संघ शताब्दी वर्ष : संघमय बने समाज, संघ का लक्ष्य है कि संपूर्ण हिन्दू समाज संगठित हो और संघ उसमें विलीन हो जाए
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज जिस विराट स्वरूप में दिखायी देता है, उसका संपूर्ण चित्र संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार के मन में था। संघ समय के साथ उनकी संकल्पना के अनुरूप ही विकसित हुआ है। इस संदर्भ में संघ के विचारक दत्तोपंत ठेंगड़ी अपनी पुस्तक ‘कार्यकर्ता’ में लिखते हैं- “जैसे कोई कुशल चित्रकार पहले अपने मन के संकल्प चित्र की केवल आउटलाइन खींचता है। क्या कोई कह सकता है कि आउटलाइन के आगे उसके सामने कुछ भी नहीं है। ऐसा तो नहीं। उसके मन में तो पूरा चित्र स्पष्ट रूप से रेखांकित हुआ करता है, और कागज पर खींची हुई आउटलाइन में धीरे-धीरे उसी के अनुसार रंग भरते-भरते, उमलते हुए रंगों से कल्पना साकार होती है। अंग्रेजी में इसे ‘प्रोग्रेसिव अनफोल्डमेंट’ कहा जाता है। इसका अर्थ है कि जो बात पहले से ही मौजूद रहती है, वही समय के अनुसार उत्तरोत्तर अधिकाधिक प्रकट होकर दिखाई देना प्रारंभ होती है। संघ कार्य का भी इसी प्रकार प्रोग्रेसिव अनफोल्डमेंट हुआ है”। अपनी 100 वर्ष और चार चरणों की यात्रा में संघ के विस्तार के बाद अब आगे क्या, यह चर्चा सब ओर चल रही है। शताब्दी वर्ष के निमित्त संघ में भी यह चर्चा खूब है। इसका संकेत भी हमें संस्थापक सरसंघचालक डॉक्टर साहब की संकल्पना में मिलता है। आद्य सरसंघचालक डॉ. हेडगेवार कहते थे कि “संघ कार्य की जुबली मनाने की कल्पना नहीं है। यानी कि शतकानुशतक संघ अपने ही स्वरूप में समाज को संगठित करने का कार्य करता रहेगा, यह कल्पना नहीं है”। डॉक्टर साहब चाहते थे कि संघ यथाशीघ्र अपने लक्ष्य को प्राप्त करे और समाज में विलीन हो जाए। संघ का अगला ‘प्रोग्रेसिव अनफोल्डमेंट’ समाज के साथ एकरूप होना ही है। इसलिए संघ और समाज के लिए पाँचवा चरण बहुत महत्वपूर्ण रहनेवाला है। संघ अपने पाँचवे चरण में समाज के साथ एकरस होना चाहता है। यानी संघ जिन उद्देश्यों को लेकर चला है, वह समाज के उद्देश्य बन जाएं। यानी भारतीय समाज संघमय हो जाए। समाज और संघ में कोई अंतर न दिखे।
संघ के अखिल भारतीय सह प्रचार प्रमुख नरेन्द्र कुमार लिखते हैं कि “संघ के स्वयंसेवक अपने परिवार में संघ जीवन शैली को अपनाते हुए समाजानुकूल परिवर्तन करने का निरन्तर प्रयास करते हैं। साथ ही व्यापक समाज परिवर्तन के लिए विभिन्न प्रकार के उपक्रम नियमित रूप से करते रहते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ शताब्दी वर्ष के पश्चात समाज परिवर्तन के अगले चरण में प्रवेश कर रहा है। यह समाज जागरण का एक बड़ा और व्यापक अभियान होगा। इस चरण में स्वयंसेवक समाज की सज्जन शक्ति के साथ मिलकर कार्य करने की दिशा में अग्रसर होंगे। इस हेतु समाज में जागरूकता निर्माण करने के लिए और व्यक्तिगत, पारिवारिक जीवन में व्यवहार में लाने के लिए पाँच विषयों का आग्रह है। इसे पंच परिवर्तन (पर्यावरण संरक्षण, स्व बोध, सामाजिक समरसता, कुटुम्ब प्रबोधन और नागरिक अनुशासन) कहा गया”। अपने शताब्दी वर्ष में संघ अपने कार्य का विस्तार और दृढ़ीकरण भी कर रहा है ताकि समाज की सज्जनशक्ति के साथ मिलकर प्रभावी ढंग से राष्ट्रीय कार्य को सम्पन्न किया जा सके।
संघ की स्थापना के मूल में यह विचार है कि भारत का मूल समाज अपने स्वाभाविक संगठित एवं स्वावलंबी स्वरूप को पुन: प्राप्त हो। हिन्दू समाज अपने समक्ष आने वाली चुनौतियों के समाधान के लिए सदैव के लिए किसी बाह्य व्यवस्था पर आश्रित रहे, यह भारत के हित की बात नहीं है। बाहरी आक्रमण के विरुद्ध लंबे संघर्ष के कारण हमारे समाज में कुछ दोष आ गए थे, जिनको दूर करके एक सबल समाज बनाने के उद्देश्य के साथ संघ ने कार्य प्रारंभ किया था। जिस दिन ये दोष दूर हो जाएंगे, संघ स्वत: ही समाज में विलीन हो जाएगा। इस बात को सरल ढंग से दत्तोपंथ ठेंगड़ी समझाते हैं- “जब हमें कोई घाव (जख्म) होता है, तो उस पर एक पतली पपड़ी या झिल्ली बन जाती है। यह झिल्ली घाव को जल्दी भरने में मदद करती है और उसकी सुरक्षा भी करती है। लेकिन जब घाव पूरी तरह से ठीक हो जाता है, तो यह झिल्ली अपने आप हट जाती है। ठीक उसी तरह, जब समाज के टूटने (विघटन) का घाव पूरी तरह भर जाएगा और देश की अन्य राष्ट्रीय कमियां दूर हो जाएंगी, तब ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ नाम की यह झिल्ली (संरचना) भी अपने आप निकल जाएगी”। शताब्दी वर्ष से आगे अपने अगले पड़ाव में संघ इसी दिशा में आगे बढ़ रहा है। हालांकि, यह भी सच है कि अभी लंबे समय तक संघ को अपना कार्य करना होगा। यह इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि हिन्दू समाज को जागृत रखने के लिए प्रत्येक समय में कोई न कोई व्यवस्था रही है। आज वह रचना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के रूप में विद्यमान है।
संघ ने प्रारंभ से यही स्थापित करने का प्रयास किया है कि संघ समाज में अन्य संस्थाओं की भांति अलग संगठन नहीं है, अपितु संघ समाज का ही संगठन है। संघ विचारक दत्तोपंथ ठेंगड़ी लिखते हैं कि “बिल्कुल छोटी-छोटी बातों में भी, संघ यह कोई संप्रदाय नहीं है, पूरे समाज का यह काम है, यह धारणा आविष्कृत होती थी। एक छोटी-सी बैठक में विजयादशमी उत्सव के निमंत्रण पत्रिका का विषय चल रहा था। ‘हमारे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विजयादशमी महोत्सव’ इस वाक्य से निमंत्रण पत्र को प्रारंभ किया गया था। डॉक्टरजी ने पूछा, ‘हमारे’ यह शब्द ठीक है क्या? ‘हमारे’ कहते ही ‘तुम्हारे’ का भाव भी पढ़ने वालों के मन में पैदा होता है। इसलिए ‘अपने रा. स्व. संघ का,’ ये शब्द उचित रहेंगे”। इसी तरह जब स्वयंसेवकों ने एक सहकारी बैंक प्रारंभ किया, तब उनमें से किसी ने डॉक्टर साहब को बताया कि “यह अपने संघ का बैंक है”। तब भी डॉक्टर साहब ने तत्काल स्वयंसेवकों का मार्गदर्शन किया- “नहीं, यह संघ का बैंक नहीं, शहर के जितने भी बैंक हैं, वे सब संघ के ही बैंक हैं। समाज के विविध क्षेत्रों में संघ के स्वयंसेवक जो भी कार्य प्रारंभ कर रहे हैं, वे अवश्य ही संघ की प्रेरणा से प्रारंभ हुए होंगे, परंतु वह सब समाज का है, समाज के लिए है।
इस चर्चा का सार यही है कि शताब्दी वर्ष के बाद शुरु हुए पाँचवे चरण में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्य पूरे हिन्दू समाज को स्वाभाविक और स्थायी शक्ति के रूप में मजबूत बनाकर खड़ा करना। संघ इतना व्यापक हो जाना चाहिए कि संघ और समाज एक हो जाएं। जब यह स्थिति आ जाएगी, तब संघ के लिए एक अलग ‘संगठन’ के रूप में रहने की कोई आवश्यकता नहीं रहेगी। समाज की अपनी अंदरूनी शक्ति स्थायी रूप से स्थापित हो जाएगी और वह स्वाभाविक रूप से काम करने लगेगी। उस अवस्था में, समाज ही संघ बन जाएगा और संघ ही समाज।
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| संघ शताब्दी वर्ष के प्रसंग पर 'स्वदेश ज्योति' में 30 नवंबर, रविवार को प्रकाशित लोकेन्द्र सिंह का साप्ताहिक स्तम्भ |

