अ मूमन देखने में आता है कि हमारे सिने सितारों की दुनिया अलग ही होती है। आम आदमी के जीवन से उनका सीधा संबंध नहीं होता है। आम आदमी के जीवन के यथार्थ को कलाकार केवल पर्दे पर जीते हुए दिखते हैं। वास्तविक जीवन में बहुत कम कलाकार होते हैं, जो आम आदमी के साथ खड़े दिखते हैं, उनकी मुश्किलों को दूर करने के लिए चमकदार दुनिया से बाहर निकलकर आते हैं। बॉलीवुड के दूसरे महत्वपूर्ण कलाकारों को नाना पाटेकर से सीख लेनी चाहिए। नाना बेहद संवेदनशील व्यक्ति हैं। बिना किसी 'शो-बाजी' के किसानों का दु:ख बांटने के लिए महाराष्ट्र के मराठवाड़ा में काम कर रहे हैं। नाना गाँव-गाँव जाकर आत्महत्या कर चुके किसानों के परिवारों की आर्थिक मदद कर रहे हैं। किसानों को मुश्किल घड़ी से लडऩे का हौसला दे रहे हैं। यह होती है वास्तविक 'हीरो' की पहचान। किसानों का संघर्ष, उनकी समस्याएं और दिन-रात की तकलीफें नाना पाटेकर को सोने नहीं दे रहीं। नाना ने उम्रभर किसानों के लिए काम करने का संकल्प लिया है। उनके एक कथन में समूचे बॉलीवुड और देश की महत्वपूर्ण हस्तियों के लिए गहरा संदेश छिपा है। नाना कहते हैं- 'हम शहर में रहते हैं। हमने खुद को चारदीवारी में बांध लिया है। हम स्क्वेयर फीट में सोचने लगे हैं। सबसे पहले हमें ये दीवार गिरानी होंगी। फिर दीवार के उस पार के पहाड़ भी अपने होंगे, नदी, पक्षी और लोग भी अपने होंगे।'
सच है, जब 'अपनेपन' का अहसास जुड़ जाता है तो हम उस 'अपने' की फिक्र करने लगते हैं। अभी अभिजात्य वर्ग में इसी अपनेपन का अहसास नहीं है। उसने अपनी चमकती दुनिया के चारों ओर दीवारें उठा रखी हैं। नाना पाटेकर की तरह यदि सब अभिनेता दीवारें तोड़ दें तो संघर्षरत समाज को बड़ा हौसला मिलेगा। सिने सितारों को बार-बार याद करना चाहिए कि इसी समाज के कारण आज वे 'हीरो' हैं। इसलिए 'हीरो' की तरह समाज के लिए लडऩे आगे आएं।
माता-पिता बड़े लाड़-प्यार से अपने बच्चे को पाल-पोस कर बड़ा करते हैं। यदि बच्चा कामयाब होकर माता-पिता की सेवा से मुकर जाता है, तब हमारा समाज उसे हिकारत की नजरों से देखता है। क्योंकि वह अपना दायित्व पूरा नहीं करता है। क्या हमारे अभिनेता उस बच्चे की तरह अपने दायित्व से मुंह नहीं मोड़ रहे हैं? वे क्यों भूल जाते हैं कि समाज के कारण ही आज उनकी प्रतिष्ठा है, उनके पास धन-दौलत है। हमारे अभिनेता समाज के प्रति अपने दायित्व को कब समझेंगे? कब रील लाइफ की तरह रीयल लाइफ भी जीने की कोशिश करेंगे? हम जानते हैं कि फिल्म इंडस्ट्री में कई कलाकार समाजसेवा के काम में जुटे हैं। लेकिन, उनकी संख्या कम है। किसानों के दर्द में साथ खड़े होने वाले 'नानाओं' की संख्या बढऩी चाहिए। निश्चित ही कलाकार संवेदनशील होंगे, तभी तो किसी भी किरदार को इतनी गहराई से पर्दे पर उतार पाते हैं। लेकिन, संवेदना पर्दे के साथ-साथ यथार्थ में भी उतरनी चाहिए। आज यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि नाना पाटेकर यानी एक अभिनेता का संवेदनशील हो जाना है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
पसंद करें, टिप्पणी करें और अपने मित्रों से साझा करें...
Plz Like, Comment and Share