Lokendra singh |
हम बाहर हो गए उसके ख्वाबों से।
निकले थे सफर पर वो हाथ थामकर
मृग मरीचिका ने भटका दिया राहों से।
जिसके दिल-ओ-दिमाग में थे हरदम
अब हम निकल गए उनकी यादों से।
यादों के ठूंठ रह गए जिन्दगी में
महकते सब फूल टूट गए बागों से।
साथ देने की कसम ली थी मुझसे
आज वो ही मुकर गए अपने वादों से।
पहुंच न सकूं उसके आंगन तक
पैरों के निशां मिटाते चले वो राहों से।
ठन-ठन गोपाल रह गए जिन्दगी के मेले में
इश्क के सिक्के सब टपक गए फटी जेबों से।
- लोकेन्द्र सिंह -
(काव्य संग्रह "मैं भारत हूँ" से)
सिक्कों का टपक जाना सबसे बडा नुक्सान है। इसकी भरपाई नही होती कभी । बहुत अच्छी भाव पूर्ण रचना ।
जवाब देंहटाएंसिक्कों का टपक जाना सबसे बडा नुक्सान है। इसकी भरपाई नही होती कभी । बहुत अच्छी भाव पूर्ण रचना ।
जवाब देंहटाएंसच कहा दीदी....
हटाएंशुक्रिया रवि जी
जवाब देंहटाएंहृदय के वेदना को प्रकट करती भावपूर्ण रचना |
जवाब देंहटाएंbahut hi sundar !
जवाब देंहटाएंइश्क के सिक्को को संभालकर रखना चाहिए..
जवाब देंहटाएंये जो खो गए तो वेदना गहरी होती है..
संवेदनशील रचना..
:-)
कोशिश तो यही थी और है... सिक्के संभल कर रखे जायें...
हटाएंकारवाँ गुज़र गया ... सुन्दर रचना, सिक्कों की उपमा अच्छी लगी
जवाब देंहटाएंजेब सदियों से मेरी खाली थी, अपना क्या था जो अब गँवाना था।
अनुराग जी शुक्रिया
हटाएंलोकेन्द्र जी, आपका यह रूप भी बहुत पसंद आया!!
जवाब देंहटाएंआदरणीय वर्मा जी आपका बहुत बहुत आभार
हटाएंये रिवर्स गियर कैसे लग गया भाईजान?
जवाब देंहटाएंवैसे फोटो एकदम पोस्ट के साथ मैच करती है, विरह ग्रस्त :)
आत्मीय संजय जी, अतीत को वर्तमान में खींच कर लाने की कोशिश की है.... हा हा हा
हटाएंबहत की तकलीफदेह स्तिथि होती है यह ......बचे खुचे रीतेपन को बहुत सुन्दरता से दर्शाती हुई रचना
जवाब देंहटाएंसिक्के है तो हाथ में कहाँ टिकेंगे..बढ़िया रचना है जी..साधुवाद
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