मंगलवार, 14 अप्रैल 2020

बाबासाहब की पत्रकारिता : ‘मूक’ समाज को आवाज देकर बने ‘नायक’


- लोकेन्द्र सिंह 
भारतीय संविधान के शिल्पकार डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर ने समाज में व्याप्त जातिभेद, ऊंच-नीच और छुआछूत को समाप्त कर समता और बंधुत्व का भाव लाने के लिए अपना जीवन लगा दिया। वंचितों, शोषितों एवं महिलाओं को उनके अधिकार दिलाने के लिए बाबासाहब अलग-अलग स्तर पर जागरूकता आंदोलन चला रहे थे। उन्होंने अनुभव किया कि उस समय प्रकाशित समाचार-पत्र दलितों की आवाज को स्थान नहीं दे रहे थे। उनके दु:ख, पीड़ा और उन पर होने वाले अन्याय को उचित एवं प्रभावी ढंग से उस वर्ग द्वारा प्रकाशित समाचार-पत्रों में भी जगह नहीं मिल रही थी। यह बात बाबासाहब भली प्रकार समझ चुके थे कि दीर्घकाल तक चलने वाली सामाजिक क्रांति की सफलता के लिए एक प्रभावी समाचार-पत्र का होना आवश्यक है। पत्रकारिता की आवश्यकता और प्रभाव को रेखांकित करते हुए उन्होंने कहा भी था- “जैसे पंख के बिना पक्षी होता है, वैसे ही समाचार-पत्र के बिना आंदोलन होते हैं।” मानवतावादी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने पत्रकारिता को अपना साधन बनाने का निश्चय किया और 1920 में ‘मूकनायक’ के प्रकाशन के साथ बाबासाहब ने पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश किया। उनकी पत्रकारिता का दायरा दलितों तक सीमित नहीं था। बल्कि वे समाचार-पत्र के माध्यम से हिंदू समाज के सभी वर्गों का प्रबोधन करना चाहते थे। समतापूर्ण समाज का निर्माण करने के लिए दलित वर्ग में आत्मविश्वास जगाना आवश्यक था और सवर्ण समाज को आईना दिखाकर उनको यह समझाना कि मनुष्य के साथ भेद करने का कोई तर्क नहीं। सब बराबर हैं। यह कार्य करने के लिए उस समय पत्रकारिता ही एकमात्र माध्यम थी। बाबासाहब ने चार समाचार-पत्रों का प्रकाशन किया- मूकनायक, बहिष्कृत भारत, जनता और प्रबुद्ध भारत। बाबासाहब की पत्रकारिता को हम संक्षेप में मूकनायक से प्रारंभ कर प्रबुद्ध भारत तक जाकर समझने की कोशिश करेंगे। 

          समाज को विषमता से समता की ओर ले जाने के इस महान लक्ष्य की पूर्ति के लिए समाचार-पत्र प्रकाशन के कार्य में राजर्षि शाहूजी महाराज ने उनका सहयोग किया। शाहूजी महाराज स्वयं भी समाज से भेद-भाव को समाप्त करने और दलितों एवं महिलाओं में शिक्षा के प्रसार के प्रयत्न में लगे हुए थे। सन् 1919 में बाबासाहब और शाहूजी महाराज की प्रयत्क्ष भेंट हुई। महाराज ने ही उन्हें समाचार-पत्र प्रकाशित करने के लिए प्रेरित किया। इसके लिए उन्होंने बाबासाहब को 2500 रुपये की आर्थिक सहायता भी दी। आखिरकार 31 जनवरी, 1920 को ‘मूकनायक’ का पहला अंक प्रकाशित होकर आया। सूर्यनारायण रणसुभे अपनी पुस्तक ‘पत्रकारिता के युग निर्माता : भीमराव अंबेडकर’ में लिखते हैं- “जाने-अनजाने डॉ. बाबा साहेब ने इसी दिन से दीन-दलित, शोषित और हजारों वर्षों से उपेक्षित मूक जनता के नायकत्व को स्वीकार किया।” मूकनायक के प्रकाशन के समय बाबासाहब की आयु मात्र 29 वर्ष थी। वे तीन वर्ष पूर्व ही यानी 1917 में अमेरिका से उच्च शिक्षा ग्रहण कर लौटे थे। यहाँ एक प्रश्न उपस्थित होता है कि एक उच्च शिक्षित युवक ने अपना समाचार-पत्र मराठी भाषा में क्यों प्रकाशित किया? वह अंग्रेजी भाषा में भी समाचार-पत्र का प्रकाशन कर सकते थे। ऐसा करके वह कुलीनों के मध्य प्रसिद्ध पा सकते थे और अंग्रेज सरकार के सामने दलितों की स्थिति प्रभावी ढंग से रख सकते थे। इन प्रश्नों के उत्तर ढूंढते समय हमें ध्यान आता है कि दरअसल उन्होंने ‘मूकनायक’ का प्रकाशन वर्षों के शोषण और हीनभावना की ग्रंथि से ग्रसित दलित समाज के आत्म-गौरव को जगाने के लिए किया था। जो समाज शिक्षा से दूर था, जिसके लिए अपनी मातृभाषा मराठी में लिखा हुआ भी पढऩा कठिन था, भला ‘अंग्रेजी मूकनायक’ उनके मध्य जाकर क्या जाग्रति लाता? 


          मूकनायक के प्रकाशन एवं संपादन की संपूर्ण जिम्मेदारी बाबासाहब के कंधों पर थी, किंतु वे इसके घोषित संपादक नहीं थे। उन दिनों बाबासाहब सिडनेहॅम कॉलेज, मुंबई में प्राध्यापक थे। शासकीय सेवा में होने के कारण वे मूकनायक के संपादक नहीं हो सकते थे। इसलिए उन्होंने दलित समाज के ही पढ़े-लिखे युवक पांडुरंग नंदराम भटकर को घोषित संपादक बनाया। प्रिंटलाइन में संपादक के तौर पर भटकर का नाम प्रकाशित होता था। परंतु, समाचार-पत्र में प्रकाशित होने वाली सामग्री का चयन एवं संपादन बाबासाहब स्वयं करते थे। वे स्वयं भी मूकनायक के लिए खूब लिखते थे। मूकनायक में बाबासाहब ने 14 आलेख लिखे। पहले ही अंक में वे लिखते हैं- ‘हमारे इन बहिष्कृत लोगों पर हो रहे तथा भविष्य में होने वाले अन्याय पर उपाय सुझाने हेतु तथा भविष्य में इनकी होने वाली उन्नति के लिए जरूरी मार्गों पर चर्चा हो इसके लिए पत्रिका के अलावा और कोई दूसरी जमीन नहीं है।’ इसी तरह पत्रकारिता के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए डॉ. अंबेडकर ने लिखा है- ‘सारी जातियों का कल्याण हो सके, ऐसी सर्वसमावेशक भूमिका समाचार-पत्रों को लेनी चाहिए। यदि वे यह भूमिका नहीं लेते हैं, तो सबका अहित होगा।’ समाचार-पत्र स्वतंत्र भारत में समय के साथ अपनी इस भूमिका से दूर होते गए हैं। आज पत्रकारिता के ज्यादातर संस्थानों पर वंचितों की आवाज होने का गौरव-तिलक नहीं लगा है, बल्कि कॉरपोरेट हितैषी होने का ठप्पा लगा है। वर्तमान समाज में कहीं अवनति दिखाई देती है, तो उसके लिए आज की पत्रकारिता भी कहीं न कहीं दोषी है। पत्रकारिता का दायित्व है समाज के प्रबोधन का, उसके शिक्षण का। बाबासाहब ने तो स्पष्ट तौर पर कहा कि भावी उन्नति एवं उसके मार्गों के वास्तविक स्वरूपों की चर्चा होने के लिए समाचार-पत्र जितना महत्व अन्य किसी का नहीं है। यानी समाचार-पत्र समाज की उन्नति के मूल में हैं। भारत की स्वतंत्रता से पूर्व समाचार-पत्रों की भूमिका इस बात को सिद्ध भी करती है कि कैसे पत्रकारिता सोते हुए समाज को जगाने का सामर्थ्य रखती है। मूकनायक के प्रकाशन की घटना का यह शताब्दी वर्ष है। इसलिए यह प्रासंगिक होगा कि हम मूकनायक में पत्रकारिता के उन मूल्यों एवं उत्तरदायित्व को टटोलें, जो बाबासाहब ने बताए थे।   


          आज संविधान से हमें जो नागरिक अधिकार प्राप्त हैं, उसकी एक भूमिका 1920 में ही मूकनायक के तीसरे अंक में बाबासाहब ने रख दी थी। ‘यह स्वराज्य नहीं, हम पर राज्य है’ शीर्षक से लंबे आलेख में उन्होंने लिखा- किसी भी व्यक्ति को हम तभी नागरिक कह सकते हैं, जब उसे न्यूनतम अधिकार प्राप्त हों। ये अधिकार (1) व्यक्तिगत स्वातंत्र्य, (2) व्यक्तिगत सुरक्षितता, (3) व्यक्तिगत संपत्ति रखने का अधिकार, (4) कानून की दृष्टि में समानता, (5) सद् बुद्धि के अनुसार आचरण करने की स्वतंत्रता, (6) भाषण स्वातंत्र्य, मत स्वातंत्र्य, (7) सभा लेने का अधिकार, (8) देश के राज कारोबार हेतु प्रतिनिधि भिजवा देने का अधिकार एवं (9) सरकारी नौकरी प्राप्त करने का अधिकार। स्पष्ट है कि बाबासाहब प्रत्येक नागरिक के आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्वतंत्रता के पक्षधर थे। मूकनायक में सामाजिक-राजनैतिक विमर्श को दिशा देने वाली सामग्री के साथ ही ऐसे समाचार भी प्रकाशित होते थे, जिनका संबंध बहुजन समाज के हित से होता था। समसामयिक घटनाओं को लेकर प्रतिक्रियाएं भी प्रकाशित की जाती थीं।


          मूकनायक ने न केवल दलित वर्ग में स्वतंत्र चेतना का संचार किया, बल्कि अमानवीय व्यवहार के प्रति सवर्ण समाज का ध्यान भी आकर्षित किया। किंतु, यह ऊर्जावान समाचार-पत्र अधिक समय तक जीवित नहीं रह सका। इसके बंद होने के पीछे आर्थिक कारण तो थे ही, किंतु समाचार-पत्र के प्रकाशन के लिए जो लगन चाहिए थी, डॉ. अंबेडकर के इंग्लैंड जाने से उसका भी अभाव हो गया था। बाबासाहब उच्च शिक्षा के लिए 5 जुलाई, 1920 को इंग्लैड चले गए थे। 31 जुलाई, 1920 को मूकनायक का घोषित संपादक ज्ञानदेव ध्रुवनाथ घोपल को बना दिया गया था। घोपल ने बहुत प्रयास किए, लेकिन वे मूकनायक के तेज को संभाल नहीं सके। अंतत: सन् 1923 में मूकनायक का प्रकाशन बंद हो गया। मूकनायक के अंत को देखकर बाबासाहब बहुत व्यथित हुए थे।  


          बाबासाहब अंबेडकर इंग्लैंड से लौटने के बाद फिर से सामाजिक क्रांति में जुट गए। 1924 में उन्होंने ‘बहिष्कृत हितकारिणी सभा’ की स्थापना की और अछूतों के आंदोलन को आगे बढ़ाने के अपने संकल्प की सिद्धि में लग गए। बाबासाहब ने 20 मार्च, 1927 को महाड़ के चवदार तालाब का प्रसिद्ध सत्याग्रह किया। तत्कालीन समाचार-पत्रों में इस सत्याग्रह के समर्थन और विरोध में समाचार प्रकाशित होने लगे। विरोध में प्रकाशित समाचार अतार्किक थे। बाबासाहब उनका उत्तर देना चाहते थे। इसके लिए उन्हें एक स्वतंत्र समाचार-पत्र की आवश्यकता महसूस हो रही थी। 3 अप्रैल, 1927 को बाबा साहब ने अपने दूसरे साप्ताहिक ‘बहिष्कृत भारत’ का प्रकाशन प्रारंभ कर दिया। इस समाचार-पत्र में चवदार तालाब सत्याग्रह के संबंध में भरपूर लेखन किया गया। ‘बहिष्कृत भारत’ को बाबासाहब के आंदोलन का मुखपत्र होने का गौरव प्राप्त हुआ। ‘बहिष्कृत भारत’ को प्रकाशित करने का जब निर्णय हुआ, तब डॉ. अंबेडकर ने सब प्रकार से परिश्रम किया। समाचार-पत्र के दीर्घकाल तक संचालन के लिए आर्थिक पक्ष की चिंता भी की और पाठकों के बौद्धिक हेतु श्रेष्ठ सामग्री की योजना भी बनाई। बहिष्कृत भारत को शुरू करने से पूर्व उन्होंने आर्थिक सहायता प्राप्त करने के लिए ‘बहिष्कृत फंड’ में दान देने हेतु लोगों से आह्वान किया। किंतु, इसमें उन्हें वांछित सफलता प्राप्त नहीं हुई। एक वर्ष में ही इस समाचार-पत्र पर 500 रुपये का कर्ज हो गया। बाबासाहब के लिए अर्थाभाव में बहिष्कृत भारत का प्रकाशन कठिन होने लगा था। समाचार-पत्र समय पर प्रकाशित नहीं हो पाता था, जिसके कारण पाठकों की शिकायतें प्राप्त होतीं। कई बार संयुक्तांक भी प्रकाशित करने पड़े। अंतत: 15 नवंबर, 1929 को बहिष्कृत भारत का अंतिम अंक पाठकों के हाथ में पहुँचा। इस समाचार पत्र के बंद होने पर भी बाबासाहब ने दु:ख व्यक्त किया और अंतिम अंक में ‘बहिष्कृत भारताचे ऋण हे लौकिक ऋण नव्हे काय?’ अर्थात ‘बहिष्कृत भारत का ऋण लौकिक ऋण नहीं है क्या?’ शीर्षक से लंबा लेख लिखा। यह समाचार-पत्र भी मराठी भाषा में प्रकाशित होता था। अपने इस पत्र के माध्यम से बाबासाहब ने दलित वर्ग के सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक उत्थान के विचार प्रस्तुत किए। यह पत्र अपनी स्पष्टवादिता और तेजतर्रार लेखन के लिए प्रसिद्ध रहा। बाबा साहब जाति-भेद समाप्त करने के लिए अंतरजातीय विवाह के पक्षधर थे। वे अंतरजातीय विवाह करने वाले दंपतियों की सूचना बहिष्कृत भारत में न केवल प्रकाशित करते, बल्कि उनका अभिनंदन भी करते थे।

          मूकनायक और बहिष्कृत भारत के अल्पायु में ही बंद होने के बाद बाबासाहब ने अपना तीसरा पत्र 24 नवंबर, 1930 को ‘जनता’ के नाम से प्रकाशित किया। यह पत्र लंबे समय तक प्रकाशित होता रहा। बाद में इसी समाचार-पत्र का नाम बदलकर ‘प्रबुद्ध भारत’ रख दिया गया। जनता के संपादक बाबा साहब नहीं थे। हालाँकि, समाचार-पत्र के मत्थे पर यह प्रकाशित किया जाता था कि डॉ. भीमराव अंबेडकर एमए, पीएचडी, डीएससी, बार एट लॉ के नेतृत्व में निकलने वाला जनहित प्रवर्तक पाक्षिक पत्र ‘जनता’ है। ‘जनता’ शीर्षक के नीचे अंग्रेजी में ‘द पीपुल’ लिखा जाता था। कुछ अंकों के बाद मुखपृष्ठ पर शीर्षक के नीचे यह घोष वाक्य लिखा जाने लगा कि- ‘गुलामों को उसकी गुलामी का अहसास करा दो तो वह विद्रोह करेगा।’ बहरहाल, जनता के संपादक के रूप में जन्म से ब्राह्मण देवराव विष्णु नाईक की नियुक्ति की गई। नाईक भी समाज से भेद-भाव और छुआछूत को समाप्त करने के लिए आंदोलन में सक्रिय थे। पाठकों की माँग रहती थी कि डॉ. अंबेडकर ‘जनता’ के लिए नियमित लिखें। लेकिन, बाबा साहब की व्यस्तता बढऩे के कारण यह संभव नहीं हो पाता। हालाँकि, जनता में नियमित नहीं लिख पाने की छटपटाहट उनमें भी रहती थी। इस बीच बाबा साहब को एक बार फिर अध्ययन हेतु इंग्लैंड जाना पड़ गया। लेकिन, इस बार समाचार-पत्र पर कोई संकट नहीं आया। यह प्रकाशित होता रहा। समाज के प्रबोधन के लिए समाचार-पत्र का क्या महत्व है, इसको समझाने के लिए बाबा साहब ने लंदन से ही ‘जनता’ के पाठकों के लिए पत्र लिखा – “अपने स्वावलंबन तथा भविष्य के राजनीतिक अधिकारों के लिए इस पत्रिका को बनाए रखना, इसे समृद्ध और संपन्न बनाना हमारी जिम्मेदारी है। आज भले ही ‘जनता’ पत्र का महत्व आप समझ नहीं पा रहे हो, तो भी उसका सही अहसास निकट भविष्य में होगा।” 
          अपवाद छोड़ दें तो ‘जनता’ साप्ताहित निरंतर एवं अखंड रूप से 25 वर्षों तक प्रकाशित होता रहा। जनता में बाबा साहब ने विविधतापूर्ण लेखन किया है। लंदन से लिखे गए पाठकों के नाम पत्र तो महत्वपूर्ण दस्तावेज हैं ही, अन्य लेख एवं प्रकाशित भाषण भी महत्वपूर्ण हैं। बाबा साहब के जो सात महत्वपूर्ण भाषण हैं, उन्हें भी जनता में प्रकाशित किया गया था। दलितों के प्रति सवर्णों के अमानवीय व्यवहार को लेकर डॉ. अंबेडकर ने बहुत ही कठोर भाषा में लिखा है। लेकिन, उनके तर्कों को काटने में सक्षम तर्क किसी और के पास नहीं थे। बाबा साहब ने अपने इन सभी लेखों में भाषा की मर्यादा पर पूर्ण ध्यान दिया है। उनके लेखन की भाषा असंतुलित कभी नहीं हुई। दरअसल, वे किसी के विरोध में अपनी लेखनी नहीं चला रहे थे, बल्कि विशुद्ध रूप से मानवता के हित में अपने पत्रकारीय और लेखकीय कर्तव्य का निर्वहन कर रहे थे। उनके मन में किसी के प्रति ईर्ष्या या वैर नहीं था। अपने विरोधी विचार के प्रति भी बाबा साहब का हृदय कितना विशाल है, उसे एक घटना के माध्यम से भली प्रकार समझा जा सकता है। हैदराबाद रियासत के एक दलित युवक ने बाबा साहब का विरोध करते हुए आरोप लगाया कि वे सिर्फ एक जाति (महार) के नेता हैं और उस जाति के लोग अन्य दलित जातियों के प्रति शत्रुवत व्यवहार करते हैं। वह चाहते तो इस पत्र का व्यक्तिगत उत्तर दे सकते थे या फिर नजरअंदाज कर सकते थे। किंतु, बाबा साहब ने उस युवक के पत्र को ‘जनता’ में 14 जून, 1941 में प्रकाशित किया। इस पत्र का विस्तृत उत्तर भी उन्होंने इसी अंक में लिखा। अपने विरोधी के पत्रों को, जिसमें उन पर गंभीर आरोप लगाए गए हैं, उन्हें अपने पाठकों तक सार्वजनिक रूप से पहुँचाने का साहस कोई विरला एवं विशाल हृदय का व्यक्ति ही कर सकता है। 
          ‘जनता’ पत्र का नाम 4 फरवरी, 1956 को बदल दिया गया। अब यह ‘प्रबुद्ध भारत’ नाम से निकलने लगा। इसे अखिल भारतीय रिपब्लिकन पार्टी का मुखपत्र घोषित कर दिया गया। अपने देहावसान तक, अर्थात 6 दिसंबर, 1956 तक ‘प्रबुद्ध भारत’ को नियमित प्रकाशित होते हुए बाबा साहब ने देखा। इसके कुछ अंकों में उन्होंने लेखन भी किया। सन् 1961 में यह समाचार पत्र बंद हो गया। ‘मूकनायक’ से लेकर ‘प्रबुद्ध भारत’ तक बाबा साहब की पत्रकारिता की यात्रा एक संकल्प को सिद्ध करने का वैचारिक आग्रह है। अपनी पत्रकारिता के माध्यम से उन्होंने दलितों एवं सवर्णों के मध्य बनी भेद-भाव, ऊंच-नीच और सामाजिक विषमता की खाई को पाटने का काम किया। उनकी पत्रकारिता में संपूर्ण समाज के लिए प्रबोधन है, उसे केवल दलित पत्रकारिता का सीमित कर देना अन्यायपूर्ण होगा। उनकी इस पत्रकारीय यात्रा में अनेक सवर्ण साथी उनके सहयात्री बने। उन्होंने समाचार-पत्रों का बाबा साहब की भावना के अनुरूप संपादन किया। 

          आज की पत्रकारिता को भी बाबा साहब जैसे संकल्पित पत्रकार-संपादक चाहिए, जो पत्रकारिता के सामाजिक महत्व को जानकर पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश करते हैं और आजन्म समाजोत्थान के लिए ही पत्रकारिता का उपयोग करते हैं। भारत की यशस्वी पत्रकारिता के लिए यह दु:ख की बात है कि आज उसके पास डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर जैसा कृत-संकल्पित पत्रकार नहीं है। इस संदर्भ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक दत्तोपन्त ठेंगड़ी ने अपनी पुस्तक ‘डॉ. अम्बेडकर और सामाजिक क्रान्ति की यात्रा’ में लिखा है – ‘भारतीय समाचार-पत्र जगत की उज्ज्वल परंपरा है। परंतु आज चिंता की बात यह है कि संपूर्ण समाज का सर्वांगीण विचार करनेवाला, सामाजिक उत्तरदायित्व को माननेवाला, लोकशिक्षण का माध्यम मानकर तथा एक व्रत के रूप में समाचार-पत्र का उपयोग करनेवाला डॉ. अम्बेडकर जैसा पत्रकार दुर्लभ हो रहा है।’ उक्त विचार ही बाबा साहब की पत्रकारिता का संदेश और सार है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

पसंद करें, टिप्पणी करें और अपने मित्रों से साझा करें...
Plz Like, Comment and Share