बि हार विधानसभा चुनाव जितना नजदीक आता जा रहा
है, उतना ही दिलचस्प होता जा रहा है।
मजेदार बात है कि भारतीय जनता पार्टी से मुकाबला करने और अपनी-अपनी राजनीतिक जमीन
बचाने की खातिर आरजेडी, जेडीयू, कांग्रेस, सपा और एनसीपी ने एक-दूसरे से
कसमें-वादे लेकर 'महागठबंधन' बनाया था। एक-दूसरे के धुर विरोधी जब
एक साथ आए तो किसी ने इसे भानुमति का कुनबा बताया, किसी ने महाठगबंधन और किसी ने मजबूरी का गठबंधन। महागठबंधन के जन्म
के साथ ही राजनीतिक पंडितों ने इसकी अकाल मृत्यु के बारे में अंदेशा जताया था।
स्वार्थ के लिए जुटे लोग,
स्वार्थ पूरे नहीं होने पर जुदा होने
लगते हैं। सबसे पहले एनसीपी ने खुद को महागठबंधन से अलग किया। अब जेडीयू, आरजेडी और कांग्रेसी की तिकड़ी के बीच
असहज और अपमान वातावरण का अनुभव कर रही समाजवादी पार्टी ने भी महागठबंधन से अलग
होकर अपनी दम पर चुनाव लडऩे का फैसला लिया है। सपा महासचिव रामगोपाल यादव ने
गुरुवार को कहा कि जनता परिवार ने बिहार में सपा को पांच सीटें दी थी। पार्टी के
कार्यकर्ता और नेता इससे खुद को अपमानित महसूस कर रहे थे। सीटों का फैसला करते
वक्त उन्हें पूछा तक नहीं गया। यह गठबंधन का धर्म नहीं है। ठीक ऐसी ही परिस्थिति
का सामना एनसीपी ने किया था।
बिहार
में 243
सीटों के लिए चुनाव होना है। नीतीश कुमार ने 100 सीट ले लीं, 100 लालू प्रसाद यादव ने रख लीं और 40 कांग्रेस को थमा दीं। शेष तीन सीट
पहले एनसीपी को ऑफर की गईं,
जिसे ठुकराकर एनसीपी गठबंधन से बाहर हो
गई। इन तीन सीट में दो सीट लालू प्रसाद यादव ने अपनी सीटों में से मिला दीं यानी
कुल जमा पांच सीट समाजवादी पार्टी को देना तय हुआ। सपा ने सीधेतौर पर इसे अपने
स्वाभिमान से जोड़ लिया। पटना के गांधी मैदान में हुई महागठबंधन की 'स्वाभिमान रैली' में सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने
शामिल न होकर अपनी नाराजगी का संकेत भी दिया था। तभी से कयास लगाए जा रहे थे कि
महागठबंधन बिखरने की कगार पर खड़ा है। सपा और एनसीपी की अनदेखी महागठबंधन को भारी
पड़ सकती है। भले ही अभी बिहार विधानसभा में सपा का प्रतिनिधित्व नहीं है। लेकिन, सपा महागठबंधन के वोटबैंक को बहुत हद
तक प्रभावित करेगी, यह तय बात है। सपा का वोटर यादव और
मुसलमान है। पिछले विधानसभा चुनाव में सपा 146 सीटों पर चुनाव लड़ी थी। इस बार वह
इतनी ही या इससे अधिक सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारती है तो महागठबंधन के प्रमुख
घटक आरजेडी को सबसे अधिक नुकसान पहुंच सकता है। दरअसल, आरजेडी की पूरी राजनीति यादव और
मुस्लिम वोटबैंक पर टिकी है। लालू की लालटेन का तेल पीने के लिए रामकृपाल यादव और
पप्पू यादव पहले से ही तैयार खड़े हैं। लगता है कि आरजेडी के बुरे दिन आ गए हैं, साथ में महागठबंधन के भी। गठबंधन के
मुस्लिम वोटबैंक में सेंधमारी के लिए ओवैसी की पार्टी आईएमआई भी बिहार में सक्रिय
हो गई है।
नीतीश-लालू चाहते तो गठबंधन को टूटने
से बचा सकते थे। लेकिन, अहंकार हावी है। कांग्रेस को उसकी
हैसियत से अधिक सीट देने के कारण सारा खेल गड़बड़ाया है। जनता परिवार चाहता तो
कांग्रेस की सीट कम करके सपा और एनसीपी को संतुष्ट कर सकता था। बहरहाल, बिहार की राजनीति है, और भी रंग देखने को मिलेंगे। फिलहाल तो
महागठबंधन खण्ड-खण्ड होता जा रहा है। देखना होगा कि महागठबंधन सपा को मनाने का
प्रयास करता है या अपनी ऐंठ में बना रहेगा।
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