नये दौर में छूआछूत और भेदभाव की घटना किसी भी समाज के लिए कलंक से कम नहीं हैं। यह समूची मनुष्य जाति का दुर्भाग्य है कि समाज में कुछ लोग, कुछ लोगों को अपने से कमतर मानते हैं। उनके साथ अमानवीय व्यवहार करते हैं। किसी मनुष्य के खेत में पैर रखने से क्या सफल सूख सकती है? क्या उसके छूने से पवित्रता समाप्त हो सकती है? यदि इसका प्रश्न हाँ है तब समूची धरती तथाकथित सवर्णों के लिए रहने लायक नहीं है। समूची धरती एक है और उसका स्पर्श हजारों हजार तथाकथित निम्न जाति के लोग करते हैं। उस भूमि को वह अपनी माता मानते हैं। यह अधिकार और ज्ञान तथाकथित सवर्ण समाज को किसने दिया कि एक वर्ग विशेष नजरें उठाकर नहीं चल सकता, उनकी औरतें-बेटियाँ सज-धज नहीं सकतीं, उन्हें होटल या धर्मशाला में पानी चुल्लू में लेकर पीना चाहिए?
मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से महज ७० किलोमीटर दूर नायसमंद गाँव में यह दुर्भाग्य और लज्जास्पद घटना घटी है। वहाँ के तथाकथित सवर्ण समाज ने एक जाति विशेष के लोगों के खिलाफ यह फरमान निकाला था। उसे गाँव में चस्पा भी किया कि उस जाति के किसी व्यक्ति की दाड़ी-बाल किसी ने बनाए, तो उसको जान से मार देंगे। उस जाति के आदमी एवं औरतें नये कपड़े पहनकर न निकलें। नजरें झुकाकर चलें। होटल में उन्हें कोई गिलास या अन्य किसी बर्तन में पानी नहीं दे। उन्हें चुल्लू में पानी दिया जाए। यह हद दर्जे की अमानवीयता है। उससे भी अधिक यह मूर्खता है। वास्तव में बहिष्कार इस वर्ग का नहीं, बल्कि इस प्रकार की विभाजनकारी सोच रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति का होना चाहिए। नजरें झुकाकर उन्हें नहीं, बल्कि हमें चलना चाहिए, ऐसी निम्नतम सोच से शर्मनाक क्या हो हो सकता है?
जिन तथाकथित सवर्ण समाज के ठेकेदारों ने यह फरमान निकाला है, उन्हें अपनी परंपराओं और समाज व्यवस्था का ठीक से ज्ञान नहीं है। उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम और कर्मयोगी श्रीकृष्ण से लेकर अन्य सभी अवतारों का जीवन पढऩा चाहिए। क्या उन्हें यह नहीं पता कि जिस देवता को वह अपना आराध्य मानते हैं, उसने शबरी के झूठे बेर खाए थे, उसने निषादराज को गले लगाया था। हमारा देवता हमसे कहता है कि मनुष्यों में कोई भेद नहीं। हमारी परंपरा में कहा गया है कि सबके भीतर ईश्वर का अंश है। सबमें एक ही ब्रह्म है। फिर कोई छोटा-बड़ा कैसे हो सकता है? इसलिए जो लोग आज भी जाति भेद और छूआछूत की लकीर पीट रहे हैं, वे निरे मूर्ख हैं। घोर अज्ञानी हैं। अधर्मी हैं। उनका इस प्रकार का कृत्य समूचे समाज के लिए घातक है।
अच्छी बात यह है कि प्रदेश सरकार ने तत्परता और संवेदनशीलता से इस मसले पर ध्यान दिया है। प्रशासन ने गाँव में जाकर दोनों पक्षों से बातचीत की है, जिसके सकारात्मक परिणाम भी सामने आ रहे हैं। तथाकथित सवर्णों की पंचायत के फरमान के विरोध में अब उसी समाज के लोग भी खुलकर सामने आ रहे हैं। वह इस फरमान को गलत मान रहे हैं। सरकार की ओर से सामूहिक भोज का आयोजन किया गया है। इसमें भोजन परोसने की जिम्मेदारी उस विशेष वर्ग को दी गई है, जिसकी उपेक्षा करने की कोशिश की गई। तथाकथित सवर्ण समाज से भी बहुमत में लोगों ने इस भोज को स्वीकारा है। एक साथ मिल-बैठ कर भोजन करने से निश्चित ही आपसी संबंधों में सुधार होगा।
बहरहाल, होना यह चाहिए था कि इस प्रकार के मसलों में सरकार के हस्तक्षेप की जगह समाज का ही प्रबुद्ध वर्ग सक्रियता से स्वयं आगे आता। किसी भी प्रकार के सामाजिक दबाव से मुक्त होकर पढ़ा-लिखा वर्ग, जो अंतरआत्मा से इस प्रकार के भेदभाव को गलत मानता है, वह आगे आता। आम समाज के प्रयास से सामाजिक समरसता का जो वातावरण बनेगा, वह अधिक स्थायी और सार्थक होगा। यह प्रबुद्ध वर्ग की जिम्मेदारी है कि अपने आसपास कहीं भी इस प्रकार की स्थितियाँ नहीं बनने दे।
लोकेश जी-मेरी लिखी सारी बातों को संकलित रखना-धीरे धीरे एक रक कर सब की सत्यता या सत्य होते दिखेगी जरूर। एक को तो आज आपने प्रकाशित कर स्वीकार ही लिया है जिसके लिये मैंने लिखा था कि सर्व धर्म समभाव नहीं इस देश को सर्व जाति समभाव की जरूरत है।
जवाब देंहटाएंदर्पण सामने है।
लोकेश जी-मेरी लिखी सारी बातों को संकलित रखना-धीरे धीरे एक रक कर सब की सत्यता या सत्य होते दिखेगी जरूर। एक को तो आज आपने प्रकाशित कर स्वीकार ही लिया है जिसके लिये मैंने लिखा था कि सर्व धर्म समभाव नहीं इस देश को सर्व जाति समभाव की जरूरत है।
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