चार राज्यों और एक केन्द्र शासित प्रदेश का चुनाव परिणाम देश के सामने आ गया है। जैसा कि माना जा रहा था कि यह चुनाव परिणाम कांग्रेस के लिए उदासी लेकर आएंगे, वहीं भाजपा को खुशी मनाने का अवसर देंगे। दिल्ली और बिहार में मिली हार के बाद अब असम में पहली बार कमल खिलाकर भारतीय जनता पार्टी ने उत्तरप्रदेश के चुनाव के लिए ताकत पा ली है। भाजपा की सरकार भले ही एक राज्य में आ रही है, लेकिन बाकि जगह जहाँ कभी उसका कोई वजूद नहीं था, वहाँ भी वह मजबूत हुई है। पश्चिम बंगाल से लेकर केरल तक उसे सीट भी मिलीं हैं और उसके वोट प्रतिशत में भी अच्छा खासा इजाफा हुआ है। वोट प्रतिशत बढऩा यानी भविष्य के लिए उम्मीदों का आसमान तैयार होना है।
यदि अब तक सामने आए आंकड़ो पर नजर डालें तो पश्चिम बंगाल में 10.3 प्रतिशत, केरल में 10.7 प्रतिशत, पुदुच्चेरी में 2 प्रतिशत, तमिलनाडु में 2.7 प्रतिशत और असम में 29.5 प्रतिशत वोट भाजपा को मिले हैं, जिसे पहले की तुलना में बेहतर माना जा सकता है। गैर हिन्दी राज्यों में भाजपा के बढ़ते वोट प्रतिशत से न केवल कांग्रेस के होश उड़े हुए हैं बल्कि स्थानीय दलों के माथे पर भी चिंता की गहरी लकीरों का उभरना स्वाभाविक है। इन राज्यों में राष्ट्रीय दल की जमीन तैयार होना भारतीय राजनीति के भविष्य के लिए भी अच्छा है। बहरहाल, भाजपा के खेमे में प्रसन्नता की लहर होने का सबसे बड़ा कारण है, असम में जीत। असम में भाजपा ने अपनी प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस से सत्ता छीन ली है।
भारतीय जनता पार्टी असम की विजय से यह संकेत देने में भी सफल रही है कि अभी नरेन्द्र मोदी का जादू खत्म नहीं हुआ है। इसके साथ ही दिल्ली और बिहार हारने के बाद से राजनीतिक आलोचकों और विरोधी दलों के निशाने पर आए भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की राजनीतिक सूझबूझ फिर से साबित हुई है। जिस तरह से उन्होंने असम में पहली बार कमल खिलाया और दक्षिण के राज्यों में लोगों का भरोसा जुटाया है, वह काबिले तारीफ है। केन्द्र में एनडीए सरकार के दो साल पूरे होने पर यह चुनाव परिणाम प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को पार्टी की ओर से उपहार समझा जा सकता है।
वहीं, कांग्रेस का सूपड़ा साफ होने से निश्चित ही सोनिया और राहुल गांधी के नेतृत्व पर सवाल खड़े होंगे। हालांकि, स्थानीय नेताओं ने हार के लिए राहुल गांधी को जिम्मेदार नहीं ठहराने की बात कही है। लेकिन, यह सिर्फ अपने नेता की छवि को बचाने का प्रयास है। यदि कांग्रेस इन राज्यों में अच्छा प्रदर्शन करती तब उसका श्रेय सोनिया और राहुल गांधी के नेतृत्व को ही दिया जाता। इसलिए हार का श्रेय भी केन्द्रीय नेतृत्व को स्वीकारना चाहिए। नरेन्द्र मोदी जब से प्रधानमंत्री बने हैं, तब से कांग्रेस लगातार पांच राज्यों की सत्ता गंवा चुकी है। कांग्रेस का व्यापक जनाधार अब किसी क्षेत्रीय दल की तरह लगातार सिकुड़ता जा रहा है। निश्चित ही कांग्रेस को अपने नेतृत्व की काबिलियत, अपनी राजनीतिक विचारधारा और दिशा पर पुनर्विचार करना चाहिए। वरना वह दिन दूर नहीं जब कांग्रेस की सरकार शायद ही किसी राज्य में हो।
बहरहाल, यह चुनाव परिणाम वामदलों के लिए भी सबक हैं। भले ही केरल में कम्युनिस्ट सरकार बनाएंगे, लेकिन पश्चिम बंगाल में उनकी जो दुर्गति हुई है, उसके कारण भी उन्हें खोजने चाहिए। कम्युनिस्टों की विचारधारा में भारतीयता का अभाव उन्हें आम जनता से लगातार दूर करते जा रहा है। कम्युनिस्टों का लगातार सिमटते जाना भी एक तरह से भारतीय राजनीति के लिए अच्छा ही है। चुनाव के नतीजों ने ममता बनर्जी, जयललिता और भाजपा को जश्न मनाने का अवसर उपलब्ध करा दिया है। जश्न मनाने के तुरंत बाद विजेताओं को विकास का रोडमैप बना लेना चाहिए, ताकि जनता ने उन्हें जो जिम्मेदारी सौंपी है, उसका ठीक से निर्वाहन हो सके।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (21-05-2016) को "अगर तू है, तो कहाँ है" (चर्चा अंक-2349) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'