शुक्रवार, 8 नवंबर 2024

न्यायपालिका और दबाव समूहों की राजनीति

भारत के वर्तमान मुख्य न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ ने मीडिया को दिए साक्षात्कार में इको-सिस्टम की राजनीति को सबके सामने उजागर करने का काम किया है। उनका यह साक्षात्कार ध्यानपूर्वक सुना जाना चाहिए और उस पर विचार-मंथन भी होना चाहिए। देश में एक बड़ा वर्ग ऐसा है, जो अकसर संवैधानिक संस्थाओं की प्रतिष्ठा को धूमिल करने का प्रयास करता है। जब भी कोई संवैधानिक संस्था उनकी इच्छा के अनुरूप निर्णय नहीं करती है, वे उस संस्था की स्वतंत्रता को लेकर सवाल उठाने लगते हैं। उनके निशाने पर न्यायपालिका भी रहती है। इसी ओर मुख्य न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने संकेत किया है। उन्होंने कहा है कि “कुछ दबाव समूह हैं जो मीडिया के माध्यम से न्यायपालिका पर दबाव डालकर अनुकूल फैसला हासिल करने की कोशिश करते हैं”। वे यह भी कहते हैं कि “इन दबाव समूहों के बहुत से लोग कहते हैं कि अगर आप मेरे पक्ष में फैसला करते हैं तो आप स्वतंत्र हैं, अगर आप ऐसा नहीं करते हैं तो आप स्वतंत्र नहीं हैं”। 

चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने जो कुछ कहा, उसकी अनुभूति समाज लंबे समय से कर रहा है। समाज देखता है कि ये दबाव समूह आतंकियों की जान बचाने के लिए आधी रात में भी न्यायालय का दरवाजा खटखटा देते हैं और अपने पक्ष में निर्णय कराने के लिए देश-विदेश की मीडिया में उस मामले के संबंध में लेख इत्यादि प्रकाशित कराते हैं। इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया में चयनित बातों को प्रचारित करते हैं। समाज यह पाखंड भी देखता है कि एक ही प्रकार के मामले में ये दबाव समूह अपने लिए जो निर्णय चाहते हैं, दूसरे के पक्ष में वैसा निर्णय आने पर विरोध करते हैं। पिछले दिनों ही मुख्य न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की एकसाथ तस्वीरें सामने आने पर जिस तरह का वितंडावाद इन दबाव समूहों ने खड़ा किया, वह भी गजब का पाखंड था क्योंकि तत्काल ही पूर्ववर्ती मुख्य न्यायमूर्तियों की तस्वीरें तत्कालीन कांग्रेसी प्रधानमंत्रियों के साथ वायरल हो गईं। लेकिन इन दबाव समूह के लोगों ने उन तस्वीरों पर कोई आलोचनात्मक टिप्पणी न तो तब की थी, और न आज की।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की इस तस्वीर को लेकर हुआ था विवाद

दरअसल, दबाव समूह न्यायालय या अन्य संवैधानिक संस्थाओं की स्वतंत्रता का पक्षधर नहीं है अपितु वह चाहते हैं कि संवैधानिक संस्थाएं उसके हिसाब से चलें। स्वतंत्रता का वास्तविक अर्थ है कि संवैधानिक संस्थाएं किसी भी मामले में स्वविवेक और तथ्यों के प्रकाश में निर्णय लें। यह बात मुख्य न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने भी कह है कि स्वतंत्रता का मतलब है कि एक न्यायाधीश को अपने विवेक के अनुसार मामले का फैसला करने में सक्षम होना चाहिए। प्रधान न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने दबाव समूहों के दोहरे चरित्र पर उदाहरण सहित कटाक्ष किया- “जब आप चुनावी बॉन्ड पर फैसला करते हैं, तो आप बहुत स्वतंत्र होते हैं, लेकिन अगर फैसला सरकार के पक्ष में जाता है, तो आप स्वतंत्र नहीं हैं”। 

याद हो, जब न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ भारत के मुख्य न्यायाधीश की जिम्मेदारी संभालने वाले थे, तब इन्हीं दबाव समूहों की ओर से उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की जा रही थी। तब तक उनका मानना था कि डीवाई चंद्रचूड़ उनकी वैचारिक राजनीति के अनुकूल हैं। लेकिन जैसे ही सर्वोच्च न्यायालय ने एक-दो निर्णय उनकी इच्छा के विरुद्ध चले गए, तब से मुख्य न्यायाधीश दबाव समूहों से जुड़े लोगों के निशान पर आ गए। दबाव समूह यह मानने को तैयार ही नहीं है कि न्यायपालिका का काम विपक्ष की तरह हर बात में सरकार का विरोध करना नहीं होता है। यदि सरकार का कोई कार्य गलत नहीं है तब न्यायपालिका उसे कैसे गलत ठहरा सकती है? लेकिन कुछ समूह, राजनीतिक दल एवं लोग हैं, जो चाहते हैं कि न्यायपालिका भी उनकी तरह अंध विरोध की रणनीति अपनाए। यह संभव नहीं है। यह न तो स्वतंत्रता की पहचान है और न ही न्यायपूर्ण दृष्टिकोण है। 

याद रहे कि यह पहली बार नहीं है जब न्यायपालिका को प्रभावित करनेवाले दबाव समूहों को लेकर चिंता जाहिर की गई है। इससे पूर्व देशभर के 600 से अधिक अधिवक्ताओं ने मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर चिंता जताई थी कि “एक विशेष समूह न्यायपालिका पर दबाव डालने की कोशिश कर रहा है। उथले आरोप लगाकर न्यायपालिका को बदनाम करने की कोशिशें हो रही हैं”। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अधिवक्ताओं के इस पत्र को अपने सोशल मीडिया मंच पर साझा करते हुए लिखा था कि “दूसरों को डराना और धमकाना कांग्रेस की पुरानी संस्कृति है। कई दशक पहले ही कांग्रेस ने प्रतिबद्ध न्यायपालिका का आह्वान किया था। वे अपने स्वार्थों के लिए दूसरों से प्रतिबद्धता चाहते हैं, लेकिन राष्ट्र के प्रति किसी भी प्रतिबद्धता से बचते हैं”। 

यह कहने में कोई संकोच नहीं कि कम्युनिस्ट विचारधारा से जुड़े समूह प्रत्येक क्षेत्र में ‘दबाव समूह’ के रूप में काम करते हैं। उनके कार्यक्षेत्र से न्यायपालिका भी अछूती नहीं है। अधिवक्ताओं की यह चिंता व्यर्थ नहीं है कि देश में एक ‘विशेष समूह’ न्यायपालिका को कमजोर करने की कोशिश कर रहा है। न्यायपालिका की छवि को जनता के बीच में संदिग्ध करने के प्रयास उसकी ओर से लगातार किए जा रहे हैं। इसके साथ ही न्यायपालिका पर इस प्रकार से दबाव बनाने के प्रयत्न होते हैं कि विभिन्न मामलों में उनके पक्ष में निर्णय हो। यह विशेष समूह न्यायालयों की कार्यवाही में बाधा डालने की भी कोशिश करते हैं। हालांकि, किसी फिल्म के उदाहरण से यथार्थ की कल्पना नहीं की जा सकती लेकिन फिर भी कहना होगा कि ‘बस्तर : द नक्सल स्टोरी’ में इस प्रकार के दबाव समूहों की ओर संकेत किया गया है, जो एक गिरोह की तरह काम करता है। याद रखें कि जब भी उनके पक्ष में निर्णय नहीं आते, तब इस वैचारिक समूह से जुड़े लोग उसकी अतार्किक आलोचना करते हैं। उसमें बेमतलब खामियां निकालते हैं। न्यायमूर्तियों की छवि पर भी हमला करने से चूकते नहीं है। इस मामले में रंजन गोगोई और अभिजीत गंगोपाध्याय तक अनेक न्यायमूर्ति हैं, जिनके बारे में अनर्गल टिप्पणियां इस समूह से जुड़े लोगों द्वारा की गई हैं। वर्तमान मुख्य न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ को भी उन्होंने नहीं छोड़ा है।

ये दबाव समूह भारत की किसी भी संवैधानिक संस्था पर हावी न हो सकें, इसके लिए सबको मिलकर वातावरण बनाना चाहिए। देश के सभी नागरिकों को भी दबाव समूहों द्वारा खड़े किए जानेवाले फर्जी नैरेटिव में न उलझकर अपनी संवैधानिक संस्थाओं पर विश्वास करना चाहिए। देश की जनता का विश्वास ही लोकतंत्र और संवैधानिक संस्थाओं को अधिक मजबूत और स्वतंत्र बनाएगा। 

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