कालेधन के विरुद्ध लड़ाई में नोटबंदी के निर्णय पर प्रतिपक्ष के नेता एक से बढ़कर एक कुतर्क प्रस्तुत कर रहे हैं। उनके कुतर्क यह भी साबित कर रहे हैं कि वह जमीन से जुड़े नेता नहीं हैं। उन्हें भारतीय जन के मानस की बिल्कुल भी समझ नहीं है। विपक्षी नेताओं के बयानों को सुनकर यह समझना मुश्किल हो रहा है कि वह आम जनता के शुभचिंतक हैं या फिल कालेधन वालों के? उनकी बौखलाहट देखकर संदेह यह भी है कि उनके पास भी कालेधन का भंडार है। वरना क्या कारण है कि नोटबंदी की वापसी के लिए चेतावनी जारी की जा रही हैं? साफ नजर आ रहा है कि विपक्षी नेता आम जनता की परेशानी की आड़ में अपने कालेधन की चिंता कर रहे हैं? तथाकथित पढ़े-लिखे नेता चौराहों की भाषा इस्तेमाल कर रहे हैं। कुतर्क देखिए कि पाँच सौ और दो हजार रुपये का नया नोट चूरन की पुडिय़ा में निकलने वाले नकली नोट जैसा है। आश्चर्य है इनकी समझ पर।
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल, जो कभी कालेधन के खिलाफ लड़ाई लडऩे की बात किया करते थे, समय आया तो कालेधन के पक्ष में खड़े दिखाई दे रहे हैं। उनको बिना कुछ विचारे बोलने की बीमारी हो गई है। उन्होंने आरोप जड़ दिया कि नोटबंदी की जानकारी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पहले ही भाजपा और तथाकथित अपने व्यापारी मित्रों को दे दी थी। मोदी गरीबों का पैसा एकत्र करके अमीरों को दे देंगे। वह यह भी कह रहे हैं कि गरीब तो कतार में लगा है, लेकिन अंबानी और अड़ानी क्यों नहीं लगे? इस तरह तो फिर यह भी सवाल उठाना चाहिए कि कितने नेताओं ने कतार में लगकर नोट बदलवाए हैं? दरअसल, अरविंद केजरीवाल मोदी विरोधी की बीमारी के कारण इस बार गलत दिशा में चले गए हैं। जनता के विरोध के बाद भी उन्हें यह अब तक समझ नहीं आया है। बीते दिन बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल दोनों को जनता के विरोध का सामना करना पड़ा था।
राज्यसभा में कांग्रेस के नेता तो विरोध की सीमा ही लांघ गए। गुलाम नबी आजाद यहाँ तक बोल गए कि उड़ी हमले में जितने सैनिकों की जान गई थी, उससे ज्यादा नोटबंदी के फैसले के कारण मर गए। क्या इससे अधिक बेतुकी बात कोई हो सकती है? इस बात से किसी को इनकार नहीं है कि नोट बदलवाने के कारण जिन लोगों की जान गई हैं, वह दु:खद है। लेकिन, इन मौतों की तुलना करके हमारे यह नेता आतंकवादियों को अपेक्षाकृत कम गुनहगार बताने का प्रयास कर रहे हैं। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता का यह बयान बेहद आपत्तिजनक और शर्मनाक है। आश्चर्य इस बात का है कि एक तरफ नोट बदलने के लिए बैंकों के सामने कतार में खड़े आम आदमी तमाम परेशानियाँ उठाकर भी सरकार के फैसले का समर्थन कर रहा है। वहीं दूसरी तरफ, राजनेता कुतर्क करने की होड़ में हैं।
यह वह समय है जब विपक्ष को अराजकता फैलाने और लोगों को उकसाने की जगह जनता को जागरूक करना चाहिए था। जिस प्रकार एक संत ने अपने अनुयायिओं को संकल्प दिलाया है कि आवश्यक होने पर ही बैंक जाएं। इन नेताओं को जनता की मदद के लिए आगे आना चाहिए था। यदि उन्हें लगता है कि नोटबंदी को लागू करने में कहीं खामी रह गई है, तब ज्यादा अच्छा होता कि विपक्षी नेता स्थितियों को संभालने के लिए सरकार को सुझाव देते। लेकिन, जिनकी फितरत ही सिर्फ हंगामा खड़ा करने की हो, वह समाधान क्यों सुझाएंगे? इस समय देश में अफवाहों को असफल करने एवं जनता को जागरूक करने के लिए सकारात्मक और सही जानकारी देने की जरूरत है। इस महत्त्वपूर्ण कार्य में मीडिया और राजनेता दोनों ही असफल दिखाई दे रहे हैं।
विपक्षी नेताओं की तरह मीडिया का भी एक धड़ा अराजकता को बढ़ावा देने की भूमिका में दिख रहा है। मीडिया के सामने यह अवसर है, जब वह 'लोगों को सूचना देने' के साथ-साथ 'लोगों को शिक्षित करने' के अपने उद्देश्य पर खरा उतर सकता था। लेकिन, विपक्षी नेताओं की तरह मीडिया भी यहाँ चूक गया। मीडिया का एक धड़ा पूरी तरह नकारात्मक खबरों को दिखाकर लोगों को डरा रहा है। जबकि इन नकारात्मक खबरों की तुलना में सकारात्मक खबरें अधिक हैं। बैंकों के सामने कतार में खड़े लोग कालेधन के खिलाफ सरकार के समर्थन में हैं। इन लोगों की मदद के लिए अनेक स्वयंसेवी आगे आए हैं। बुजुर्गों को बैठने के लिए कुर्सी उपलब्ध करा रहे हैं। चाय-पानी पिला रहे हैं। उनकी पर्ची भर रहे हैं। लोगों को समझा रहे हैं कि जरूरत हो, तब ही बैंक आएं। वहीं, बैंक कर्मचारी भी जनता की मदद के लिए उत्साह से अधिक समय तक काम कर रहे हैं। प्रतिदिन हजारों की भीड़ का सामना करना किसी तनाव से कम है क्या? लेकिन, मीडिया का कैमरा इन उत्साहित चेहरों की ओर नहीं जा रहा है। कहने का आशय इतना ही है कि देशहित में यह महत्त्वपूर्ण समय है, जब हमें अपनी भूमिका का ईमानदारी से निर्वहन करना चाहिए।
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ..... very nice ... Thanks for sharing this!! :) :)
जवाब देंहटाएं