मंगलवार, 15 जुलाई 2025

चुनाव आयोग के काम में दखल नहीं देने का उच्चतम न्यायालय का सराहनीय निर्णय

फर्जी मतदाताओं के बल पर लोकतंत्र को लूटने का सपना देखनेवालों को सर्वोच्च न्यायालय ने ढंग से संविधान का पाठ पढ़ाया है। हालांकि, सर्वोच्च न्यायालय की सीख उनके दिल-दिमाग में उतरेगी, इसकी संभावना कम ही है। क्योंकि वास्तव में यह लोग जागे हुए हैं, सोने का केवल अभिनय कर रहे हैं। जो सोने का अभिनय करे, उसे भला कौन जगा सकता है। इसलिए कभी मतदाता सूची में गड़बड़ी का आरोप लगाकर वितंडावाद खड़ा करते हैं तो कभी मतदाता सूची को व्यवस्थित किए जाने की प्रक्रिया का विरोध करते हैं। यह सब कवायद देश को गुमराह करने की है। अपने गिरेबां में झांकने की बजाय कभी चुनाव आयोग की प्रक्रिया पर तो कभी ईवीएम पर तो कभी मतदाता सूची पर सवाल उठाना, अपरिपक्व राजनीति का प्रदर्शन है। 

अपने कुतर्कों के आधार पर खड़े किए जाने वाले विमर्श के लिए विपक्षी दलों को हर बार मुंह की खानी पड़ी है। इस बार भी सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कह दिया कि मतदाता सूची के परीक्षण की चुनाव आयोग की प्रक्रिया को वह नहीं रोकेगा। बिहार में मतदाता सूची का विशेष गहन पुनरीक्षण कांग्रेस की सरकार के समय में यानी वर्ष 2003 में भी कराया जा चुका है। आखिर इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है कि चुनाव आयोग यह सुनिश्चित कर रहा है कि चुनाव में फर्जी मतदाता भाग न ले सकें? मतदाताओं के परीक्षण की प्रक्रिया का विरोध करनेवाले नेता एवं राजनीतिक दल क्या यह चाहते हैं कि चुनाव में फर्जी मतदान होना चाहिए? क्या उनकी मंशा है कि जिन घुसपैठियों ने चोरी-चालाकी से मतदाता सूची में नाम जुड़वा लिया है, उन्हें भारत के लोकतंत्र को प्रभावित करने का अवसर मिले? 

विपक्षी दल के नेताओं का कहना है कि चुनाव आयोग को नागरिकता जाँच करने कोई अधिकार नहीं है। ठीक बात है कि नागरिकता का परीक्षण करने का अधिकार गृह मंत्रालय के पास है। लेकिन गृह मंत्रालय नागरिकता की जाँच का काम करता है या करेगा, तब यही लोग उसका विरोध करते हैं/करेंगे। राष्ट्रीय नागरिका पंजीयन का विरोध किन राजनीतिक दलों एवं नेताओं ने किया, देश यह भूला थोड़े हैं। चुनाव आयोग को यह अधिकार तो है कि वह सुनिश्चित करे कि कोई गैर-भारतीय निर्वाचन में शामिल न हो सके क्योंकि संविधान इसकी अनुमति नहीं देता है। 

विरोधियों को सर्वोच्च न्यायालय ने साफ-साफ कह दिया है कि – “भारत में मतदाता बनने के लिए नागरिकता की जाँच करना आवश्यक है, जो संविधान के अनुच्छेद-326 के तहत आता है। चुनाव आयोग जो कर रहा है, वह संविधान के तहत अनिवार्य है और इस तरह की पिछली प्रक्रिया 2003 में की गई थी। मतदाता सूची की जांच लोकतांत्रिक कार्य है”। सर्वोच्च न्यायालय की माने तो चुनाव आयोग के कार्य में हस्तक्षेप करनेवाले सभी नेता एवं दल अलोकतांत्रिक काम कर रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी स्पष्ट कहा है कि उसे चुनाव आयोग की नीयत पर कोई संदेह नहीं है। इसके बाद भी अगर कुछ नेता एवं दल चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर सवाल खड़े करते हैं, तब एक प्रकार से न्यायालय की अवमानना भी कर रहे होते हैं।

उल्लेखनीय है कि संविधान के अनुच्छेद-326 में यह कहा गया है कि केवल भारतीय नागरिकों को ही मतदाता के रूप में नामांकित किया जा सकता है। इसी वजह से मतदाता सूची को दुरुस्त करने के लिए और सभी योग्य नागरिकों को वोट का अधिकार दिलाने के लिए नागरिकता की पुष्टि हो रही है। मजेदार बात है कि आएदिन संविधान की प्रति चुनावी सभाओं में लहराने वालों को संविधान के इस प्रावधान की जानकारी नहीं है। मतलब साफ है कि या तो संविधान की उस पॉकेट साइज प्रति के पृष्ठ खाली हैं या फिर उन्होंने संविधान को पलटकर ही नहीं देखा है। 

ये नेता इस बात पर ही बल्ले-बल्ले कर रहे हैं कि सर्वोच्च न्यायालय ने ‘आधार’ को पहचान सुनिश्चित करनेवाले दस्तावेजों में शामिल करने के लिए चुनाव आयोग को कहा है। याद हो कि इन्हीं नेताओं एवं तथाकथित बुद्धिजीवियों ने उस समय आपत्ति दर्ज की थी, जब मतदाता कार्ड के साथ आधार को लिंक किए जाने की दिशा में चुनाव आयोग ने प्रयास किए थे। तब इनकी ओर से कहा गया था कि आधार नागरिकता की पहचान सुनिश्चित नहीं करता है। यह पाखंड और दोगला आचरण नहीं है तो क्या है? कहना होगा कि लोकतंत्र और संविधान की रक्षा की दुहाई देनेवाले नेताओं एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं का पाखंड बिहार की मतदाता सूची के परीक्षण की प्रक्रिया में खुलकर उजागर हुआ है। मतदाता सूची का विशेष गहन पुनरीक्षण के खिलाफ राजद सांसद मनोज झा, तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा समेत 11 लोगों ने याचिकाएं दाखिल की हैं। याचिकाकर्ता की ओर से वकील गोपाल शंकर नारायण, कपिल सिब्बल और अभिषेक मनु सिंघवी ने वकालत की।

जो नेता मतदाता सूची में विसंगती की मांग उठाते रहते हैं, कम से कम उन्हें तो चुनाव आयोग के निर्णय का कतई विरोध नहीं करना चाहिए था। लेकिन मजेदार बात यह है कि सबसे अधिक विरोध यही दल एवं नेता कर रहे हैं। स्वस्थ लोकतंत्र के लिए आवश्यक है कि मतदाता सूची शुद्ध हो। निर्वाचन की प्रक्रिया में वही भाग ले, जो संविधान के अनुसार पात्र हो। भारत का संविधान भारतीय नागरिक को ही मतदान का अधिकार प्रदान करता है। जब चुनाव आयोग को मतदाता सूची में दिखायी दे रही विसंगतियों को दूर करने के लिए गहन परीक्षण कर रहा है, यह लोकतंत्र को बचाने एवं उसे मजबूत करने का ही काम है। 

क्या आधार कार्ड भारत की नागरिकता का पहचान पत्र है :

इसमें कोई दो राय नहीं है कि देश में आज आधार कार्ड सबसे जरूरी दस्तावेजों में से एक है, लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि सुप्रीम कोर्ट और सरकार दोनों ने ही यह स्पष्ट तौर पर कहा है कि आधार नागरिकता का प्रमाण नहीं है। जस्टिस एस पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ (2018) के प्रकरण में भी सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट कहा था कि “आधार एक विशिष्ट पहचान पत्र है, लेकिन यह भारतीय नागरिकता का प्रमाण नहीं है”। सरकार की ओर से भी यह स्पष्ट कहा गया था कि “आधार कार्ड को नागरिकता और जन्मतिथि का प्रमाण पत्र नहीं माना जा सकता है। यह सिर्फ और सिर्फ एक व्यक्ति का पहचान पत्र है और उसके निवास स्थान की जानकारी देता है”। भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण के अनुसार भी आधार कार्ड नागरिकता का प्रमाण पत्र नहीं है। यह सिर्फ एक व्यक्ति का पहचान पत्र है। आधार कार्ड विदेशी नागरिकों का भी बनता है। नेपाल और भूटान के जो नागरिक भारत में नौकरी कर रहे हैं, उनका भी आधार कार्ड बनता है, जिसकी अवधि 10 साल तक होती है, उसके बाद यह स्वत: निरस्त हो जाता है। अन्य देश के नागरिकों का जो आधार कार्ड बनता है उसमें उसके वीजा की अवधि के समाप्त होते ही आधार कार्ड भी समाप्त हो जात है। भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण के अनुसार अगर कोई विदेशी नागरिक 182 दिन तक भारत में लगातार रहता है, तो उसका आधार कार्ड बन सकता है, लेकिन यह सिर्फ पहचान पत्र है उसकी नागरिकता का प्रमाण नहीं। 

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