शुक्रवार, 30 अक्टूबर 2015

मुस्लिम महिलाओं के साथ भेदभाव क्यों?

 सु प्रीम कोर्ट ने मुस्लिम पर्सनल लॉ की आड़ में मुस्लिम महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव पर चिंता जताई है। मुस्लिम महिलाओं की दशा सुधारने और उन्हें अन्य धर्म की महिलाओं के समान अधिकार दिलाने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने मुस्लिम पर्सनल लॉ की समीक्षा करने का फैसला किया है। महिला सशक्तिकरण, नारी सम्मान और समानता की दिशा में सुप्रीम कोर्ट की इस पहल का स्वागत होना चाहिए। चूंकि मामला कथित अल्पसंख्यक समुदाय से जुड़ा है, इसलिए राजनीति से यह अपेक्षा बेमानी है कि वे मुस्लिम महिलाओं को बराबरी का अधिकार दिलाने के लिए कोई पहल करते। लेकिन, उनसे आग्रह है कि इस मसले पर 'अल्पसंख्यक हितों पर कुठाराघात' का वितंडावाद खड़ा न करें। सुप्रीम कोर्ट का साथ देकर महिलाओं को बराबरी का अधिकार दिलाएं।
       लम्बे समय से मुस्लिम महिलाएं भेदभाव सहने को मजबूर हैं क्योंकि, कथित धर्मनिरपेक्ष ताकतें और प्रगतिशील जमात, कोई भी मुस्लिम महिलाओं की लड़ाई लडऩे को आगे नहीं आए। सब अपने खोल में बैठकर 'दुकानें' चलाते रहे हैं और आज भी वही कर रहे हैं। दुनिया की सभी महिलाओं की समस्याओं और चुनौतियों को एक समान मानने वाला नारीवादी आंदोलन भी यहां कुंद पड़ जाता है। 
       गौरतलब है कि वर्ष 1984 में सुप्रीम कोर्ट ने ही मुस्लिम महिलाओं के हक में फैसला किया था। पांच बच्चों की माँ शाह बानो को 62 साल की उम्र में उसके पति ने तलाक दे दिया था। शाह बानो इस उम्र में कैसे अपने बच्चों के साथ गुजारा करती? वह न्याय की उम्मीद में कोर्ट पहुंची। सुप्रीम कोर्ट ने सीआरपीसी की धारा-125 के अंतर्गत सुनवाई करने के बाद आदेश दिया कि शाह बानो को गुजारा-भत्ता दिया जाए। कट्टरपंथी मुसलमानों ने सरकार को देशभर में भयंकर विरोध का सामना करने की धमकी दी। बहुमत प्राप्त कांग्रेस सरकार कट्टरपंथी मुसलमानों के आगे झुक गई। प्रधानमंत्री राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस संसद में सुप्रीम कोर्ट के धर्म निरपेक्ष और महिला के सम्मान को बचाने वाले निर्णय को पलट दिया। 
       बड़े अरसे बाद मुस्लिम महिलाओं को उम्मीद की किरण नजर आई है। इस बात की भी अच्छी संभावना है कि सुप्रीम कोर्ट की समीक्षा पर वर्तमान सरकार मुस्लिम महिलाओं को अन्य धर्मों की महिलाओं के समान अधिकार दिलाने वाला कानून बना सकती है। इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से भी सुझाव देने को कहा है। न्यायाधीश एआर दवे और एके गोयल ने कहा है- 'मुस्लिम पर्सनल लॉ के कारण महिलाओं को सुरक्षा नहीं मिल पाती है। इस कानून में महिला को मनमाने ढंग से तलाक देने और पुरुष को चार-चार शादियां करने की छूट है।' सुप्रीम कोर्ट की चिंता जायज है। वर्तमान समय में धर्म की आड़ में महिलाओं के साथ इस तरह का बर्ताव अत्याचार से कम नहीं है। दूसरे धर्मों में भी कुरीतियां आई हैं, जिन्हें उन्होंने दूर कर लिया। फिर मुसलमान क्यों नहीं इस दिशा में आगे बढ़ते? वर्ष 2015 में हुए एक अध्ययन के मुताबिक 90 प्रतिशत मुस्लिम महिलाएं तलाक देने की परम्परा और बहुविवाह के खिलाफ हैं। महिलाओं के सम्मान की अनदेखी क्यों? 
       कोर्ट का स्पष्ट कहना है कि शादी और उत्तराधिकार के बारे में फैसला करने वाले कानून धर्म का हिस्सा नहीं हैं। इसी आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने शाह बानो प्रकरण में अपना फैसला दिया था। इस तरह के मामलों में सभी महिलाओं को समान नजरिए से देखने की जरूरत है, धर्म के चश्मे से नहीं। यह सवाल मुस्लिम महिलाओं का ही है कि आखिर कब तक उनके साथ कबिलाई व्यवहार किया जाता रहेगा? सुप्रीम कोर्ट के सराहनीय फैसले पर सबको साथ आना चाहिए। हमें चिंता करनी होगी कि इस दफा इस पर राजनीति न हो। सवाल आधी आबादी के सम्मान का है। 

6 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (31-10-2015) को "चाँद का तिलिस्म" (चर्चा अंक-2146) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    करवा चौथ की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, परमाणु शक्ति राष्ट्र, करवा का व्रत और ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  3. सुन्दर प्रस्तुति , बहुत ही अच्छा लिखा आपने .बहुत बधाई आपको . कभी यहाँ भी पधारें

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