सो शल मीडिया की ताकत और उसके सदुपयोग को समझने के लिए उत्तरप्रदेश की राजधानी लखनऊ का उदाहरण महत्वपूर्ण है। एक बुजुर्ग टाइपिस्ट 'किशनजी' फुटपाथ पर बैठकर टाइपिंग का छोटा-मोटा काम करके अपनी आजीविका चला रहा थे। एक टाइपराइटर से किशनजी के परिवार के छह सदस्यों का पेट बंधा था। अचानक एक दिन, दरोगा आता है और उनकी रोजी-रोटी पर ठोकर मार देता है। 'दबंग' दरोगा की ठोकर से कमजोर टाइपराइटर बिखर जाता है। सोशल मीडिया का सिपाही यह सब अपने मोबाइल में रिकॉर्ड कर लेता है और उसे सोशल मीडिया पर प्रसारित कर देता है। सोशल मीडिया पर अनेक आम नागरिकों की संवेदनाओं का साथ पाकर वीडियो वायरल हो जाता है। एक आम आदमी 'किशनजी' को दम मिलती है। सोशल मीडिया की ताकत देखिए कि उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को अपने जाहिल दरोगा के कुकृत्य के लिए बुजुर्ग से माफी भी मांगनी पड़ी बल्कि उन्होंने किशनजी के लिए नया टाइपराइटर और आर्थिक मदद भी भेजी। धमकी मिली तो सुरक्षा भी देनी पड़ी। मामला सोशल मीडिया पर वायरल नहीं हुआ होता तो क्या होता? जवाब आप सब जानते हैं?
उत्तरप्रदेश ही क्यों, देशभर में फुटपाथ पर खोमचे लगाकर अपना गुजारा करने वाले कई 'किशनजी' अनेक 'दरोगाओं' की ठोकर का शिकार होते रहते हैं। कभी वीआईपी मूवमेंट के नाम पर उनके टीन-टप्पर उखाड़कर फेंक दिए जाते हैं। कभी 'दरोगाओं' का हफ्ता नहीं देने पर ठोकर झेलनी पड़ती है। दरोगा अवैध वसूली भी बड़ी ठसक से करते हैं। पैसा जेब में रखते-रखते भद्दी गालियां और अनेक शर्तें 'किशनजी' के माथे पर चिपका जाते हैं। बहरहाल, उत्तरप्रदेश के किशनजी को सोशल मीडिया का सहारा मिल गया। हालांकि यह अलग बात है कि उनकी मुश्किलें अभी कम नहीं हुई हैं। यह घटनाक्रम इसलिए महत्वपूर्ण है ताकि सोशल मीडिया के सिपाही अपने मंच की ताकत और जिम्मेदारी का अहसास फिर से कर सकें। सरकार सोशल माध्यमों पर नियंत्रण के प्रयास करती है तो हम पुरजोर उसका विरोध करते हैं। सरकार के ऐसे किसी भी फैसले का विरोध जरूरी भी है। सोशल मीडिया की ताकत के कारण ही कांग्रेस के कार्यकाल में थोपी गई धारा-66ए को हटाया जा सका और अब वर्तमान सरकार को नेशनल एनक्रिप्शन पॉलिसी को वापस लेना पड़ा है।
लेकिन, हमें यह भी चिंतन करना होगा कि सरकारें सोशल माध्यमों पर लगाम लगाने की कोशिश क्यों करना चाहती हैं? सरकारों को सोशल मीडिया से क्या खतरा है? खासकर जिस केन्द्र सरकार का मुखिया सोशल मीडिया की ताकत का प्रत्यक्ष प्रमाण है। जिस पार्टी के सिपहसलार मजबूती के साथ सोशल मीडिया में मोर्चाबंदी किए हुए हों, उस पार्टी की सरकार क्यों सोशल मीडिया पर निगरानी करना चाहेगी? सोशल मीडिया का उपयोग करने वाले हम सब लोग आत्मचिंतन करें, अपने भीतर झांके तो यह सवाल भी तो उठता है कि कहीं हम सोशल मीडिया की ताकत का दुरुपयोग तो नहीं कर रहे? हमें नियंत्रित होने की जरूरत नहीं है क्या? हम धार्मिक सद्भाव बिगाडऩे का प्रयास नहीं करते क्या? अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर हम राष्ट्रविरोधियों के हाथों की कठपुतली तो नहीं बन जाते? अपनी तू-तू, मैं-मैं के अलावा हमने कब-कब 'किशनजियों' की आवाजों को उठाया है? कितने मौकों पर हम सामाजिक एकता और समरूपता के लिए आगे आए हैं? सोशल मीडिया पर सरकार प्रतिबंध लगाएं उससे पहले ही हमें अपनी लक्ष्मणरेखा खींचनी होगी। अलबत्ता, सोशल मीडिया को नियंत्रित करें, या नहीं करें? सरकारों को इस दुविधा से हम ही बाहर निकाल सकते हैं, सोशल मीडिया का अधिक से अधिक सामाजिक हित में उपयोग करके।
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