दि ल्ली की घटना ने हर किसी का दिल दहला दिया है। मामूली बात पर किस तरह भीड़ ने एक इंसान की जान ले ली। जैसे भीड़ में शामिल बड़ों और छोटों, सब पर हैवानियत उतर आई थी। किसी के भीतर का इंसान नहीं जागा। आश्चर्यजनक! एक माँ का भी कलेजा नहीं कांपा। कैसे वह मासूम बच्चे के सामने उसके पिता को पीटने के लिए अपने बेटे को उकसा रही थी। आखिर डॉक्टर पंकज नारंग की गलती क्या थी? उसने ऐसा क्या कर दिया था कि अपनी जान गंवानी पड़ी? इस तरह के कुछ सवाल हैं, जो हर उस आदमी को झकझोर रहे हैं, जिस तक यह खबर पहुंच रही है। बांग्लादेश पर भारत की शानदार जीत की खुशी में देश की राजधानी में अपने घर के सामने पिता-पुत्र क्रिकेट खेल रहे थे। बॉल सड़क पर चली जाती है। आठ साल का बच्चा बॉल ढूंढऩे के लिए सड़क पर पहुंचता है। एक ओर से सनसनाती हुई बाइक आती है। बच्चा दुर्घटना होने से बाल-बाल बचता है। यह देख पिता का बौखलाना स्वाभाविक था। उसने बाइक सवार युवक नासिर को फटकार लगाई। दोनों के बीच कहा-सुनी हो गई। आखिर डॉक्टर ने ही बड़प्पन दिखाते हुए माफी माँगी और विवाद खत्म करने को कहा। लेकिन, नासिर अपने घर गया और 25-30 लोगों की भीड़ के साथ लौटा। भीड़ के इरादे नेक नहीं थे। उसने डॉ. पंकज नारंग को उनके घर से खींचकर बाहर निकाला और बेरहमी से सबके सामने पीट-पीटकर मार डाला। मदद के लिए आए पंकज के रिश्तेदार को भी अधमरा कर दिया।
इस घटना से अनेक सवाल उपजे हैं। सभ्य समाज की रचना के लिए उन सवालों के जवाब खोजना आज की अनिवार्यता हो गई है। क्योंकि यह पहली और आखिरी वहशी भीड़ नहीं है। लोगों में बढ़ रहे मनोरोग का इलाज नहीं किया गया तब संकट और गहरा सकता है। आखिर यह गुस्सा किसलिए है? आखिर एक-दूसरे के लिए इतनी नफरत हम कहाँ से ला रहे हैं? बड़ा सवाल है कि हम किस तरफ जा रहे हैं? अपने आसपास किस तरह का समाज रच रहे हैं। हमारी संवेदनाएं कहाँ चली गई हैं? जब डॉक्टर को पीटा जा रहा था तब किसी दरवाजे, खिड़की और कनात के पीछे से साहस निकलकर भीड़ को ललकारने सामने नहीं आया। सब कायरों की तरह देखते रहे। माना कि वहशी भीड़ का सामना करने का साहस नहीं जुटा सके होंगे, लेकिन क्या पुलिस थाने के टेलीफोनों की घंटियां भी नहीं घनघना सके? हम यह क्यों भूल जाते हैं कि जो आग आज पड़ोसी को जला रही है, उसकी लपटें कल हमारे घर भी दस्तक देंगी। तब हमें कौन बचाएगा? क्या सरकार और पुलिस प्रशासन के हाथों सबकुछ छोड़ देना ठीक है? हम क्यों नहीं समाजकंटकों का मुकाबला कर सकते? सभ्य समाज की रचना की जिम्मेदारी आखिर किसके हाथों में है? सबसे पहली पाठशाला तो घर है और गुरु हैं माता-पिता। लेकिन, नासिर की माँ मयस्सर अपने बेटे को क्या सिखा रही थी? जब माँ ही अपने बच्चे को अपराध के लिए प्रेरित कर रही हो तब किससे अपेक्षा की जाए? मयस्सर ने अपने बेटे के हाथ थाम लिए होते तो डॉ. पंकज जिंदा होते, आठ साल का मासूम अनाथ नहीं होता, एक औरत विधवा नहीं होती, एक घर उजडऩे से बच जाता।
सवाल उन नेताओं से भी है जो दिल्ली से सैकड़ों किलोमीटर दूर हैदराबाद और दादरी में होने वाली मौत पर दौड़े-दौड़े जाते हैं लेकिन डॉक्टर पंकज के घरवालों को हौसला देने नहीं पहुंचते। संवेदना के दो बोल भी उनके मुंह से नहीं फूटे, क्यों? क्या इसलिए कि डॉ. पंकज वोटबैंक नहीं है? क्या इसलिए कि पंकज की लाश से उनकी राजनीति को कोई फायदा नहीं पहुंचता, जो दिल्ली की जनता को वैकल्पिक राजनीति का भरोसा देकर आए थे। हालात यह हैं कि महाशय आपकी राजनीति चलताऊ राजनीति से भी नीचे गिर चुकी है। डॉ. पंकज की हत्या को सांप्रदायिक रंग देकर हत्या के पीछे की मानसिकता को कम करके आंकने का खतरा है। सांप्रदायिक रंग देने से समाज में जो मनोविकार पनप रहे हैं, हिन्दू-मुस्लिम की बहस में छिप जाएंगे। इसलिए इस घटना को सांप्रदायिक हिंसा नहीं ही माना जाना चाहिए। लेकिन, एक सवाल यह भी बनता ही है कि यदि मरने वाला नासिर होता और मारने वाला डॉ. नारंग होता, तब भी क्या इस हत्याकाण्ड को इतने हल्के से लिया जाता? क्या तब बिलों में साँस थामकर बैठे नेता राजनीतिक रोटियाँ सेंकने बाहर नहीं निकलते? क्या तब इस हत्याकाण्ड को 'अल्पसंख्यकों पर खतरा' बताकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ इस्तेमाल नहीं किया जाता, जैसा कि पहले इसी तरह की घटनाओं में किया गया। जो लोग आज इस घटना को सांप्रदायिक रंग नहीं देने का आग्रह कर रहे हैं, क्या तब भी उनका यही आग्रह बरकरार रहता? इसमें कोई दोराय नहीं कि घटनाओं को सांप्रदायिक रंग देकर उन्हें और बिगाडऩे से हमें बचना चाहिए। लेकिन, इस तरह की सोच हमें अन्य घटनाओं में भी रखनी होगी। क्योंकि भीड़ की कोई जाति और मजबह नहीं होता। हम अपनी सुविधा के अनुसार भीड़ में सांप्रदायिकता नहीं देख सकते।
हम जानते हैं कि भीड़ का अपना मनोविज्ञान है। भीड़ में वे लोग भी अधिक हिंसक हो जाते हैं, जो अकेले में एक चूहा भी नहीं मार सकते। भीड़ में बुद्धि और विवेक काम नहीं करता है, बल्कि आवेग का उफान मारता है। भीड़ उसी तरह व्यवहार करती है, जैसा उसका नेतृत्व है। यदि भीड़ का नेतृत्व रचनात्मक हाथों में है तो उससे सृजनात्मक कार्य कराए जा सकते हैं और यदि नेतृत्व बीमार मानसिकता के हाथ में है तो विध्वंस सुनिश्चित है। जैसा कि डॉ. पंकज नारंग के मामले में हुआ। जो विवाद डॉक्टर के माफी मांगने पर ही खत्म हो जाना चाहिए था, वह एक व्यक्ति की हत्या पर जाकर रुका। यदि दो-चार लोग किसी को मारना-पीटना शुरू कर देते हैं तब पूरी भीड़ उस व्यक्ति पर टूट पड़ती है। यदि भीड़ को और उकसाया जाए तब वह हिंसा के चरम पर पहुंचने का भरसक प्रयास करती है। इस समय मानवीयता बची नहीं रहती है। नासिर और उसकी माँ ने यही तो किया, भीड़ को उकसाया। आक्रोश में अंधी भीड़ यह भी नहीं देख पाती है कि वह जिसे पीट रहे हैं, वह आदमी है, औरत है या फिर बच्चा। जवान है या बूढ़ा। पिटने वाले का दर्द, आँसू और पीड़ा भी भीड़ को दिखाई नहीं देती है। भीड़ पूरी तरह अमानवीय रुख अख्तियार कर लेती है। भीड़ यह भी नहीं देखती कि पिटने वाला दोषी है या निर्दोष। भीड़ अफवाहों से और अधिक हिंसक हो उठती है। इसलिए किसी एक भीड़ को सांप्रदायिक कहना और दूसरी भीड़ को सांप्रदायिक नहीं मानना, यह नजरिया ठीक नहीं है।
हृदय विदारक इस घटना पर मीडिया का रुख भी बेहद चौकाने वाला है। निर्मम हत्याकाण्ड को मीडिया महज रोडरेज की घटना बता रहा है। जबकि यह रोडरेज की सामान्य घटना नहीं है। यह साफतौर पर घर में घुसकर हत्या कर सभ्य समाज को डराने वाला घटनाक्रम है। यह हमारे समाज और सरकारों के लिए चेतावनी है। चेतावनी यह है कि संभलिए, समय रहते इस भीड़तंत्र पर काबू पाइए। इस भीड़ से देश को बचाइए। यह भीड़ आए दिन किसी न किसी की हत्या कर रही है। कानून व्यवस्था के लिए भी चुनौती है कि डॉक्टर की हत्या के दोषी सस्ते में नहीं छूटने चाहिए। अपराधियों को बिना किसी भेदभाव के कठोर सजा मिलनी चाहिए। कानून का जोर दिखाइए। कानून का भय कम हो रहा है। बताइए कि कानून से ऊपर कोई नहीं है। इसके साथ ही समाजकंटकों से निपटने के लिए समाज की सज्जनशक्ति को संगठित होना ही होगा। देश में बढ़ रही हिंसा और अराजकता के खिलाफ मिलकर आवाज उठानी होगी। अपराधियों के खिलाफ इस तरह खामोश रह जाने से उनका हौसला बढ़ता है। यह गीदड़ों की भीड़ है, इसे जरा जोर से ललकार दिया जाए तो दुम दबाकर भाग खड़ी होगी। हम यांत्रिक युग में जी रहे हैं। इसलिए समय-समय पर अपने भीतर झांककर देखना होगा कि कहीं हमारी संवेदनाएं मर तो नहीं रहीं। अपनी संवेदनाओं को स्वयं ही जिंदा रखना होगा। यह भी महत्त्वपूर्ण है कि हम अपने संस्कारों को टटोलें। लोगों के बढ़ रहा गुस्सा और मनोविकार संस्कारों की कमी के कारण भी है। अपने संस्कारों को याद करने और उन्हें अपने बच्चों में हस्तांतरित करने की भी जरूरत है। संस्कार हमें अनुशासित, विनम्र और सहिष्णु बताते हैं। हमें भयमुक्त और स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए आगे आना ही पड़ेगा। वरना यह पशुता एक दिन इंसानियत को निगल लेगी।
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन अंतिम सत्य की तलाश में - ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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