पांच राज्यों के चुनाव परिणाम के बाद कोने में सिमट गई कांग्रेस में अब कलह और भगदड़ के हालात बन रहे हैं। पांच राज्यों के साथ ही मेघालय, तेलंगाना, गुजरात और उत्तरप्रदेश में हुए उपचुनाव के नतीजे भी कांग्रेस के लिए निराशाजनक रहे हैं। मेघालय, तेलंगाना और गुजरात में कांग्रेस को अपनी सीटें खोनी पड़ गईं। उत्तरप्रदेश में दो सीट पर हुए उपचुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवारों की जमानत तक जब्त हो गई है। करारी हार ने कांग्रेस की बेचैनी बढ़ा दी है। कांग्रेस के बड़े नेता कह रहे हैं कि कांग्रेस के संगठन में सबकुछ ठीक नहीं है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और नेहरू-गांधी परिवार के नजदीकी दिग्विजय सिंह तक ने स्पष्ट कहा है कि पार्टी में बड़ी सर्जरी की जरूरत है। उन्होंने कड़े शब्दों में ट्वीट किया है कि आत्ममंथन बहुत हो चुका, अब बड़ी सर्जरी की जरूरत है। उन्होंने यह भी माना है कि कांग्रेस के लिए चुनाव परिणाम निराशाजनक है लेकिन अनपेक्षित नहीं। यानी कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं को पहले से ही इस बात की आशंका थी कि चुनाव में कांग्रेस की लुटिया डूबेगी। निश्चित ही उनकी इस आशंका का कारण शीर्ष नेतृत्व की योग्यता, प्रभाव और रणनीति रही होगी। कांग्रेस के 'इंटलेक्चुअल' समझे जाने वाले वरिष्ठ नेता शशि थरूर भी दिग्विजय सिंह के विचार से सहमत हैं। उन्होंने भी एक टेलीविजन साक्षात्कार में कहा है कि आत्म मंथन और चिंतन पर्याप्त किया जा चुका है, क्या यह सही समय नहीं है कि हम एक्शन लें? लेकिन, एक्शन लेगा कौन, थरूर यह नहीं बता सके।
दोनों नेताओं के बयानों का राजनीतिक गलियारों में विश्लेषण हो रहा है। जानकार बता रहे हैं कि यह बयान एक तरह से कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी की योग्यता पर सवाल खड़े करते हैं। क्योंकि, पिछले 2 साल में ही राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस 6 राज्यों में चुनाव हार चुकी है। ठीक दो साल पहले आम चुनाव में भी कांग्रेस का चेहरा राहुल गांधी ही थे। कांग्रेस की लगातार हार और उसके जनाधार में आ रही गिरावट से वरिष्ठ नेताओं का चिंतित होना स्वाभाविक है। लेकिन, क्या वाकई कांग्रेस में कोई बड़ा फेरबदल हो सकता है? बड़े फेरबदल के नाम पर अगर कुछ होगा भी तो राहुल गांधी को राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया जाएगा। क्या यह वास्तविक बदलाव होगा? क्या इस बदलाव से कांग्रेस को लाभ होगा? निष्पक्ष विश्लेषण किया जाए तो इसे बदलाव कतई नहीं कहा जा सकता।
बहरहाल, कांग्रेस के नेतृत्व ने यदि जिम्मेदारी भरा बर्ताव नहीं किया, तब पार्टी में कलह के साथ भगदड़ भी मच सकती है। उत्तराखंड में अपनी अनदेखी और उपेक्षा से नाराज होकर नौ विधायक कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल हो ही चुके हैं। वहीं, उत्तरप्रदेश में कांग्रेस की प्रमुख नेता रीता बहुगुणा जोशी ने भी पार्टी को 'टाटा-बाय-बाय' करने का मन बना लिया है। वह कांग्रेस छोड़कर समाजवादी पार्टी का दामन थामने को तैयार हैं। दरअसल, राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं संजोकर बैठे लोग भला डूबते जहाज की सवारी क्यों करना चाहेंगे? वह भी तब जब उनकी अनदेखी हो रही हो। अब अगला चुनावी युद्ध उत्तरप्रदेश की भूमि पर ही लड़ा जाना है। यह नेहरू-गांधी परिवार का घर भी है। उत्तरप्रदेश से ही सोनिया-राहुल चुनकर संसद जाते हैं। कांग्रेस को डर है कि कहीं उन्हें घर में ही मुंह की न खानी पड़ जाए। क्योंकि, कांग्रेस जिस दौर से गुजर रही है, उसके आधार पर कहा जा सकता है कि उत्तरप्रदेश भी उसके लिए निराशाजनक परिणाम लेकर आएगा। अच्छा होगा कि कांग्रेस दिखावे के लिए नहीं बल्कि वास्तविक 'सर्जरी' की ओर बढ़े।
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