दि ल्ली नगर पालिका परिषद ने पूर्व राष्ट्रपति और वैज्ञानिक एपीजे अब्दुल कलाम के प्रति श्रद्धा सुमन अर्पित करने के लिए औरंगजेब मार्ग का नाम बदलकर 'एपीजे अब्दुल कलाम मार्ग' का निर्णय क्या लिया, हंगामा खड़ा हो गया है। किस बात का हंगामा? किसलिए हंगामा? इन सवालों पर गौर करें तो आश्चर्यजनक पहलू सामने आते हैं। वेलफेयर पार्टी ऑफ इंडिया, ऑल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड, ऑल इंडिया मुस्लिम मजालिस-ए-मुशावरत, शाह वलीउल्ला संस्थान और ऑल इंडिया मजलिसे इत्तेहादुल (आईएमआई) सहित कई मुस्लिम राजनीतिक दलों और इस्लामिक संस्थाओं ने आसमान सिर पर उठा लिया है। ये आरोप लगा रहे हैं- 'केन्द्र सरकार हिन्दू संगठनों के इशारे पर मुसलमानों की पहचान मिटा रही है। सरकार हिन्दू विचारधारा से प्रेरित होकर काम कर रही है।' सांप्रदायिक राजनीति का पोषक चेहरा असदुद्दीन औवेसी और वामपंथी इतिहासकार इरफान हबीब जैसे लोग इस फैसले से बहुत आहत हैं।
बहरहाल, सरकार पर लगाए जा रहे आरोप न केवल बेतुके हैं वरन हास्यास्पद भी हैं। यदि मुस्लिम पहचान मिटाने का सवाल होता तो औरंगजेब रोड का नाम बदलकर हिन्दू महापुरुष के नाम पर रखा जाता। औरंगजेब रोड महाराणा प्रताप रोड हो जाती, शिवाजी रोड हो जाती या फिर छत्रसाल रोड हो जाती। 'एपीजे अब्दुल कलाम' रोड तो कतई नहीं होती। यह विरोध सैद्धांतिक नहीं है बल्कि शुद्ध सियासी हंगामा है। आखिर विरोध करने वाले बताएंगे कि मुस्लिम पहचान एक क्रूर व्यक्ति औरंगजेब से है या फिर नेकदिल इंसान एपीजे अब्दुल कलाम से है। मुस्लिमों का प्रेरक पुरुष किसे होना चाहिए, औरंगजेब को या फिर कलाम को? क्या ये बता सकते हैं कि आखिर भारतीय मुसलमानों को औरंगजेब से प्रेम कैसे हो सकता है? हिन्दू-मुस्लिम एकता के पहले राजदूत दारा शिकोह का हत्यारा मुस्लिम पहचान कैसे बन सकता है? मुस्लिम पहचान तो दारा शिकोह था, एपीजे अब्दुल कलाम थे। औरंगजेब तो कदापि नहीं। यदि मुसलमान बाबर और औरंगजेब सरीखे आतातायियों को अपना प्रतिनिधि और प्रेरणास्रोत मानते हैं तो उनकी विश्वसनीयता पर सवाल उठना लाजमी है।
औरंगजेब के बारे में किसी को बताने की जरूरत नहीं है कि उसने अपने शासनकाल में कैसे-कैसे अत्याचार किए? हिन्दुओं को प्रताडि़त करने के एक से एक तरीके वह खोजा करता था। जजियाकर इसका प्रमाण है। गैर-मुस्लिमों पर शरियत लागू करने वाला वह पहला मुसलमान शासक था। इतिहास को आधार बनाकर कहा जा सकता है कि औरंगजेब विश्व का पहला सांप्रदायिक फासीवादी शासक था। हिन्दू मंदिरों को ध्वस्त करने का कलंक उसके माथे पर है। हिन्दुओं के प्रतिष्ठत मंदिरों को जमींदोज करके उसे अपार सुख मिलता था। हिन्दू आस्था के प्रतीक काशी के विश्वनाथ जी के मंदिर को औरंगजेब ने ध्वस्त कर दिया था। मंदिर की दीवारों और खंभों के ऊपर ही गुंबज लगाकर, मस्जिद का निर्माण करवा दिया। हिन्दुओं के प्रति औरंगजेब के मन में भयंकर विष भरा हुआ था। प्रसिद्ध ऐतिहासिक उपन्यासकार एसएल भैरप्पा ने अपने उपन्यास 'आवरण' में लिखा है, औरंगजेब ने कहा था कि फिलहाल हिन्दुस्तान में मुसलमानों की संख्या इतनी कम है, जैसे खाने की प्लेट में परोसा जाने वाला नमक। कई सालों के बाद, राजधानी के आसपास के प्रदेशों में जब मुसलमान बहुसंख्यक बन जाएंगे और हमारी सेना की ताकत बढ़ जाएगी, तब हम लोग हिन्दुस्तानियों को इस्लाम या मौत, इनमें से किसी एक को चुनने का मौका दे सकते हैं।
औरंगजेब अपने परिवार के प्रति भी बेहद क्रूर था। उसने अपने पिता के खिलाफ बगावत करके उनको उन्हीं की सल्तनत के किले में अंतिम सांस तक कैद करके रखा था। इस दौरान उसने अपने पिता को दो बार जहर देकर मारने का भी प्रयास किया। अपने दो बड़े भाइयों और एक छोटे भाई को भी कैदी बनाकर मार डाला था। एक को अफीम खिलाकर बंदी बना लिया, बाद में उसे देर से असर करने वाला जहर खिलाकर मार डाला। दूसरे को लड़ाई में हराकर, मुल्क से दूर भागने पर मजबूर करके, थके-माँदे होकर कैद में आ जाने पर विवश करके मार डाला। भारतीय संस्कृति से प्रेम करने वाले भाई दारा शिकोह के साथ अमानुष व्यवहार किया। दारा के बदन के टुकड़े-टुकड़े करके, हाथी के ऊपर रखकर, दिल्ली की गलियों में जुलूस में ले जाकर, लोगों को यह चेतावनी दी गई कि मजहब के खिलाफ काम करने वालों की यही हालत होगी। सोचिए, ऐसे व्यक्ति के लिए हमारे देश के राजनीतिक दल, मुस्लिम संगठन, बुद्धिजीवी हाय-तौबा मचा रहे हैं। घोर सांप्रदायिक शासक के लिए देश में वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने वाले कलाम साहब को नकारा जा रहा है।
सिख गुरु तेग बहादुर का सिर कलम करने वाले के नाम पर आजादी के 68 वर्ष बाद भी इस देश में सड़क-शहर का नाम है, यह आश्चर्यजनक है। यह समस्त भारतीय समाज के लिए अपमानजनक भी होना चाहिए। दुष्ट मानसिकता का व्यक्ति मुसलमान क्या किसी भी कौम की पहचान नहीं हो सकता। औरंगजेब को मुसलमानों की पहचान से जोडऩे वाले षड्यंत्रकारी नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं? कलाम की कीमत पर औरंगजेब का समर्थन करना पूरे मुस्लिम समाज के लिए कितना घातक है? औरंगजेब जैसे क्रूर व्यक्ति का महिमामंडन करना घोर आपत्तिजनक है। सड़क-शहर या अन्य किसी उपक्रम का नामकरण ऐसे व्यक्ति के नाम पर किया जाता है, जिसकी सामाजिक स्वीकार्यता हो। औरंगजेब किसी भी कीमत पर हिन्दुओं को स्वीकार नहीं है। मुसलमानों को भी नहीं होना चाहिए। नामकरण के पीछे का मनोविज्ञान कहता है कि श्रेष्ठ मूल्यों की स्थापना करने वाले व्यक्ति को बार-बार याद करने और उसके जीवन से सीखने के लिए यह परंपरा है। एक सवाल यह भी उठता है कि औरंगजेब से हम कौन से व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक मूल्यों की सीख लें? सही मायने में तो ऐसे व्यक्ति को भूल जाना ही उचित है। औरंगजेब उस कांटे की तरह है जो अपनी चुभन से बार-बार हिन्दुओं को घृणित अत्याचारों की याद दिलाता है और इस्लाम को लज्जित करता है। औरंगजेब हिन्दू-मुस्लिम एकता की राह में पड़ा बहुत बड़ा पत्थर है, जिसे बहुत पहले ही उठाकर फेंक देना चाहिए था।
ग्वालियर से प्रकाशित स्वदेश में प्रकाशित आलेख. |
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