स मरसता के सूत्र पुस्तक की प्रस्तावना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व सरसंघचालक कुप्.सी. सुदर्शन ने लिखी है। इसके अलावा इस पुस्तक के लोकार्पण के अवसर पर दिए गए उनके भाषण को भी पुस्तक में शामिल किया गया है। श्री सुदर्शन लिखते हैं कि विश्व में हिन्दू चिंतन सबसे विशिष्ट और अनोखा है जो विश्व के अन्य किसी समाज के पास नहीं है। यह विश्व बंधुत्व की भावना का विकास करता है। इसमें चर-अचर सबके कल्याण की बात कही गई है। विदेशियों के हमले, समय के चक्र और कुरीतियों के बीच हिन्दू समाज में कुछ बुराइयां घर कर गईं। इनमें सर्वाधिक कष्ट इस बात का है कि जाति के आधार पर हिन्दू और हिन्दू के बीच भेदभाव एवं अस्पृश्यता घुसपैठ हो गई। समय के साथ यह बुराई विकराल हो गई। हिन्दू समाज को इन सब से मुक्त कर समरस, सजग, सचेत, सबल, समद्ध और स्वावलंबी समाज बनाने के कलए स्वामी विवेकानन्द, वीर सावरकर, ऋषि अरविन्द, डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार, श्री गुरुजी, शाहूजी महाराज, ज्योतिबा फुले, गाडगे महाराज, तुकड़ोजी महाराज और डॉ. अंबेडकर जैसे महापुरुषों का बड़ा योगदान रहा। लेकिन, समाज अभी भी जितना बदलना चाहिए, उतना नहीं बदला है। प्रतिदिन हमें जातिभेद के आधार पर होने वाले अत्याचारों, अन्याय और विद्रूपताओं का परिचय मिलता है। इस समस्या के निर्मूल निवारण के लिए अभी और काम किया जाना शेष है। श्री सुदर्शन जी ने 'समरसता सूत्र' के संपादन के लिए तत्कालीन पाञ्चजन्य के संपादक (वर्तमान में राज्यसभा सांसद) तरुण विजय और मराठी साप्ताहिक विवेक के संपादक रमेश पतंगे के लिए साधुवाद दिया। उन्होंने प्रस्तावना में लिखा है कि 'समरसता सूत्र' हिन्दू समाज को समरसता के मार्ग की ओर प्रेरित कर सकेगा, यह मुझे विश्वास है। पुस्तक में कुल ३५ आलेख हैं। इनमें श्री गुरुजी, दत्तोपंथ ठेंगड़ी, हो.वे. शेषाद्रि, महाशूद्र के साथ ही राजनाथ सिंह, गिरिलाल जैन, किशोर मकवाणा, प्रदीप कुमार, राजा माधव और रामनाथ सिंह के विचारों को स्थान दिया गया है। इसके अलाव पुस्तक में सत्येन्द्रनाथ दत्त, श्रीप्रकाश और रसिक बिहारी मंजुल की चार कविताओं को स्थान दिया गया।
'समरसता के सूत्र' हिन्दू समाज में जाति भेदभाव और अस्पृश्यता के बीजारोपण से लेकर समस्या के विकराल बनने, समाज को हुए नुकसान और समस्या के निवारण के लिए हो रहे प्रयासों समझने का ग्रंथ है। पुस्तक के संपादक रमेश पतंगे अपने एक आलेख में समरसता शब्द के महत्व को स्पष्ट करते हैं। उन्होंने लिखा है कि कुछ शब्द ऐसे होते हैं जो जनआकांक्षाओं को अभिव्यक्त करते हैं। १९४७ के पूर्व 'स्वतंत्रता या आजादी' एक ऐसा ही शब्द था जो सभी के अंत:करण के तार छेड़ देता था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद 'समाजवाद' यह शब्द आर्थिक, सामाजिक समता को अभिव्यक्त करने वाला था, इसलिए इसका चलन बहुत अधिक होता रहा। १९७० के दशक में 'समता' शब्द का भी प्रचुर मात्रा में उपयोग होने लगा। लेकिन, इन सबसे इतर 'समरसता' शब्द अति व्यापक अर्थ को व्यक्त करता है। सृष्टि के मनुष्य जीवन में एक ही चेतना होने के कारण मनुष्य-मनुष्य इस नाते से एकदूजे के समान हैं। भारतीय विचार परंपरा हमें यह सिखाती है कि सारी सृष्टि चेतन-अचेतन एक ही तत्व का आविष्कार है। इसीलिए परस्पर सामंजस्य और समरसता होना अत्यंत स्वाभाविक है। 'समरसता' शब्द नया नहीं है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानवदर्शन में पहली बार इसका उपयोग किया। श्री गुरुजी के 'सामाजिक विचार दर्शन' में अनेक बार इस शब्द का इस्तेमाल किया गया है। वहीं, १९७० के दशक में 'समरसता' शब्द का प्रयोग वैचारिक क्षेत्र में एक सिद्धांत के रूप में शायद पहली बार किया गया। इसका श्रेय दत्तोपंत ठेंगड़ी जी को देना चाहिए। रमेश पतंगे ने इसी आलेख में दत्तोपंथ ठेंगड़ी जी द्वारा स्थापित समरसता मंच के कार्यों का उल्लेख किया है। समसरता मच की स्थापना १९७३ को हुई, तब से मंच समाज में समरसता लाने के लिए सार्थक प्रयास कर रहा है। इसका असर भी हिन्दू समाज में अब दिखता है।
इस पुस्तक के संपादक तरुण विजय अपने आलेख 'दलित दर्द-यह दर्द भारत का है' में मनुष्य-मनुष्य में भेद पर तीखा सवाल उठाते हैं। वे लिखते हैं कि हम राम और कृष्ण की उपासना करते हैं और कहते हैं कण-कण में राम हैं। हम पत्थर को भी ईश्वर बनाकर चंदन लगाते हैं, उस पर माला चढ़ाते हैं और अपनी मनोकामना पूरी होने की प्रार्थना करते हैं। हम पत्थर को तो भगवान बनाने के लिए तैयार हो जाते हैं लेकिन जीते जागते प्राणवान मनुष्य में प्रत्यक्ष ईश्वर बसता है, उस पर अपने घर में आने तक रोक लगाते हैं। हम होली दीवाली मनाते हैं पर तीज-त्योहार पर न तो इन वंचितों के घर जाते हैं और न ही इन्हें अपने घर बुलाते हैं। वे लिखते हैं सामाजिक भेदभाव की खाई पाटने और समाज में समरसता लाने सार्थक प्रयास राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके स्वयंसेवकों में द्वारा किए जा रहे हैं। संघ में न तो किसी की जाति पूछी जाती है और न ही जाति का भेदभाव चलता है।
पुस्तक में तमाम विद्वानों ने स्पष्ट किया है कि समाज में समरसता लाने के लिए कोई सही दिशा में काम कर रहा है तो वह है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। यह सच भी है। संघ के निर्माताओं का ध्येय भी यही रहा हिन्दू समाज का संगठन। संगठन भेदभाव की खाई पाटे बिना नहीं हो सकता इसलिए संघ के द्वितीय सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर ने कहा भी कि हिन्दवो सोदरा सर्वे न हिन्दू पतितो भवेत, मम दीक्षा हिन्दू रक्षा, मम मंत्र: समानता। श्री गुरुजी के प्रयासों से ही प्रयाग के कुंभ में संत-महात्माओं ने धर्म संसद में सभी हिन्दू समान है इस आशय की घोषणा की। संघ के प्रयासों से ही बेंगलूरु में स्वामी विश्वेश्वरा तीर्थ अनुसूचित जाति की बस्ती में गए , सहभोज किया। सन् १९८९ में अनुसूचित जाति के व्यक्ति कामेश्वर चौपाल ने रामजन्मभूमि की पहली शिला रखी। काशी में संतों ने डोमराजा के घर पहुंचकर प्रसाद ग्रहण किया। संघ के कार्य को स्पष्ट करते हुए श्री गुरुजी लिखते हैं कि हम तो समाज को ही भगवान मानते हैं, दूसरा हम जानते नहीं। समष्टिरूप भगवान की सेवा करेंगे। उसका कोई अंग अछूत नहीं, कोई हेय नहीं है। उसका एक-एक अंग पवित्र है, यह हमारी धारणा है। हम इस धारणा के आधार पर समाज बनाएंगे। भारत में जातीय भेदभाव पुरातन काल से नहीं है। पूर्व काल में तो समाज के सभी बंधुओं को समान अधिकार-समान सम्मान प्राप्त था। पंचायत व्यवस्था में हर तबके का प्रतिनिधि शामिल रहता था। प्रभु रामचंद्र की राज्य व्यवस्था का भी जो वर्णन है, उसमें चार वर्णों के चार प्रतिनिधि और पांचवां निषाद यानी वनवासी बंधुओं का प्रतिनिधि पंचायत में शामिल रहता था। परन्तु बीच कालखण्ड में वह व्यवस्था टूट गई।
इस पुस्तक के एक आलेख में दत्तोपंत ठेंगडी लिखते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अपने सात वर्ष के कार्यकाल में ही १९३२ के नागपुर के विजयादशमी महोत्सव में डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने घोषित किया था कि संघ क्षेत्र में जातिभेद और अस्पृश्यता पूरी तरह समाप्त हो चुकी है। इस घोषणा की सत्यता की प्रतीति सन् १९३४ के वर्धा जिले के संघ शिविर में महात्मा गांधी को भी हुई थी। हो.वे. शेषाद्रि लिखते हैं कि हिन्दू समाज में समरसता के लिए काम करने वाले दो महापुरुषों का योगदान उल्लेखनीय है - डॉ. भीमराव अंबेडकर और डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार। डॉ. हेडगेवार ने तो संघ की स्थापना के साथ ही मौन रूप से इस दिशा में कार्य प्रारंभ कर दिया था। उन्होंने अंबेडकर जी के प्रयासों की सराहना भी की। १९२४ में मुम्बई में आयोजित बहिष्कृत हितकारिणी सभा में डॉ. अंबेडकर ने भी कहा था कि अस्पृश्यों का उद्धार केवल अस्पृश्यों के बलबूते पर ही नहीं होगा, अपितु पूरे समाज को साथ लेकर आगे बढऩे से होगा। डॉ. अंबेडकर जब पुणे के संघ शिविर में आए थे तो उन्होंने पया कि यहां तो अस्पृश्यता नाम की चीज ही नहीं है। सभी लोग वहां पर समान थे। उच्च जाति, निचली जाति, ब्राह्मण आदि के साथ उन्होंने समान व्यवहार देखा।
कई बार एक मिथ्या धारणा बड़े जोर-शोर से चिल्लाकर प्रचारित की जाती है कि संघ में तथाकथित उच्चवर्ग के लोगों की बाहुलता है। पूछा जाता है कि आखिरकार जिनको हरिजन या दलित अथवा अस्पृश्य जाति से संबंधित कहा जाता है, उनके बीच में संघ की सक्रियता कहां तक है और वे संघ कार्य की मुख्यधारा में कहां दिखाई देते हैं? तो जिसे हम मुख्यधारा कहते हैं उसका अर्थ हिन्दू एकता ही है। कार्यकर्ता किस जाति के हैं और किस घर में पैदा हुए हैं- यह जानना मुख्यधारा नहीं होती। संघ में यह नहीं देखा जाता कि कार्यकर्ता किस जाति का है। सभी का व्यवहार, मानसिकता समरसता की है। स्वयं गांधी जी भी जब संघ शिविर में आए थे तो उन्होंने यही पया था। द टाइम्स ऑफ इण्डिया के पूर्व संपादक गिरिलाल जैन और अमृतलाल नागर के उपन्यास की भूमिका के अंश स्पष्ट करते हैं कि किस तरह भारत में जाति का भूत खड़ा हुआ। जिन लोगों को आज अस्पृश्य, अछूत माना जा रहा है उन्होंने हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए कितने कष्ट सहे हैं। एक और झूठ प्रचारित किया जाता है कि हिन्दू धर्म में तथाकथित शूद्रों को वेद अध्ययन या पूजा-पाठ का अधिकार नहीं दिया गया। इस झूठ से पर्दा उठाते हुए राजा जाधव लिखते हैं कि याज्ञवल्क्य स्मृति में कहा गया है कि शूद्रों को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। शम-दम-सत्य का पालन और धर्माचरण करने वाला शूद्र भी ब्राह्मण कहलाता है ऐसा वेदव्यास ने महाभारत में कहा है। पराशर, वशिष्ठ, व्यास, कणाद, मंदपाल, मांडव्य आदि सारे ऋषि शूद्र ही थे। धीवर, चांडाल, गणिका, आदि कनिष्ठ जातियों की संतान भी उस काल में गुरुकुल में पढ़ती थीं। ऐतरेय महिदास शुद्रपुत्र ही था। वह वेदवेत्ता बन गया। ऐतरेय ब्राह्मण यह ग्रंथ उसी ने रचा है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कई अनुषांगिक संगठन समाज में समरसता लाने के लिए जुटे हैं। विश्व हिन्दु परिषद और सेवा भारती उन्हीं में से हैं। सेवा भारती के माध्यम से आज देशभर में तमाम निचली जाति की बस्तियों के सेवा कार्य और शिक्षा के प्रकल्प चलाए जा रहे हैं। गुजरात की मासिक पत्रिका नमस्कार के संपादक किशोर मकवाणा लिखते हैं कि विगत दस वर्षों से संघ कार्य को निकट से देखकर, शाखाओं में घुल-मिलकर स्वयंसेवकों के व्यवहार को देखकर, आज यह सब पढऩे को मिलता है कि - संघ दलित विरोधी है। तब ऐसा लगता है कि जैसे किसी ने गाल पर चांटा मार दिया हो और मन में भयंकर वेदना उठती है। कितना सफेद झूठ। समाज के तथाकथित दलितोद्धार के ठेकेदारों ने वर्षों से दलित समाज में जो विष भरा है, उसे निकालना काफी कठिन कार्य है। इस दिशा में संघ की शक्ति और कार्य अभी भी बढऩा चाहिए। जितेन्द्र तिवारी अपने आलेख 'कले थे अछूत आज बने पण्डित' में बताते हैं कि किस प्रकार संघ प्रेरणा से समाज में बदलाव आए। जिन्हें अछूत माना जाता था वे पढ़-लिखकर पूजा-पाठ कार्य भी संपन्न करा पा रहे हैं।
समरसता के सूत्र समाज को एकजुट करने और हिन्दू-हिन्दू में भेदाभेद को खत्म करने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर से किए जा रहे कार्यों का ग्रंथ तो है ही यह समाज में अन्य महानुभावों द्वारा इस दिशा में किए गए और किए जा रहे कार्यों की जानकारी भी देती है। अंत में एक बात कहना चाहूंगा जो पुस्तक का ध्येय भी है- देश और समाज के विकास के लिए समरसता जरूरी है। इसलिए हिन्दू-हिन्दू के बीच का भेद खत्म करने के लिए सार्थक प्रयास किए जाने चाहिए।
पुस्तक : समरसता के सूत्र
मूल्य : ३५० रुपए (सजिल्द)
संपादक : रमेश पतंगे, तरुण विजय
प्रकाशक : मचान,
सी-३७५, सेक्टर-१०, नोएडा (उत्तरप्रदेश) - २०१३०१
'समरसता के सूत्र' हिन्दू समाज में जाति भेदभाव और अस्पृश्यता के बीजारोपण से लेकर समस्या के विकराल बनने, समाज को हुए नुकसान और समस्या के निवारण के लिए हो रहे प्रयासों समझने का ग्रंथ है। पुस्तक के संपादक रमेश पतंगे अपने एक आलेख में समरसता शब्द के महत्व को स्पष्ट करते हैं। उन्होंने लिखा है कि कुछ शब्द ऐसे होते हैं जो जनआकांक्षाओं को अभिव्यक्त करते हैं। १९४७ के पूर्व 'स्वतंत्रता या आजादी' एक ऐसा ही शब्द था जो सभी के अंत:करण के तार छेड़ देता था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद 'समाजवाद' यह शब्द आर्थिक, सामाजिक समता को अभिव्यक्त करने वाला था, इसलिए इसका चलन बहुत अधिक होता रहा। १९७० के दशक में 'समता' शब्द का भी प्रचुर मात्रा में उपयोग होने लगा। लेकिन, इन सबसे इतर 'समरसता' शब्द अति व्यापक अर्थ को व्यक्त करता है। सृष्टि के मनुष्य जीवन में एक ही चेतना होने के कारण मनुष्य-मनुष्य इस नाते से एकदूजे के समान हैं। भारतीय विचार परंपरा हमें यह सिखाती है कि सारी सृष्टि चेतन-अचेतन एक ही तत्व का आविष्कार है। इसीलिए परस्पर सामंजस्य और समरसता होना अत्यंत स्वाभाविक है। 'समरसता' शब्द नया नहीं है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानवदर्शन में पहली बार इसका उपयोग किया। श्री गुरुजी के 'सामाजिक विचार दर्शन' में अनेक बार इस शब्द का इस्तेमाल किया गया है। वहीं, १९७० के दशक में 'समरसता' शब्द का प्रयोग वैचारिक क्षेत्र में एक सिद्धांत के रूप में शायद पहली बार किया गया। इसका श्रेय दत्तोपंत ठेंगड़ी जी को देना चाहिए। रमेश पतंगे ने इसी आलेख में दत्तोपंथ ठेंगड़ी जी द्वारा स्थापित समरसता मंच के कार्यों का उल्लेख किया है। समसरता मच की स्थापना १९७३ को हुई, तब से मंच समाज में समरसता लाने के लिए सार्थक प्रयास कर रहा है। इसका असर भी हिन्दू समाज में अब दिखता है।
इस पुस्तक के संपादक तरुण विजय अपने आलेख 'दलित दर्द-यह दर्द भारत का है' में मनुष्य-मनुष्य में भेद पर तीखा सवाल उठाते हैं। वे लिखते हैं कि हम राम और कृष्ण की उपासना करते हैं और कहते हैं कण-कण में राम हैं। हम पत्थर को भी ईश्वर बनाकर चंदन लगाते हैं, उस पर माला चढ़ाते हैं और अपनी मनोकामना पूरी होने की प्रार्थना करते हैं। हम पत्थर को तो भगवान बनाने के लिए तैयार हो जाते हैं लेकिन जीते जागते प्राणवान मनुष्य में प्रत्यक्ष ईश्वर बसता है, उस पर अपने घर में आने तक रोक लगाते हैं। हम होली दीवाली मनाते हैं पर तीज-त्योहार पर न तो इन वंचितों के घर जाते हैं और न ही इन्हें अपने घर बुलाते हैं। वे लिखते हैं सामाजिक भेदभाव की खाई पाटने और समाज में समरसता लाने सार्थक प्रयास राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके स्वयंसेवकों में द्वारा किए जा रहे हैं। संघ में न तो किसी की जाति पूछी जाती है और न ही जाति का भेदभाव चलता है।
पुस्तक में तमाम विद्वानों ने स्पष्ट किया है कि समाज में समरसता लाने के लिए कोई सही दिशा में काम कर रहा है तो वह है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। यह सच भी है। संघ के निर्माताओं का ध्येय भी यही रहा हिन्दू समाज का संगठन। संगठन भेदभाव की खाई पाटे बिना नहीं हो सकता इसलिए संघ के द्वितीय सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर ने कहा भी कि हिन्दवो सोदरा सर्वे न हिन्दू पतितो भवेत, मम दीक्षा हिन्दू रक्षा, मम मंत्र: समानता। श्री गुरुजी के प्रयासों से ही प्रयाग के कुंभ में संत-महात्माओं ने धर्म संसद में सभी हिन्दू समान है इस आशय की घोषणा की। संघ के प्रयासों से ही बेंगलूरु में स्वामी विश्वेश्वरा तीर्थ अनुसूचित जाति की बस्ती में गए , सहभोज किया। सन् १९८९ में अनुसूचित जाति के व्यक्ति कामेश्वर चौपाल ने रामजन्मभूमि की पहली शिला रखी। काशी में संतों ने डोमराजा के घर पहुंचकर प्रसाद ग्रहण किया। संघ के कार्य को स्पष्ट करते हुए श्री गुरुजी लिखते हैं कि हम तो समाज को ही भगवान मानते हैं, दूसरा हम जानते नहीं। समष्टिरूप भगवान की सेवा करेंगे। उसका कोई अंग अछूत नहीं, कोई हेय नहीं है। उसका एक-एक अंग पवित्र है, यह हमारी धारणा है। हम इस धारणा के आधार पर समाज बनाएंगे। भारत में जातीय भेदभाव पुरातन काल से नहीं है। पूर्व काल में तो समाज के सभी बंधुओं को समान अधिकार-समान सम्मान प्राप्त था। पंचायत व्यवस्था में हर तबके का प्रतिनिधि शामिल रहता था। प्रभु रामचंद्र की राज्य व्यवस्था का भी जो वर्णन है, उसमें चार वर्णों के चार प्रतिनिधि और पांचवां निषाद यानी वनवासी बंधुओं का प्रतिनिधि पंचायत में शामिल रहता था। परन्तु बीच कालखण्ड में वह व्यवस्था टूट गई।
इस पुस्तक के एक आलेख में दत्तोपंत ठेंगडी लिखते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अपने सात वर्ष के कार्यकाल में ही १९३२ के नागपुर के विजयादशमी महोत्सव में डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने घोषित किया था कि संघ क्षेत्र में जातिभेद और अस्पृश्यता पूरी तरह समाप्त हो चुकी है। इस घोषणा की सत्यता की प्रतीति सन् १९३४ के वर्धा जिले के संघ शिविर में महात्मा गांधी को भी हुई थी। हो.वे. शेषाद्रि लिखते हैं कि हिन्दू समाज में समरसता के लिए काम करने वाले दो महापुरुषों का योगदान उल्लेखनीय है - डॉ. भीमराव अंबेडकर और डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार। डॉ. हेडगेवार ने तो संघ की स्थापना के साथ ही मौन रूप से इस दिशा में कार्य प्रारंभ कर दिया था। उन्होंने अंबेडकर जी के प्रयासों की सराहना भी की। १९२४ में मुम्बई में आयोजित बहिष्कृत हितकारिणी सभा में डॉ. अंबेडकर ने भी कहा था कि अस्पृश्यों का उद्धार केवल अस्पृश्यों के बलबूते पर ही नहीं होगा, अपितु पूरे समाज को साथ लेकर आगे बढऩे से होगा। डॉ. अंबेडकर जब पुणे के संघ शिविर में आए थे तो उन्होंने पया कि यहां तो अस्पृश्यता नाम की चीज ही नहीं है। सभी लोग वहां पर समान थे। उच्च जाति, निचली जाति, ब्राह्मण आदि के साथ उन्होंने समान व्यवहार देखा।
कई बार एक मिथ्या धारणा बड़े जोर-शोर से चिल्लाकर प्रचारित की जाती है कि संघ में तथाकथित उच्चवर्ग के लोगों की बाहुलता है। पूछा जाता है कि आखिरकार जिनको हरिजन या दलित अथवा अस्पृश्य जाति से संबंधित कहा जाता है, उनके बीच में संघ की सक्रियता कहां तक है और वे संघ कार्य की मुख्यधारा में कहां दिखाई देते हैं? तो जिसे हम मुख्यधारा कहते हैं उसका अर्थ हिन्दू एकता ही है। कार्यकर्ता किस जाति के हैं और किस घर में पैदा हुए हैं- यह जानना मुख्यधारा नहीं होती। संघ में यह नहीं देखा जाता कि कार्यकर्ता किस जाति का है। सभी का व्यवहार, मानसिकता समरसता की है। स्वयं गांधी जी भी जब संघ शिविर में आए थे तो उन्होंने यही पया था। द टाइम्स ऑफ इण्डिया के पूर्व संपादक गिरिलाल जैन और अमृतलाल नागर के उपन्यास की भूमिका के अंश स्पष्ट करते हैं कि किस तरह भारत में जाति का भूत खड़ा हुआ। जिन लोगों को आज अस्पृश्य, अछूत माना जा रहा है उन्होंने हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए कितने कष्ट सहे हैं। एक और झूठ प्रचारित किया जाता है कि हिन्दू धर्म में तथाकथित शूद्रों को वेद अध्ययन या पूजा-पाठ का अधिकार नहीं दिया गया। इस झूठ से पर्दा उठाते हुए राजा जाधव लिखते हैं कि याज्ञवल्क्य स्मृति में कहा गया है कि शूद्रों को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। शम-दम-सत्य का पालन और धर्माचरण करने वाला शूद्र भी ब्राह्मण कहलाता है ऐसा वेदव्यास ने महाभारत में कहा है। पराशर, वशिष्ठ, व्यास, कणाद, मंदपाल, मांडव्य आदि सारे ऋषि शूद्र ही थे। धीवर, चांडाल, गणिका, आदि कनिष्ठ जातियों की संतान भी उस काल में गुरुकुल में पढ़ती थीं। ऐतरेय महिदास शुद्रपुत्र ही था। वह वेदवेत्ता बन गया। ऐतरेय ब्राह्मण यह ग्रंथ उसी ने रचा है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कई अनुषांगिक संगठन समाज में समरसता लाने के लिए जुटे हैं। विश्व हिन्दु परिषद और सेवा भारती उन्हीं में से हैं। सेवा भारती के माध्यम से आज देशभर में तमाम निचली जाति की बस्तियों के सेवा कार्य और शिक्षा के प्रकल्प चलाए जा रहे हैं। गुजरात की मासिक पत्रिका नमस्कार के संपादक किशोर मकवाणा लिखते हैं कि विगत दस वर्षों से संघ कार्य को निकट से देखकर, शाखाओं में घुल-मिलकर स्वयंसेवकों के व्यवहार को देखकर, आज यह सब पढऩे को मिलता है कि - संघ दलित विरोधी है। तब ऐसा लगता है कि जैसे किसी ने गाल पर चांटा मार दिया हो और मन में भयंकर वेदना उठती है। कितना सफेद झूठ। समाज के तथाकथित दलितोद्धार के ठेकेदारों ने वर्षों से दलित समाज में जो विष भरा है, उसे निकालना काफी कठिन कार्य है। इस दिशा में संघ की शक्ति और कार्य अभी भी बढऩा चाहिए। जितेन्द्र तिवारी अपने आलेख 'कले थे अछूत आज बने पण्डित' में बताते हैं कि किस प्रकार संघ प्रेरणा से समाज में बदलाव आए। जिन्हें अछूत माना जाता था वे पढ़-लिखकर पूजा-पाठ कार्य भी संपन्न करा पा रहे हैं।
समरसता के सूत्र समाज को एकजुट करने और हिन्दू-हिन्दू में भेदाभेद को खत्म करने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर से किए जा रहे कार्यों का ग्रंथ तो है ही यह समाज में अन्य महानुभावों द्वारा इस दिशा में किए गए और किए जा रहे कार्यों की जानकारी भी देती है। अंत में एक बात कहना चाहूंगा जो पुस्तक का ध्येय भी है- देश और समाज के विकास के लिए समरसता जरूरी है। इसलिए हिन्दू-हिन्दू के बीच का भेद खत्म करने के लिए सार्थक प्रयास किए जाने चाहिए।
पुस्तक : समरसता के सूत्र
मूल्य : ३५० रुपए (सजिल्द)
संपादक : रमेश पतंगे, तरुण विजय
प्रकाशक : मचान,
सी-३७५, सेक्टर-१०, नोएडा (उत्तरप्रदेश) - २०१३०१
yah pustak bahut upyogi hai , sabhi ko padhna chahiye.
जवाब देंहटाएंभोपाल की ईद वाली समरसता से भी सुदर्शन जी आजकल चर्चाओं में हैं, फलक और बढ़ गया दीखता है|
जवाब देंहटाएंबहुत ही गहन विवेचना लोकेन्द्र जी!!
जवाब देंहटाएंकुछ लोग इसे भले ही साम्प्रदायिकता का नाम देते हैं पर यह सच है कि हिन्दू धर्म के ये सच्चे ज्ञाता ही समरसता को व्यावहारिक रूप से अपनाने का प्रयास कर रहे हैं ।क्योंकि वे देश को जाति धर्म के आधार पर बाँटते नही हैं ।
जवाब देंहटाएंसमरसता के विषय में संघ का नज़रिया हमेशा व्यापक और दीर्घकालीन रहा है. संघ की शाखा का आधार ही समरसता है, जहां उम्र, जाति, पड़ के आधार पर कोई उंच-नीच नहीं होती है. आज जरूरत है इस संघ-सन्देश को जन -जन तक पहुंचाने और हमारी असल ज़िंदगी में इसे आजमाने का. तो ही समाज मजबूत बनेगा. हालांकि इसमे कुछ धन्धेबाज़ दलितवादी,चर्च पोषित दलित चिन्तक और तथाकथित साम्यवाद-समाजवाद का नारा बुलंद करने वाले बल अडंगा लगाते रहते हैं. लेकिन..अंतत: समाज के विवेक के उन्नयन के साथ हम होंगे कामयाब, साथ-साथ.
जवाब देंहटाएंकितना कुछ है इस विषय पर कहने को ... करने को उससे भी कहीं ज़्यादा ... जटिल विषय है, बाकी फिर कभी ...
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