक कदम बढ़ाने का फैसला सुप्रीम कोर्ट ने 'शाहबानो प्रकरण' में दिया था, जिसे तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और कांग्रेस ने कट्टरवादी मुसलमानों के दबाव में आकर संसद में उलट दिया था। प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भी मुस्लिम वोटबैंक की राजनीति में फंसकर समान नागरिक संहिता को लागू नहीं कर सके थे। जबकि हिन्दुओं के प्रचंड विरोध के बाद भी हिन्दू कोड बिल को उन्होंने लागू कर दिया था। इस दोहरी मानसिकता ने ही हिन्दू-मुस्लिम के बीच भेद की खाई को गहरा किया है। समान नागरिक संहिता पर यदि नेहरू ने आजादी के तत्काल बाद ही कड़ा कदम उठा लिया होता तो आज विवाद और तुष्टीकरण की स्थितियां नहीं बनतीं। आज यह सवाल नहीं उठता कि कानून की नजर में भी इस देश में हिन्दू-मुसलमान-ईसाई में भेदभाव किया जाता है।
समान नागरिक संहिता की बात करने पर भाजपा या राष्ट्रवादी विचारकों को मुस्लिम विरोधी कहने वालों को संविधान विरोधी क्यों नहीं समझा जाना चाहिए? भारतीय संविधान तो समानता की बात करता है। धर्मनिरपेक्षता की चादर ओढऩे वाले बताएंगे कि वे क्यों धर्म के आधार पर अलग-अलग पर्सनल लॉ का पक्ष लेते हैं? बहरहाल, मीडिया, सामाजिक कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों, धार्मिक नेताओं और राजनेताओं को इस बात को समझना चाहिए कि समान नागरिक संहिता भारत के बेहतर कल के लिए आवश्यक है। संविधान की मूल भावना भी यही है कि भारत का प्रत्येक नागरिक कानून की नजर में एक समान है। संविधान की धारा-44 में स्पष्ट कहा गया है कि सरकारों को देश में समान नागरिक संहिता का पालन कराना चाहिए। इसलिए इस मसले पर राजनीतिक दल दलगत राजनीति से ऊपर उठें, सामाजिक कार्यकर्ता सौहार्द का वातावरण बनाएं, धार्मिक नेता इसे व्यक्तिगत प्रतिष्ठा का प्रश्न न बनाएं, खास विचारधारा के लेखक-बुद्धिजीवि माहौल खराब न करें और मीडिया सार्थक बहस का आयोजन करे, हो-हल्ला न कराए।
आखिरी बात, समान नागरिक संहिता लागू होती है तो धर्म के नाम पर होनेे वाले आधे से अधिक विवाद खत्म हो जाएंगे। देश से किया गया अपना वादा निभाने के लिए भाजपा के पास यह सबसे अच्छा अवसर है, जब देश का सर्वोच्च न्यायालय सरकार को समान नागरिक संहिता के लिए कानून बनाने के लिए कह रहा है। एक और महत्वपूर्ण बात है कि अभी किसी हिन्दूवादी संगठन या व्यक्ति ने भाजपानीत सरकार से समान नागरिक संहिता की मांग नहीं की है। बल्कि अल्पसंख्यक समुदाय के व्यक्ति ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाई है कि एक देश में अलग-अलग कानून क्यों हैं? यानी अल्पसंख्यक भी एक कानून चाहते हैं। इसलिए समान नागरिक संहिता को अल्पसंख्यकों पर खतरे की तरह कतई न देखा जाए। यदि गहराई से चिंतन किया जाए तो समझ आएगा कि समान नागरिक संहिता धर्मनिरपेक्ष है। इसलिए सबको समान नागरिक संहिता का स्वागत करना चाहिए।
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