सोमवार, 11 मार्च 2024

मूल्यानुगत मीडिया के आग्रही थे प्रो. कमल दीक्षित

प्रो. कमल दीक्षित की पुस्तक- मूल्यानुगत मीडिया : संभावना एवं चुनौतियां


बाल सुलभ मुस्कान उनके चेहरे पर सदैव खेलती रहती थी। मानो उनका ‘कमल मुख’ निश्छल हँसी का स्थायी घर हो। कई दिनों से माथे पर नाचनेवाला तनाव भी उनसे मिलने भर से न जाने कहाँ छिटक जाता था। उनका सान्निध्य जैसे किसी साधु की संगति। उनके लिए कहा जाता है कि वे पत्रकारिता की चलती-फिरती पाठशाला थे। उनकी पाठशाला में व्यावसायिकता से कहीं बढ़कर मूल्यों की पत्रकारिता के पाठ थे। ‘व्यावहारिकता’ के शोर में जब ‘सिद्धांतों’ को अनसुना करने का सहूलियत भरी राह पकड़ी जा रही हो, तब मूल्यों की बात कोई असाधारण व्यक्ति ही कर सकता है। मूल्य, सिद्धांत एवं व्यवहार के ये पाठ प्रो. दीक्षित के लिए केवल सैद्धांतिक नहीं थे अपितु उन्होंने इन पाठों को स्वयं जीकर सिद्ध किया था। इसलिए जब वे मूल्यानुगत मीडिया के लिए आग्रह करते थे, तो उसे अनसुना नहीं किया जाता था। इसलिए जब वे पत्रकारिता में मूल्यों की पुनर्स्थापना के प्रयासों की नींव रखते हैं, तो उस पर अंधकार में राह दिखानेवाले ‘दीप स्तम्भ’ के निर्माण की संभावना स्पष्ट दिखाई देती थी।

मूल्यानुगत मीडिया के आग्रही प्रो. कमल दीक्षित की पहचान ऐसे प्राध्यापक की रही है, जो अपने विद्यार्थियों को सैद्धांतिक ज्ञान के साथ व्यवहारिक कौशल भी सिखाते थे। एशिया के पहले पत्रकारिता विश्वविद्यालय- माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल- में आने से पहले उन्होंने लंबा समय सक्रिय पत्रकारिता में बिताया था। नवभारत टाइम्स (भोपाल एवं इंदौर) में वे संपादक रहे। जयपुर में राजस्थान पत्रिका में समाचार संपादक की जिम्मेदारी निभाई और बाद में वहाँ स्थानीय संपादक भी हुए। जयपुर और भोपाल में भास्कर एकेडमी के निदेशक के रूप में भी आपने योगदान दिया। आपके विद्यार्थी आज भी उन दिनों को याद करते हुए बताते हैं कि सर की कक्षा में पुस्तकीय ज्ञान एक सीमा तक ही रहता था। उनके पास व्यवहारिक पत्रकारिता का इतना गहरा अनुभव था कि एक घंटे की कक्षा तीन-चार घंटे तक खिंच जाती और सब ध्यान मग्न होकर सुनते-समझते, पत्रकारिता की बारीकियां सीखते। समाचार संकलन से लेकर समाचार संपादन एवं डमी-लेआउट तक का व्यवहारिक प्रशिक्षण प्रो. दीक्षित सर की कक्षा में मिलता था। उनका कक्षाएं केवल विश्वविद्यालय की चारदीवारी तक सीमित नहीं रहती थीं। वे सही मायने में गुरु थे, जो कक्षा के बाहर भी विद्यार्थी के व्यक्तित्व को गढ़ना अपना कर्तव्य मानते थे। माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय में उन्होंने शुरुआती समय से लंबे समय तक पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष का दायित्व संभाला। इस विभाग के माध्यम से विश्वविद्यालय की प्रतिष्ठा को बढ़ाया। देश को अनेक बड़े पत्रकार तराशकर दिए। उन्होंने अपने विद्यार्थियों में भी उन्हीं मूल्यों को हस्तांतरित किया, जिनके वे हामी थी। यहाँ आने से पहले ही उन्होंने जयपुर विश्वविद्यालय में एक आदर्श अध्यापक के अपने रूप से सबको परिचित करा दिया था। जयपुर विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग में प्रो. कमल दीक्षित अतिथि व्याख्याता के तौर पर कक्षाएं लेने जाने लगे थे। संभवत: अध्यापन के इस दौर में ही उन्होंने अनुभव किया कि पत्रकारिता का व्यवहारिक ज्ञान देनेवाली पुस्तकें हिन्दी में नगण्य हैं। इस कमी को पूरा करते हुए उन्होंने ‘समाचार संपादन’ पुस्तक की रचना की। उनकी विशेषता थी कि पत्रकारिता के विविध विषयों को वे जितनी सरलता से प्रस्तुत करते थे, आवश्यकता पड़ने पर उन्हीं विषयों को दार्शनिक की भाँति व्याख्यायित करते थे। पत्रकारिता के भाष्यकार के रूप में भी हम उनके देख सकते हैं। 

प्रो. कमल दीक्षित जानते थे कि वर्तमान समय में मूल्यानुगत मीडिया की बात करनेवाले को आमतौर पर पागल ही समझा जाएगा। लेकिन उन्होंने तो जीवन में यह व्रत लिया था कि पत्रकारिता को पुन: उजाले की ओर लेकर चलना है। धुन का पक्का आदमी कभी यह विचार नहीं करना कि लोग क्या कहेंगे, उसके मन तो बस एक ही लगन होती है कि हम क्या कर सकते हैं। अपने इस शुभ संकल्प को समाज तक पहुँचाने के लिए वे मासिक पत्र ‘मूल्यानुगत मीडिया’ का संपादन करते थे। देखने में यह पत्र बहुत ही सादा दिखाई देता था, परंतु यह बहुत गंभीर विमर्श को अपने साथ लेकर चलनेवाला पत्र था, बिलकुल प्रो. कमल दीक्षित की तरह। इसी क्रम में उन्होंने ग्रामीण पत्रकारिता को अपनी धुन का हिस्सा बनाया। आंचलिक पत्रकारिता एवं पत्रकारों पर उन्होंने जितनी बात की, शायद ही उनके अलावा किसी और ने की होगी। विकास एवं ग्रामीण पत्रकारिता पर संगोष्ठियों से लेकर ग्रामीण पत्रकारों के प्रशिक्षण कार्यक्रम उन्होंने आयोजित किए। देशभर में जाकर इस विषय पर उन्होंने संवाद किया। उन्होंने जो विषय अपने हाथ में लिए, देखने में दोनों ही रुखे दिखाई पड़ते हैं, लेकिन भारतीय पत्रकारिता को ठीक दिशा में रखने के लिए ये अत्यंत आवश्यक हैं। 

विभिन्न समाचार पत्रों का संपादन करते हुए उन्होंने मूल्यों और सिद्धांतों को कभी नहीं छोड़ा। प्रत्येक स्थिति में मूल्यों की पत्रकारिता को आगे बढ़ाया।  यह जानते हुए  भी कि पत्रकारिता की वर्तमान दशा और भविष्य की दिशा उत्साहवर्धक नहीं है, तब भी प्रो. कमल दीक्षित न तो स्वयं निराश हुए और न ही किसी और में निराशा का भाव पैदा होने दिया। उन्होंने हमेशा कहा कि अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है। मूल्य आधारित पत्रकारिता के लिए अभी भी बहुत संभावनाएं हैं। उनका एक लेख हमें अवश्य पढ़ना चाहिए, जो हमारे मन में विश्वास पैदा करता है- ‘अभी संभावना है।’  अनंत यात्रा पर जाने से पूर्व उनकी पुस्तक आई थी- ‘मूल्यानुगत मीडिया : संभावना और चुनौतियां’। इस पुस्तक में यह लेख पढ़ा जा सकता है। वैसे तो यह पूरी पुस्तक ही भरोसा जगानेवाली है कि मूल्यानुगत मीडिया की ज्योति में प्राण तत्व अब भी है, उस दीपक का तेल चुका नहीं है। यह ज्योति और प्रदीप्त हो, इसके लिए साझे एवं निष्ठापूर्ण प्रयासों की आवश्यकता है। प्रो. दीक्षित के आलेख उन लोगों को झकझोरते हैं, जो यह मान बैठे हैं कि कॉरपोरेट ने समूची पत्रकारिता को चौपट कर दिया और अब मीडिया में मूल्यों के लिए कोई स्थान शेष नहीं। ऐसे वातावरण में प्रो. दीक्षित विश्वास जगाते हैं कि घोर व्यावसायिकता और गलाकाट प्रतिस्पर्धा के दौर में सबकुछ नष्ट नहीं हुआ है, अभी बहुत संभावनाएं शेष हैं। आओ, उन संभावनाओं को मिलकर साकार करें। 

प्रो. कमल दीक्षित मानते थे कि सामाजिक बदलाव के लिए मीडिया की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। परंतु आज का मीडिया इसमें कहीं चूक रहा है। मीडिया से वह अपेक्षा करते थे कि उसे अपने कर्तव्य पथ पर वापस लौटना चाहिए। वे लिखते हैं कि “मीडिया ने अपने मूल्यों को दरकिनार किया है तथा मानवीय मूल्यों से भी उसके संबंध कमजोर हुए हैं। उसने भारतीय तथा जातीय संस्कृति को प्रभावित करते हुए पाश्चात्य तथा उपभोक्तावादी संस्कृति का विस्तार किया है”। उनकी यह चिंता हम सबकी साझा चिंता बने, इसके लिए उनके छूटे हुए प्रयासों को आगे बढ़ाना आवश्यक है। पत्रकारिता को मूल्यों से, सामाजिक संवेदनाओं से और भारतीय संस्कृति से जोड़ने की छटपटाहट उनमें साफ देखी जा सकती थी। भारतीय मीडिया मूल्यों की ओर लौटे इसके लिए उन्होंने ‘मूल्यानुगत मीडिया अभिक्रम समिति’ की स्थापना की। इसके साथ ही प्रो. कमल दीक्षित आध्यात्मिक संस्था प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय से भी जुड़े हुए थे। वे इसके मीडिया विंग के अग्रणी सदस्य थे। दोनों ही संस्थाओं के माध्यम से उन्होंने पत्रकारों में आध्यात्मकि सोच को बढ़ावा देकर, पत्रकारिता को सकारात्मक एवं समाधानमूलक दृष्टि देने का प्रयास किया। ब्रह्माकुमारीज के मुख्यालय माउंटआबू में आयोजित मीडिया कार्यशाला में उनके आग्रह को स्वीकार करके देश के प्रतिष्ठित पत्रकार पहुँचते थे। अध्यात्म की छाया में पत्रकारिता मूल्योन्मुख हो, यही एक साझा प्रयास था। पत्रकारिता के माध्यम से समाज तक अध्यात्म का संस्कार पहुँचे, इसके लिए प्रो. कमल दीक्षित के संपादन में ब्रह्माकुमारी ने ‘राजी खुशी’ नाम से एक मासिक पत्रिका का प्रकाशन भी प्रारंभ किया, जो प्रो. दीक्षित के देवलोकगमन के बाद बंद हो गई। लगभग तीन वर्ष तक इस पत्रिका के माध्यम से प्रो. दीक्षित ने अध्यात्म के माध्यम से पत्रकारिता के सकारात्मक स्वरूप को सामने रखा। 

प्रो. दीक्षित मीडिया की भाषा एवं उसकी प्रस्तुतिकरण पर भी नजर रखते थे। दरअसल, वे उस परंपरा के संपादक रहे हैं, जिनके लिए भाषा की शुचिता सर्वोपरि एवं शब्द की सत्ता के बहुत गहरे मायने थे। उनके लिए शब्द केवल शब्द नहीं हैं अपितु वे शब्द को प्रतीक मानते थे। वह मानते थे कि शब्द की अपनी एक संस्कृति होती है। जब हम व्याकरण को गहराई से पढ़ते हैं, तब स्पष्टतौर पर समझ आता है कि शब्द अपनी संस्कृति के संवाहक होते हैं। प्रो. दीक्षित जब हिन्दी के समाचारपत्रों में भाषा के साथ खिलवाड़ को देखते थे, तब उनकी बेचैनी खुलकर सामने आ जाती थी।  उनका मानना है कि “हमारे समाचारपत्रों ने भाषा के साथ ही बेसमझ और फूहड़ व्यवहार किया है”। हिन्दी के समाचारपत्रों में जबरन अंग्रेजी के शब्दों का उपयोग उनको चुभता था। दरअसल, यह पीड़ा हर उस पाठक की है, जो भाषा के प्रति थोड़ा-सा भी संवेदनशील है। विशेषतौर पर हिन्दी के समाचार-पत्रों ने जिस तरह से आम बोल-चाल की भाषा के नाम पर ‘हिन्दी’ का स्वरूप बिगाड़ा है, वह असहनीय है। समाचार-पत्र धड़ल्ले से हिन्दी की अस्मिता पर चोट कर रहे हैं। अच्छी भाषा भी एक मूल्य है। समाचार-पत्रों को भाषा की अनदेखी नहीं करनी चाहिए, बल्कि उसके संवर्द्धन की जिम्मेदारी का निर्वहन करना चाहिए। 

पत्रकारिता के लोकहितैषी स्वरूप के पोषक प्रो. कमल दीक्षित को हिन्दी पत्रकारिता में उनके योगदान के लिए सदैव स्मरण किया जाएगा। उनके जैसे विरले ही लोग होते हैं, जो धारा के विपरीत चलते हैं। समाचारपत्र के कार्यालय में संपादक के कक्ष से लेकर विश्वविद्यालय में आचार्य की कक्षा तक उन्होंने पत्रकारिता को दिशा देने का काम किया। उनके प्रयासों से शुरू हुआ मूल्यानुगत मीडिया अभिक्रम रुकना नहीं चाहिए। यह एक ऐसा मंच बने, जो उनके विचारों को बीज रूप में पत्रकारिता में बोये ताकि मूल्यों की फसल आती रहे। 

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