उ पराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने ऑल इंडिया मजलिस-ए-मुशावरत के स्वर्ण जयंती समारोह से मुसलमानों को लेकर केन्द्र सरकार को नसीहत दी है। उन्होंने कहा है कि सबका साथ-सबका विकास अच्छा, लेकिन सरकार को मुसलमानों के साथ हो रहे भेदभाव को दूर करना चाहिए। मुसलमानों का भरोसा जीतने के लिए सरकार उन गलतियों को जल्द सुधारे, जो सरकार या उसके एजेंटों ने की हैं। किसी सांप्रदायिक राजनेता की तरह उप राष्ट्रपति ने सरकार को मुस्लिम आबादी की भी धौंस देने की कोशिश की है। उन्होंने कहा है कि देश की आबादी में 14 फीसदी से अधिक मुसलमान हैं, सरकार उनकी अनदेखी न करे। भारत के उप राष्ट्रपति जैसे संवैधानिक पद पर बैठे हामिद अंसारी के बयान को लेकर सियासी और सामाजिक विरोध शुरू हो गया है। भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रवादी सामाजिक संगठन उप राष्ट्रपति के बयान को असंवैधानिक तथा सांप्रदायिक बताया है। मुस्लिम राजनीति करने वाले दल, कांग्रेस और वामपंथी सहित अन्य पार्टियां उनका समर्थन भी कर रही हैं।
बहरहाल, हिन्दू और मुस्लिम, दोनों की भावनाओं को उकसाने वाला बयान देकर उपराष्ट्रपति आगे नहीं बढ़ सकते। उनकी खामोशी सामाजिक समरसता-एकता के लिए खतरनाक हो सकती है। उन्हें कुछ सवालों के जवाब देने चाहिए, जो उनके ही बयान से उपजे हैं। यथा- संवैधानिक पद पर बैठकर क्या उन्हें इस तरह का बयान देना चाहिए था? क्या इस बयान ने समाज में गलत संदेश नहीं जाएगा? सबसे महत्वपूर्ण, क्या अंसारी साहब बताएंगे कि सरकार ने कब-कब मुसलमानों के साथ भेदभाव किया है? किस तरह का भेदभाव किया गया है? उप राष्ट्रपति मुसलमानों के साथ 'भेदभाव' की बात कह रहे हैं तो मामला गंभीर हो जाता है। इसलिए हामिद अंसारी जी को बताना होगा कि भारत सरकार ने मुसलमानों के साथ समानता का व्यवहार कब और कहां नहीं किया? भाजपा के सवाल का भी जवाब उन्हें देना चाहिए कि वे भारत के उप राष्ट्रपति हैं या किसी वर्ग विशेष के? वरना उनके बयान को तुष्टीकरण की राजनीति से प्रेरित मान लिया जाएगा। अपने अब तक के कार्यकाल में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में केन्द्र सरकार ने ऐसा एक भी कार्य या फैसला नहीं किया है, जिससे यह संदेश गया हो कि भारत में अब मुसलमानों की खैर नहीं। या फिर उनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जा रहा हो। बल्कि उन्होंने तो सबके साथ की बात की है। एक साल में ऐसा क्या घट गया कि हामिद अंसारी को सांप्रदायिक बयान देना पड़ा है?
अगर हम एक साल का सिंहावलोकन करें तो ऐसा कुछ भी नजर नहीं आता है। मुसलमान पूरे हक के साथ अपनी बात कह रहा है। यहां तक कि आतंकवादी याकूब मेमन का भी समर्थन कर पा रहा है। उप राष्ट्रपति यह भली-भांति जानते ही होंगे कि मुसलमानों को इतनी आजादी भारत में ही संभव है। दुनिया के मुसलमान भी भारत के मुसलमान से जलते हैं। ईर्ष्या करते हैं। किसी भी इस्लामिक देश से ज्यादा आजादी और समानता मुसलमानों को भारत में हासिल है। भारत सरकार ही नहीं वरन राज्य सरकारें भी उनका उचित ख्याल रखती हैं। भारत का प्रगतिशील मुसलमान खुशहाल है। उप राष्ट्रपति को चाहिए कि पहले वे स्वयं आत्मावलोकन करें। क्या उनका व्यवहार भारतीय नागरिक की तरह है? राष्ट्रीय ध्वज को सलामी नहीं देकर किसने 'भेदभाव' की रेखा खींची थी? कौन लोग हैं जो देश में समान नागरिक संहिता की बात नहीं करते हैं? समान नागरिक संहिता के जिक्र पर ही बिदकने लगते हैं? देश की आबादी में 14 फीसदी से भी अधिक की हिस्सेदारी रखने के बाद भी विशेषाधिकारों की मांग करने वाले लोग कौन हैं? विशेषाधिकार भेदभाव को बढ़ाता है या घटाता है? भारत में मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति ने भेदभाव को बढ़ावा दिया है।
उप राष्ट्रपति को चाहिए कि वे सबसे पहले सभी राजनीतिक दलों को वोट बैंक की राजनीति से बाज आने की नसीहत दें। मुसलमानों से आग्रह करें कि राष्ट्र से ऊपर धर्म को न माने। समान नागरिक संहिता का स्वागत करें। देश में समान नागरिक संहिता होगी तो भेदभाव बहुत हद तक खत्म हो जाएगा। सबके लिए समान कानून। देश की नजर में हिन्दू-मुस्लिम-ईसाई सब के सब एक समान भारतीय नागरिक। आखिर में एक और वाजिब सवाल, भेदभाव खत्म करने के लिए उप राष्ट्रपति समान नागरिक संहिता का समर्थन करेंगे क्या? क्या वे सरकार को नसीहत देंगे कि सरकार एक देश-एक कानून जल्द लेकर आए?
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