सा हित्य अकादमी सम्मान लौटाकर सुर्खियां बटोर रहे पूर्व ब्यूरोक्रेट अशोक वाजपेयी कहते हैं कि तर्क का उत्तर प्रतितर्क से दिया जा सकता है। लात तो गधे भी मारते हैं। सोशल मीडिया से लेकर साहित्यिक हलकों में लोग सवाल कर रहे हैं, जिस भाषा-शैली का उपयोग अशोक वाजपेयी कर रहे हैं, क्या उससे कहीं से भी प्रतीत होता कि वे कवि हैं? वाजपेयी जी की शब्दावली को समझने के लिए 'हंस' पत्रिका के संपादक रहे वामपंथी कथाकार राजेन्द्र यादव का कथन याद करना चाहिए। उन्होंने कहा था कि अशोक वाजपेयी अफसर हैं और उन्हें हरेक के बारे में यह कहने का अधिकार है कि वह निकम्मा है, मूर्ख और बेकार व्यक्ति है। निर्मल वर्मा की 80वीं सालगिरह पर एक कार्यक्रम आयोजित किया गया था। आलोचक डॉ. नामवर सिंह का उस मौके पर व्याख्यान हुआ। व्याख्यान का पोस्टमार्टम करते हुए वाजपेयी ने डॉ. सिंह के लिए बौद्धिक शिथिलता, दयनीय और नैतिक पतन जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हुए उन्हें गैर-ईमानदार भी कहा था। यहां ईमानदारी से तात्पर्य अपनी विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता से है, जिसका प्रकटीकरण आज साहित्यकारों का यह समूह कर रहा है। नामवर सिंह के संबोधन के लिए वाजपेयी छांट-छांटकर शब्द लाए थे। उनके शब्द चयन पर शुरू हुई बहस के संदर्भ में ही राजेन्द्र यादव ने उक्त टिप्पणी की थी। वैसे जिन उदय प्रकाश के नक्शे-कदम पर अशोक वाजपेयी ने साहित्यक अकादमी सम्मान लौटाकर वितंडावाद खड़ा किया है, एक बार उनके कथन को भी याद कर लेना चाहिए। उदय प्रकाश ने वाजपेयी को 'सत्ता का दलाल' कहा था। बहरहाल, इतनी बात इसलिए की है ताकि अशोक वाजपेयी के शब्दकोश के बारे में सब जान लें। यह भी जान लें कि साहित्य जगत में अशोक वाजपेयी को बतौर साहित्यकार कोई गंभीरता से नहीं लेता है। उन्होंने सत्ता की करीबी का लाभ उठाकर खुद को 'बड़े साहित्यकार' के रूप में स्थापित किया है। भले ही आपके खेमे का व्यवहार धर्मनिरपेक्ष न हो, प्रगतिशील होने के मायने भी नहीं पता हों, साहित्यकार का धर्म भी नहीं जानते हों, लेकिन यह खेमा इन सारे शब्दों पर पट्टा कराकर बैठ गया है। दूसरा पक्ष भले ही सभी धर्मों को समान नजरिए से देखने की बात कह रहा है, लेकिन ये उसे सांप्रदायिक ही कहते हैं। भगवा जैस शब्द को भी इस समूह ने गाली बना दिया है। खैर, छोडि़ए शब्दों के मायाजाल को। आपका शब्दकोश, आपको मुबारक। चलिए, आगे बढ़ते हैं।
अशोक वाजपेयी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी की विचारदृष्टि को बांझ और अनुर्वर बताया है। कहा है कि उनके पास उत्क्रष्ट विकल्प हैं ही नहीं। ऐसा कहकर वाजपेयी खुद को निक्रष्ट साबित करने का प्रयास कर रहे हैं क्या? शायद वे भूल गए कि इसी भारतीय जनता पार्टी की कृपा और संघ के समर्थन से उन्हें महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। आपने यह भी कहा कि भाजपा सरकारों ने संस्थाओं को नष्ट ही किया है। वर्धा का कुलपति नियुक्त करते समय शायद यह जिम्मेदारी आपको भी सौंपी गई थी। इसीलिए आप वर्धा से करीब 1100 किलोमीटर दूर दिल्ली में बैठकर कुलपति कार्यालय चलाते थे। भाजपा और संघ के पास उत्क्रष्ट विकल्प हो भी कैसे सकते हैं, अपन तो दूसरों को तुच्छ ही मानते हैं। राष्ट्रीय पुस्तक न्यास के अध्यक्ष बल्देव भाई शर्मा की योग्यता पर वाजपेयी ने प्रश्न चिह्न लगाया है। बल्देव भाई देश के शीर्ष समाचार पत्रों में संपादक रह चुके हैं। पत्रकारिता में बेदाग लम्बी पारी उन्होंने खेली है। अभी भी पत्रकारिता कर रहे हैं। इन शीर्ष समाचार पत्रों में दैनिक भास्कर, अमर उजाला, नेशनल दुनिया, स्वदेश शामिल हैं। 'पाञ्चजन्य' को मैंने जानबूझकर शामिल नहीं किया है, क्योंकि वह तो वाजपेयी के लिए 'रद्दी' से अधिक कुछ नहीं होगा। दीनानाथ बत्रा का जिक्र भी उन्होंने किया है। हम पहले ही कह चुके हैं कि वाजपेयी सरीखे अफसर किसी को भी खारिज कर सकते हैं। फिर भी उनकी जानकारी के लिए दीनानाथ बत्रा उस आदमी का नाम है, जिसने तर्कों के आधार पर वेण्डी डोनिगर के लुगदी साहित्य 'द हिन्दूज-एन आल्टरनेटिव हिस्ट्री' को वापस लेने के लिए पेंगुइन प्रकाशन को मजबूर कर दिया। वामपंथ और कांग्रेस द्वारा पोषित इतिहास लेखकों के 'कचरे' को भी उनके तर्कों के कारण एनसीईआरटी की किताबों से साफ करना पड़ा है।
बहरहाल, संघ और भाजपा की विचारधारा बांझ और अनुर्वर है और वाजपेयी की विचारधारा वीर प्रसूता? लेकिन, पहले ये तो बताइए कि आपकी विचारधारा है क्या? आप कांग्रेसी हैं क्या? महाराज, कांग्रेस के पास तो विचारधारा ही नहीं है। कांग्रेस तो अपना हित साधने के लिए प्रमुख संस्थाओं में वामपंथियों को ही बैठाती रही है। कांग्रेस की इंटलेक्चुअल लॉबिंग वामपंथी ही रहे हैं। यानी कांग्रेस किराए पर 'बौद्धिक' उधार लेती आई है। आपके पास तो अपना दिमाग है तो फिर आप जरूर समाजवादी होंगे? लेकिन, भाजपा और समाजवादी विचारधारा तो एक-दूसरे के काफी करीब रही हैं। आपातकाल का आंदोलन साथ लड़ा। लोकनायक जयप्रकाश नारायण आरएसएस और भाजपा दोनों की प्रशंसा किया करते थे। राममनोहर लोहिया और पंडित दीनदयाल उपाध्याय की आत्मीयता जग-जाहिर है। वाजपेयी जी आप लोकनायक से अधिक बड़े विचारक हैं क्या? अच्छा तो फिर आप वामपंथी होंगे? फिर तो आपको नैतिक अधिकार नहीं है कि सहिष्णुता का पाठ संघ और भाजपा को पढ़ाएं। पहले वामपंथ को सहिष्णुता का अर्थ ही समझा दीजिए। आपको पता होगा कि यहां प्रतितर्क के लिए स्थान नहीं है। विरोधियों को बुलेट से जवाब दिया जाता है। रूस से लेकर चीन तक वामपंथ का चेहरा निर्दोषों के खून से रंगा हुआ आपको दिखेगा। दुनिया में वामपंथ की लालक्रांति को क्या देखना? केरल और पश्चिम बंगाल के आंकड़े ही उठाकर देख लीजिए। पश्चिम बंगाल में तो स्वयं कम्युनिस्ट मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने विधानसभा में पूछे गए प्रश्न के उत्तर में स्वीकार किया था कि वामपंथियों के 30 साल के शासनकाल में 28 हजार लोगों की राजनीतिक हत्याएं हुईं। वाजपेयी तय करें कि उनकी विचारधारा कौन-सी है, फिर और बात हो सकेगी कि उनकी विचारधारा कितनी उत्क्रष्ट पैदावार करती है। फिलहाल तो यही माना जाए कि वाजपेयी उस लोटे की तरह हैं, जिसमें पेंदी ही नहीं है। जिधर माहौल दिखे, लुड़क लो। वरना, कैसे संभव होता कि सरकार किसी की भी रही लेकिन संस्कृति विभाग में शासन वाजपेयी का ही चलता रहा। अब कोई पूछ नहीं रहा तो विधवा विलाप कर रहे हैं। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के साथ उनके कैसे संबंध थे? इसकी चर्चा न ही करें तो बेहतर होगा।
अशोक वाजपेयी कहते हैं कि 'सम्मान लौटाने के पीछे दो चीजें थी। एक तो यह कि लोगों का ध्यान आकर्षित हो कि देश में सामाजिक समरसता, परस्पर संवाद, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आदि क्षेत्रों में क्या हो रहा है और उसके दूरगामी परिणाम क्या होने वाले हैं। इस तरह, एक तरफ तो सरकार को चेताना था और उससे ज्यादा लोगों को बताना था कि इस समय सावधानी और सतर्कता की आवश्यकता है। लेखक ऐसा कैसे कर सकते हैं? एक तो वे लिख कर सकते हैं, जो दूरगामी प्रोजेक्ट होता है। पहले भी लिखते रहे हैं और अभी भी लिख रहे हैं। सम्मान लौटाने जैसा कुछ नाटकीय भी करना आवश्यक है।' यानी आप इतना तो मानते ही हैं कि सम्मान वापसी अभियान 'नाटक-नौटंकी' है। लोगों ने 'चयनित दृष्टिकोण' वाले इस समूह को पढऩा-सुनना बंद कर दिया है। इसलिए लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए आप लोग साहित्य की प्रतिष्ठा को दांव पर लगाकर नाटक कर रहे हैं। लोगों ने आपको सुनना और पढऩा क्यों बंद किया है? आपको मालूम है। किसी लेख, नाटक, फिल्म, कहानी और कविता पर इन साहित्यकारों के नाम देखकर ही पाठक अनुमान लगा लेता है कि अंदर क्या लिखा होगा? आप सबके एक पक्षीय आलाप से विरक्ति हो गई है, पाठकों को। चर्चा में आने के लिए, लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए आप 'नौटंकी' कर रहे हैं, यही बात तो आपके विरोधी कह रहे हैं। हाँ, उनको यह नहीं कहना चाहिए कि साहित्यकारों का यह समूह आपातकाल में कहाँ गया था? जम्मू-कश्मीर में वर्षों से सब तरह की मार झेल रहे हिन्दुओं के दर्द से आपकी अंतरआत्मा क्यों नहीं जागती? श्रीराम के दर्शन करके लौट रहे मासूमों, महिलाओं, नौजवानों और बुजुर्गों को ट्रेन में जला देने का विरोध क्यों नहीं किया? आपको यह भी नहीं बताना चाहिए कि कर्नाटक और उत्तरप्रदेश की घटनाएं वहाँ की सरकारों की जिम्मेदारी है, केन्द्र सीधेतौर पर कैसे हस्तक्षेप कर सकता है। अगर केन्द्र सरकार ऐसा कर भी देती तो आप ही लोग संघीय ढांचे को नुकसान पहुंचाने का आरोप लगाकर चिल्ला-चौंट मचाते। उन्हें तो यह भी नहीं पूछना चाहिए कि वर्तमान समय में मुसलमानों की उन्मादी भीड़ हिन्दू युवकों की हत्या कर देती है, लेकिन आप सब खामोश रहते हैं? आप लोगों को इखलाक ही क्यों दिख रहा है, प्रशांत पुजारी क्यों नहीं? उन्हें पता नहीं कि ये तो आपका निजी फैसला है कि आप कब पुरस्कार वापस करें और कब चुप्पी साध लें। किसी की आह से भी आपकी अंतरआत्मा रोने लगे और किसी की चीख भी आपको सुनाई न दे। आप पर सवाल उठा रहे लोगों को क्या पता कि आखिर वैचारिक प्रतिबद्धता भी कोई चीज होती है। यही कारण है कि आप कलबुर्गी और इखलाक की घटना को सुनियोजित बता रहे हैं। आपातकाल और 1984 में सिख नरसंहार तो अनायास ही घट गए? हजारों व्यक्तियों की मौत के जिम्मेदार एंडरसन को आपके राजनीतिक संरक्षक अर्जुन सिंह ने ऐसे ही मजाक-मजाक में भगा दिया? बहरहाल, 1984 में भोपाल में हजारों लाशों के बीच अंतरराष्ट्रीय कवि सम्मेलन आयोजित कराने वाले अशोक वाजपेयी की संवेदनशीलता पर भी हम प्रश्न नहीं उठाएंगे।
अशोक वाजपेयी आरएसएस और भाजपा की जिस विचारधारा को बांझ और अनुर्वर बता रहे हैं, उसे इस दशहरे पर 90 बरस पूरे हो गए हैं। इतने लम्बे सफर में वह फली-फूली ही है। वामपंथ की तरह सिकुड़ी-सिमटी नहीं है। संघ आज दुनिया का सबसे बड़ा सांस्कृतिक संगठन है। सामाजिक समरसता के संघ के कामों की फेहरिस्त इतनी लम्बी है कि इस लेख में उसे शामिल नहीं किया जा सकता। जिस संघ को आप सब मिलकर बरसों से मुस्लिम विरोधी साबित करने का प्रयास कर रहे हैं, वह अब मुसलमानों के साथ भी संवाद कर रहा है। बड़ी संख्या में मुसलमान संघ के साथ खड़े हैं। आपसे यह किसने कह दिया कि संघ बहुलतावाद का विरोध करता है। बहुलतावाद को खत्म करना चाहता है। संघ तो विविधता और बहुलता को ही हिन्दू धर्म का वैशिष्ट्य बताता है। संघ की शाखाओं में भगवान राम द्वारा शबरी के झूठे बेर खाने की कथा कई बार सुनाई जाती है। शबरी कुंभ संघ की प्रेरणा से ही आयोजित होता है। आप बहस की बात करते हैं, आप जिस पाले में खड़े हैं, वहां के लोग राष्ट्रवादी विचारक के साथ मंच भी साझा करने की हिम्मत नहीं रखते। आपको याद होगा पत्रिका 'हंस' की ओर से आयोजित कार्यक्रम में वामपंथ की कटुता और असहिष्णुता का प्रकटीकरण। एकालाप करने वाली वामपंथी विचारधारा पर सवाल उठाते हुए साहित्यकार कमलकिशोर गोयनका कहते हैं- 'मैं 40 साल से वामपंथ से संवाद कायम करने की कोशिश कर रहा हूं, लेकिन वे संवाद के लिए तैयार ही नहीं होते हैं। इस विचारधारा के बुद्धिजीवी स्वयं को ही श्रेष्ठ विचार वाले बताते हैं।' इसलिए संघ और भाजपा से हिन्दुत्व पर बहस करने की बात तो आप छोड़ ही दीजिए। यदि आपको वास्तव में हिन्दुत्व और सहिष्णुता पर बहस करनी है तो आरएसएस के सह सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले से संपर्क कीजिए। होसबोले ने कहा है- 'संघ हमेशा संवाद के लिए तैयार है। संवाद से तो संघ विरोधी भाग रहे हैं।' फिलहाल, संघ के बारे में समझ बढ़ाने के लिए आपको अपने नजदीक की किसी शाखा में जाना शुरू कर देना चाहिए। जहाँ किसी की भी जाति पूछे बिना युवक, बच्चे और बुजुर्ग हाथ पकड़कर मण्डल बनाकर खेलते हुए नजर आते हैं।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी चुप हैं, इसलिए सम्मान वापसी अभियान चला रहे बुद्धिवादियों की तकलीफ बढ़ी हुई है। यह थोड़ा हास्यास्पद तर्क है। यदि प्रधानमंत्री संवाद कर रहे होते तब भी 'झूठों का यह समूह' बात का बतंगड़ बनाकर घूम रहा होता। क्योंकि, देश में तथाकथित बढ़ती असहिष्णुता पर इस समूह की अंतरआत्मा जाग उठी है, ऐसा कदापि नहीं है। यह तो नरेन्द्र मोदी और भाजपा को स्वीकार नहीं कर पाने की छटपटाहट है। झूठों का यह समूह 'बौद्धिक आतंकवाद' के जरिए मोदी, संघ और भाजपा की छवि खराब करना चाहता है। यही असली नौटंकी है। इस खेमे का नरेन्द्र मोदी और भाजपा से विरोध जगजाहिर है। इसीलिए इनके 'नैतिक आंदोलन' को संदिग्ध नजरों से देखा जा रहा है। क्या यह सच नहीं है कि आमचुनाव-2014 में अशोक वाजपेयी की देख-रेख में देश के वामपंथी लेखक, कलाकार, संस्कृतिकर्मियों ने नरेन्द्र मोदी और भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन एनडीए के खिलाफ वोट डालने की अपील की थी। तब जनता ने नहीं सुनी तो अब सम्मान लौटाकर मोदी सरकार को घेरने का षड्यंत्र रच रहे हैं। 'मोदी जीता तो काशी हार जाएगी।' नरेन्द्र मोदी के खिलाफ माहौल बनाने के लिए साहित्यकार काशीनाथ सिंह ने यह नहीं कहा था क्या? कई बुद्धिवादियों को तो 'तेजी से बढ़ते असहिष्णु वातावरण' का अहसास पहले ही हो गया था, तभी तो उन्होंने कहा था कि नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बना तो वे देश छोड़कर चले जाएंगे। प्रधानमंत्री की आवाज सुनने को बेचैन यह समूह राष्ट्रपति निवास जा सकता है, लेकिन प्रधानमंत्री के घर कौन जाए? प्रधानमंत्री की अटकी पड़े तो आए संवाद करे। अच्छा है कि आप लोग खुलकर सामने आ गए, वरना देश को आप सब लोगों की असलियत और आपके अब तक के लेखन का उद्देश्य समझाने में सरकार को थोड़ी दिक्कत होती। अब सब खुली किताब की तरह है।
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