ग रीबी के संदर्भ में सुनियोजित तरीके से एक धारणा प्रचलित कर दी गई थी कि भारत में सबसे अधिक गरीब मुसलमान हैं। मुस्लिम इलाके सबसे अधिक पिछड़े और गरीब हैं। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के बाद तो इस धारणा को बहुत बल दिया गया। कांग्रेस और तुष्टीकरण की राजनीति करने वाले दल गाहे-बगाहे मुसलमानों की स्थिति को लेकर सच्चर कमेटी का हवाला देते रहते हैं। यह धारणा पहले से सवालों के घेरे में थी। सवाल यह भी थे कि मुसलमान किन कारणों से गरीबी भोग रहे हैं? सच्चर कमेटी की आँच पर तुष्टीकरण की रोटियाँ सेंकने वाले दलों के दिल जल उठेंगे यह जानकर कि देश के सबसे गरीब २० जिले हिन्दू बाहुल्य हैं। यानी हिन्दू गरीब ही नहीं हैं बल्कि सबसे अधिक गरीब हैं। देश में सिर्फ मुसलमान ही गरीब नहीं है, उनसे भी अधिक गरीब हिन्दू हैं। यानी सच्चर कमेटी के चश्मे से गरीबी को देखने वालों को समझना होगा कि वे जो देख रहे थे वह सब हरा-हरा था। उनके चश्में पर जानबूझकर हरा पेंट कर दिया गया था। चश्मा पारदर्शी नहीं था। वे बनावटी झूठ देख रहे थे, सच नहीं। जनगणना-२०११ के धार्मिक विश्लेषण के आधार पर यह सच सामने आया है।
सच्चर कमेटी की सिफारिसों पर अंगुलियाँ उठ सकती हैं, उठती रही हैं लेकिन जनगणना के आंकड़ों पर सवाल खड़े करना कठिन होगा। आंकड़े एकत्र करते समय सच्चर कमेटी पर पूर्वाग्रह हावी थे। उसे यह तय करना था कि मुसलमान गरीब है, इसलिए उन्हें अधिक सुविधाएं दी जानी चाहिए। सरकार को मुसलमानों के लिए विशेष आर्थिक योजनाएं लेकर आनी चाहिए। सरकारी नौकरियों में मुसलमानों की भागीदारी बढ़ाने के उपाय करने चाहिए। कांग्रेस की तुष्टीकरण की राजनीति को मदद पहुंचाने के लिए २००५ में तत्कालीन कांग्रेसनीत यूपीए सरकार ने सच्चर कमेटी का गठन किया था। इसलिए सच्चर कमेटी की रिपोर्ट संदिग्ध है। जबकि जनगणना-२०११ में जुटाए गए आंकडे किसी पूर्वाग्रह से प्रेरित नहीं हैं। ये आंकडे किसी राजनीति के हिस्से भी नहीं हैं। इसलिए कह सकते हैं कि गरीबी के संबंध में जनगणना-२०११ से प्राप्त आंकड़े अधिक प्रामाणिक हैं। जनगणना-२०११ के धार्मिक विश्लेषण के मुताबिक, मध्यप्रदेश का डिंडोरी देश में सबसे गरीब जिला है। दूसरा निर्धन जिला राजस्थान का बांसवाड़ा है। इस सूची में मध्यप्रदेश के सबसे अधिक पांच जिले शामिल हैं। इनमें डिंडोरी के अलावा मंडला, अलीराजपुर, झाबुआ और बड़वानी शामिल हैं। रेडियो या ट्रांजिस्टर, टेलीविजन, कम्प्यूटर या लैपटॉप, साइकिल, स्कूटर, मोटरसाइकिल, मोपेड, कार, जीप, वैन, मोबाइल और टेलीफोन जैसी किसी भी चीज के होने और न होने को आधार बनाकर गणना की गई थी, तब जाकर पता चला कि देश के ६४० में से २० जिलों में ५० फीसद से अधिक परिवारों के पास कुछ भी संपत्ति नहीं है।
इस सच के उजागर होने से कुछ सवाल उपजे हैं। इन आंकड़ों की अधिक चर्चा क्यों नहीं हुई? अखबारों और पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित नहीं हुए, क्यों? खबरें भी अधिक नहीं आईं? न्यूज चैनल्स पर 'देश में सबसे अधिक गरीब है हिन्दू' विषय पर बहसें भी आयोजित नहीं की गईं? अगर आंकड़े इसके उलट होते यानी देश के सबसे गरीब २० जिले मुसलमान बाहुल्य होते, तब भी मीडिया आंकड़ों की इस तरह अनदेखी करता क्या? इन सवालों का आशय यह कतई नहीं है कि हिन्दू और मुसलमानों को अलग करके देखा जाए। हां, इतना तो अवश्य है कि ये सवाल भारत में बहुसंख्यकों के साथ होने वाले भेदभाव की ओर इशारा करते हैं। ये सवाल अपेक्षा करते हैं कि तुष्टीकरण की राजनीति करने वाले मुसलमानों की गरीबी पर राजनीतिक रोटियां न सेंके, क्योंकि गरीब तो हिन्दू भी है। मीडिया भी समान रूप से सबकी आवाज को बुलंद करे या फिर धार्मिक आधार पर बेकार की बहसों का आयोजन न करे।
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