रा ष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने सम्मान लौटा रहे तथाकथित बुद्धिजीवियों को नसीहत दी है। उन्होंने कहा है कि जिन लोगों को देश की तरफ से प्रतिष्ठित सम्मान/पुरस्कार मिलते हैं, उन्हें इन पुरस्कारों का सम्मान करना चाहिए। अपनी असहमति को बहस, तर्क और विमर्श के माध्यम से प्रकट किया जाना चाहिए। भावनाओं के साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहिए। राष्ट्रपति के बयान के बाद सम्मान लौटाने वाले लोगों के सामने बड़ी विकट स्थिति खड़ी हो गई है। पहले से ही उनके सम्मान वापसी अभियान का विरोध हो रहा था। अनुपम खेर, नरेन्द्र कोहली, सूर्यकांत बाली, मधुर भंडारकर सहित अनेक हस्तियां सम्मान वापस करने वाले लोगों के चयनित दृष्टिकोण और चयनित विरोध के खिलाफ प्रदर्शन कर चुकी हैं। सम्मान वापसी अभियान के प्रत्युत्तर में किताब वापसी अभियान भी पाठकों ने चला रखा है। किताब वापसी अभियान में पाठक सम्मान लौटाने वाले साहित्यकारों की पुस्तकें उनके घर जाकर वापस कर रहे हैं। अब राष्ट्रपति की टिप्पणी ने सम्मान लौटाकर विरोध करने के तरीके पर सबसे बड़ा प्रश्न चिह्न खड़ा कर दिया है।
अचानक बढ़ती कथित असहिष्णुता का ढोल पीटकर सम्मान/पुरस्कार लौटाने वाले साहित्यकार, फिल्मकार, कलाकार और इतिहासकार अब राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की बात सुनेंगे क्या? यह प्रश्न इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि जब राष्ट्रपति ने असहिष्णुता पर कठोर टिप्पणी की थी तब सम्मान वापसी में लगा 'समूह' इसे अपना नैतिक समर्थन मान रहा था। राष्ट्रपति के कथनों की दुहाई देकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को असहिष्णुता के मसले पर टिप्पणी करने के लिए विवश करने का प्रयास कर रहा था। हालांकि प्रधानमंत्री ने अपनी बात रखी भी थी, लेकिन चटपटी तरकारी बनाने लायक मसाला उसमें इन लोगों नहीं मिल पाया था इसलिए वे बार-बार प्रधानमंत्री को उकसाने का प्रयास करते रहे। खैर, बिहार चुनाव के बाद यह अभियान लगभग ठंडा पड़ गया।
सम्मान वापसी अभियान के प्रोपेगंडा से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश की छवि को काफी नुकसान हुआ है। इसलिए राष्ट्रपति की टिप्पणी को इस तरह से भी देखा जा रहा है- 'बहुत देर कर दी मेहरबां आते-आते'। राष्ट्रपति जब छह-छह दफा सहिष्णुता पर टिप्पणी कर रहे थे तब ही उन्हें इन साहित्यकारों, कलाकारों आदि को नसीहत दे देनी चाहिए थी। आम समाज को पूरा यकीन है तब आपकी दुहाई देने वाले चयनित मानसिकता के ये लोग आपकी भी नहीं सुनते। अब भी सुनेंगे या नहीं, यह तो आने वाला कल बताएगा। फिलहाल तो सम्मान लौटाने वाले लोगों और उनके समर्थकों के सामने मतिभ्रम की स्थिति उत्पन्न हो गई है। वे समझ नहीं पा रहे कि राष्ट्रपति की टिप्पणी को किस तरह लिया जाए।
बहरहाल, सम्मान लौटाने वाले लोगों को अपने गिरेबां में झांककर देखना चाहिए कि उनकी नैतिकता कितने नीचे खिसक गई है। कुछ लोगों ने सम्मान लौटाकर जो माहौल बनाया था, उससे भाजपा और नरेन्द्र मोदी के खिलाफ वातावरण बना हो या न बना हो लेकिन उससे भारत की छवि को कितना नुकसान हुआ, साहित्य को कितनी क्षति हुई और उनकी खुद की प्रतिष्ठा कितनी रह गई है, इस बारे में उन्हें सोचना चाहिए। सम्मान लौटाने वालों को समझना होगा कि राष्ट्रपति की टिप्पणी कड़वी दवा की तरह है, जिसे थूकने की जगह पी लेना ज्यादा हितकर होगा।
'बहुत देर कर दी मेहरबां आते-आते.....बहुत सही ...
जवाब देंहटाएंआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन आतंकवाद और हमारी एकजुटता - ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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