शनिवार, 28 जून 2025

किसने बदली संविधान की मूल प्रस्तावना? इस पर चर्चा होनी चाहिए

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने संविधान की प्रस्तावना में जबरन जोड़े गए ‘समाजवादी’ और ‘सेकुलर’ शब्दों के औचित्य को प्रश्नांकित करके महत्वपूर्ण बहस छेड़ दी है। उन्होंने कहा कि "आपातकाल के दौरान संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए Secularism और Socialism शब्दों की समीक्षा होनी चाहिए। ये मूल प्रस्तावना में नहीं थे। अब इस पर विचार होना चाहिए कि इन्हें प्रस्तावना में रहना चाहिए या नहीं?" ध्यान दें कि सरकार्यवाह श्री दत्ताजी ने दोनों शब्दों को सीधे हटाने की बात नहीं की है अपितु उन्होंने इस संदर्भ में विचार करने का आग्रह किया है। लेकिन उनके विचार को गलत ढंग से कौन प्रस्तुत कर रहा है, वे लोग जिन्होंने लोकतंत्र का गला घोंटकर, अलोकतांत्रिक ढंग से, बिना किसी चर्चा के, चोरी से संविधान की प्रस्तावना में सेकुलर और समाजवाद शब्द घुसेड़ दिए। बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर और संविधान सभा द्वारा देश को सौंपी गई संविधान की प्रस्तावना को बदलने वाली ताकतों को वितंडावाद खड़ा करने से पहले अपने गिरेबां में झांककर देखना चाहिए। और, स्वयं से प्रश्न पूछना चाहिए कि "इस विषय में कुछ कहने का उन्हें नैतिक अधिकार भी है?" सत्य तो यह है कि संविधान की मूल प्रस्तावना को बदलने का अपराध करने के लिए उन्हें देश की जनता से क्षमा मांगनी चाहिए। बहरहाल, इस बहस के बहाने कम से कम देश की जनता को पुन: याद आएगा कि सही अर्थों में संविधान की हत्या किसने की है? किसने बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर और संविधान सभा द्वारा निर्मित संविधान को बदलने का काम किया है। वास्तव में यह महत्वपूर्ण प्रश्न है कि जब देश में आपातकाल लगा था तब संसद में बिना किसी चर्चा के संविधान की प्रस्तावना में जबरन परिवर्तन करते हुए ‘समाजवाद’ और ‘सेकुलर’ शब्द क्यों जोड़े गए? क्या इस पर विचार नहीं किया जाना चाहिए कि संविधान की मूल प्रस्तावना से की गई छेड़छाड़ को ठीक किया जाए? संविधान को वापस वही प्रस्तावना मिले, जिसे बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर, संविधान सभा और देश की जनता ने आत्मार्पित किया था। को संविधान की आत्मा कहा जाता है।

आपातकाल के दौरान संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए secularism, Socialism शब्दों की समीक्षा होनी चाहिए- श्री दत्तात्रेय होसबाले, सरकार्यवाह, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ pic.twitter.com/GjMsJUDhqK

— लोकेन्द्र सिंह (Lokendra Singh) (@lokendra_777) June 27, 2025

बिना किसी संसदीय प्रक्रिया के प्रस्तावना को बदलना, एक प्रकार से संविधान की ही नहीं अपितु उसकी आत्मा की हत्या करना है। याद रहे कि प्रस्तावना को संविधान की आत्मा कहा जाता है। वर्ष 1976 में 42वें संविधान संशोधन के अंतर्गत यह बदलाव किया गया। उल्लेखनीय है कि 42वां संविधान संशोधन सबसे अधिक विवादित है। जब उसके कई बदलावों को वापस ले लिया गया है, तब प्रस्तावना को उसके मूल स्वरूप में लौटाने में क्यों देर होनी चाहिए? सड़क से संसद तक यह चर्चा होनी ही चाहिए कि प्रस्तावना में चोरी से जोड़े गए इन दो शब्दों बनाए रखें या हटा दें? एक बार फिर स्मरण करा दें कि बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर और संविधान सभा ने जिस संविधान एवं प्रस्तावना को देश की जनता को सौंपा था, उसमें ये दोनों विवादित शब्द नहीं थे। 

ऐसा भी नहीं है कि बाबा साहब और संविधान सभा के समक्ष इन दोनों शब्दों को संविधान में शामिल करने का प्रश्न नहीं आया था। प्रो. केटी शाह ने 15 नवंबर 1948 को भारतीय संविधान के मसौदे में एक संशोधन का एक प्रस्ताव रखा, जिसमें भारत को ‘सेकुलर, संघीय, समाजवादी राज्यों का संघ’ के रूप में पहचान करने की माँग की गई। हालाँकि, मसौदा समिति के अध्यक्ष डॉ. भीमराव अंबेडकर ने इस प्रस्ताव को दृढ़ता से खारिज कर दिया। केटी शाह के इस प्रस्ताव पर बाबा साहब ने दो आपत्तियां दर्ज करायीं थी, जिनको जानना और समझना इस बहस में बहुत महत्वपूर्ण है। उनकी पहली आपत्ति थी कि संविधान को कोई विचारधारा नहीं थोपनी चाहिए। डॉ. अंबेडकर के अनुसार, भारत के संविधान में समाजवाद जैसी विचारधारा को संहिताबद्ध करने में एक बुनियादी विरोधाभास था। उन्होंने तर्क दिया कि अगर समाजवाद को प्रस्तावना में जोड़ दिया गया तो यह भविष्य की पीढ़ियों को अपना रास्ता चुनने की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करेगा। इसे संविधान में नहीं रखा जा सकता, क्योंकि यह लोकतंत्र को पूरी तरह से नष्ट कर देगा।” यानी बाबा साहब समाजवाद को संविधान में जोड़े जाने के विचार को लोकतंत्र के लिए खतरा मानते थे। अगर हम 1975 के बाद की राजनीति देखें तो पाएंगे की समाजवाद और सेकुलर शब्दावली ने भारतीय लोकतंत्र का सर्वाधिक नुकसान किया है। डॉ. अंबेडकर ने दूसरा तर्क दिया कि संविधान के मसौदे में पहले से ही ऐसे प्रावधान हैं, जिन्हें राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के माध्यम से समाजवादी सिद्धांतों के रूप में देखा जा सकता है। इसलिए अलग से संविधान पर समाजवाद का ठप्पा लगाना बाबा साहब को उचित नहीं लगा। जब चोरी-चुपके से संविधान की प्रस्तावना में यह शब्द जोड़ा गया तब एक तरह से सरकार ने बाबा साहब और संविधान सभा के विचारों के विरोध का रास्ता चुना। सेकुलर शब्द के संबंध में भी बाबा साहब और संविधान सभा एक मत थी कि भारत का स्वभाव ही सेकुलर है इसलिए संविधान में जबरन सेकुलर शब्द की घुसपैठ करना उचित नहीं होगा।

कुल मिलाकर कहना यह है कि संविधान सभा में इन दोनों ही शब्दों को लेकर बहुत व्यापक चर्चा हुई थी लेकिन उस समय संविधान सभा ने दोनों ही शब्दों को खारिज कर दिया था। यानी संविधान सभा ने सेकुलर और समाजवादी शब्दों को संविधान में शामिल करने योग्य नहीं समझा था। संविधान सभा ने बहुत सोच-विचारकर प्रस्तावना लिखी थी। भारत के चरित्र में ही सभी पंथों के प्रति सम्मान का भाव है, इसलिए डॉ. अंबेडकर एवं उस समय के अन्य राजनेताओं ने सेक्युलर शब्द को संविधान ने शामिल करने की आवश्यकता नहीं समझी। ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिर ऐसी क्या बात आन पड़ी थी कि आपातकाल के दौरान ही संविधान की प्रस्तावना में यह शब्द जोड़ दिए गए? क्या इसके पीछे कोई राजनीतिक मंशा या साजिश थी? 

संघ के सरकार्यवाह श्री दत्ताजी ने उचित ही कहा कि जिन लोगों ने आपातकाल थोपकर संविधान और लोकतंत्र का दमन किया, उन्होंने आज तक माफी नहीं मांगी। यदि उन्होंने स्वयं नहीं किया तो उन्हें पूर्वजों के नाम पर माफी मांगनी चाहिए। आज जो संविधान की रक्षा का नारा लगाते और संविधान की प्रति लहराते घूम रहे हैं, उन्हें बताना चाहिए कि संविधान की हत्या अगर किसी ने की है तो उनकी अपनी सरकार और पुरखों ने की है। आज भी कांग्रेसी नेता और उनके समर्थक बुद्धिजीवी ऐन-केन-प्रकारेण आपातकाल का बचाव करते नजर आते हैं। यही लोग भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर संविधान विरोधी होने का आरोप लगा रहे हैं लेकिन सच क्या है, यह स्वयं बाबा साहब डॉ. अंबेडकर ने भी बताया। “संविधान सभा में अपने आखिरी भाषण में डॉ. अंबेडकर ने कम्युनिस्टों और समाजवादियों को संविधान की निंदा करने वाला बताया था। उन्होंने कहा था कि कम्युनिस्ट पार्टी सर्वहारा वर्ग की तानाशाही के अपने सिद्धांत पर आधारित संविधान चाहती है और वे संविधान की निंदा करते हैं क्योंकि यह संसदीय लोकतंत्र पर आधारित है।

बहरहाल, सरकार्यवाह श्री दत्ताजी के विचार पर ईमानदारी से चर्चा होनी चाहिए। संसद में 42वें संविधान संशोधन के विवादित कृत्य पर चर्चा होनी चाहिए और ‘सेकुलर’ तथा ‘समाजवाद’ शब्दों के औचित्य पर बहस होनी चाहिए। उसके उपरांत बाबा साहब डॉ. अंबेडकर और संविधान सभा की भावनाओं का सम्मान करते हुए संविधान को उसकी मूल प्रस्तावना वापस लौटनी चाहिए। यह भी याद रखें कि श्री दत्ताजी ने सेकुलर और समाजवाद का विरोध नहीं किया है, उन्होंने केवल प्रस्तावना में तानाशाही ढंग से दोनों शब्दों को जोड़ने पर सवाल उठाया है।

देखिए : संविधान पर RSS के विचार | आरएसएस और संविधान | संविधान पर सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत के विचार

 

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