मीडिया शिक्षक डॉ. आशीष द्विवेदी अपनी पुस्तक ‘विज्ञापन का जादू’ में लिखते हैं- “विज्ञापन की दुनिया बड़ी अनूठी और अजीब है। यदि हम इसको समझना चाहते हैं तो शुरुआती दौर से ही उसके अंदर झांकना होगा। जब तक हमारी विज्ञापन को लेकर सारी अवधारणाएं स्पष्ट नहीं हो जातीं, हम विषय की खोह में नहीं जा सकते”। यह सही बात है कि विज्ञापन की अवधारणा को समझना है, तब उसकी दुनिया के हर हिस्से से परिचित होना जरूरी है। डॉ. आशीष द्विवेदी ने अपनी पुस्तक ‘विज्ञापन का जादू’ में यही काम किया है। वे हमें विज्ञापन की दुनिया के अंदर ले जाते हैं और वहाँ की उन गलियों की सैर कराते हैं, जहाँ विज्ञापन कब, कहाँ, क्यों, कैसे और किसलिए की इबारत दर्ज है। विज्ञापन के संसार का संपूर्ण अक्षर ज्ञान ‘अ से ज्ञ’ इस पुस्तक में है। यह हमें विज्ञापन के इतिहास, उसके वर्तमान एवं भविष्य से भी परिचित कराती है। इसके साथ ही विज्ञापन के प्रकार एवं स्वरूप की जानकारी भी देती है। विज्ञापन में रुचि रखनेवाले और पत्रकारिता की पढ़ाई करनेवाले विद्यार्थियों के लिए यह अत्यंत उपयोगी पुस्तक है। भाषा में सरलता और सहजता है। एक रोचक विषय को रोचक ढंग से ही प्रस्तुत किया गया है। विज्ञापन के प्रभाव, उपयोग एवं महत्व को समझाने के लिए लोकप्रिय विज्ञापनों का विश्लेषण किया गया है।
“एक ध्वज का मान रखना, दूसरे ध्वज का निरादर कतई नहीं है”। यही वाक्य, लेखक लोकेन्द्र सिंह की पुस्तक ‘राष्ट्रध्वज और आरएसएस’ का केंद्रीय भाव है, जो उस ऐतिहासिक, वैचारिक और सांस्कृतिक द्वंद्व का प्रकटीकरण करता है, जिसे दशकों से एक सोची-समझी साजिश के तहत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और भारत के राष्ट्रध्वज ‘तिरंगे’ के संबंध में गढ़ा गया। यह पुस्तक केवल तथ्यों का संकलन नहीं है, यह एक वैचारिक और ऐतिहासिक न्याय है उन झूठों और मिथकों के विरुद्ध जिन्हें स्थापित करने का काम वामपंथी बौद्धिक वर्ग ने स्वतंत्रता के बाद से किया है।
मिथक बनाम वास्तविकता: एक नरेटिव का विखंडन
आरएसएस और तिरंगे को लेकर सबसे बड़ा मिथक यही फैलाया गया कि संघ तिरंगे को सम्मान नहीं देता क्योंकि वह केवल भगवा ध्वज को ही पूजनीय मानता है। लेकिन लेखक ने इस भ्रांति को तथ्यों के दम पर चुनौती दी है और यह स्पष्ट किया है कि भगवा ध्वज भारत की सांस्कृतिक चेतना का प्रतिनिधि है, वहीं तिरंगा संवैधानिक राष्ट्रध्वज है और दोनों का स्थान अपनी-अपनी जगह सम्माननीय है।
पुस्तक इस महत्वपूर्ण बिंदु को उभारती है कि “प्रेम एक ध्वज से हो सकता है, तो इसका अर्थ यह नहीं कि दूसरे से बैर है।” इस बात को सुदृढ़ करने के लिए लेखक उन संगठनों और दलों की पोल खोलते हैं जो स्वयं तिरंगे को अपने संगठनिक ध्वज से पृथक रखते आए हैं, लेकिन संघ पर तिरंगे का अनादर करने का झूठा आरोप लगाते हैं। विशेषकर कम्युनिस्ट पार्टियों का उल्लेख है जो दशकों तक अपने कार्यालयों पर तिरंगा नहीं फहराती है। यह उजागर करता है कि असल समस्या संघ नहीं, बल्कि उन संस्थाओं की है जिनका भारतीय राष्ट्रवाद से कोई भावनात्मक संबंध नहीं रहा।
ध्वज का इतिहास: खोया हुआ विमर्श
पुस्तक ध्वज-निर्माण के इतिहास में गहराई से उतरती है। लेखक बताते हैं कि पिंगली वेंकैया द्वारा प्रस्तुत प्रारंभिक ध्वज लाल और हरे रंगों का था, जिसे तत्कालीन राजनीतिक दबावों ने सांप्रदायिक रूप दे दिया। ध्वज समिति द्वारा व्यापक सुझाव लेकर सर्वसम्मति से केसरिया ध्वज की अनुशंसा की गई, जिसमें नीले रंग का चरखा था। यह वह क्षण था जब भारत के सांस्कृतिक प्रतीकों को एक सार्वभौमिक प्रतीक में ढालने का प्रयास हुआ था।
विडंबना यह रही कि यह ऐतिहासिक अवसर भी राजनीतिक समीकरणों की भेंट चढ़ गया। बंबई अधिवेशन में कांग्रेस ने राष्ट्रध्वज समिति के निर्णय को नकारते हुए तिरंगे को ही ध्वज रूप में स्वीकार किया। यह निर्णय ऐतिहासिक या भावनात्मक नहीं, बल्कि तात्कालिक राजनीतिक परिस्थितियों का परिणाम था जिसका असर यह हुआ कि भगवा रंग, जो भारत के ऋषि-परंपरा का प्रतीक था, एक संगठन विशेष से जोड़कर विवादित कर दिया गया।
संघ और तिरंगा: सेवा, समर्पण और साहस
लेखक इस भ्रम को भी तोड़ते हैं कि संघ ने तिरंगे को कभी महत्व नहीं दिया। वे ऐतिहासिक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं – जैसे 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान तेजपुर (असम) में जब सरकारी तंत्र भी मैदान छोड़ चुका था, तब संघ के 16 स्वयंसेवकों ने तिरंगे को आयुक्त मुख्यालय पर फहराए रखा। यह केवल प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि गहरी राष्ट्रभक्ति का प्रमाण था। ऐसे ही गोवा, दमन और दादरा-नगर हवेली की मुक्ति में संघ की भूमिका, जहाँ तिरंगे के सामने पुर्तगाली झंडा चुनौती था। यह दर्शाता है कि संघ के लिए तिरंगा केवल एक ध्वज नहीं, बल्कि भारतीय स्वाधीनता और संप्रभुता का प्रतीक रहा है।
संस्थागत दृष्टिकोण और विचारधारा
गुरुजी गोलवलकर का 1949 का पत्र पुस्तक में एक निर्णायक साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत होता है, जिसमें वे स्पष्ट करते हैं कि भगवा ध्वज का आरएसएस के संस्थागत प्रतीक के रूप में प्रयोग संविधान द्वारा मान्य तिरंगे से अलग है। कांग्रेस का भी अलग झंडा रहा है, फिर संघ का प्रतीक-ध्वज अस्वीकार्य क्यों? यह सवाल पाठक को मजबूर करता है कि राष्ट्रवाद के नाम पर संघ की आलोचना करने वाले स्वयं किस पाखंड के तहत कार्य कर रहे हैं?
वैचारिक धोखे और मीडिया प्रपंच
पुस्तक का सबसे सशक्त भाग वह है जिसमें लेखक यह उजागर करते हैं कि संघ को तिरंगे विरोधी बताने की साजिश के पीछे वामपंथी विचारधारा से पोषित व्यक्ति और संस्थान रहे हैं। उन्होंने ही यह नैरेटिव गढ़ा कि तिरंगा आधुनिक, संवैधानिक भारत का प्रतीक है और संघ केवल पुरातनवाद का प्रतीक है। लेकिन क्या यह तथ्य नहीं कि जिन वामपंथियों ने “ये आज़ादी झूठी है” जैसा नारा दिया, जिन्होंने दशकों तक राष्ट्रीय पर्वों से दूरी बनाई, वे ही आज तिरंगे के स्वयंभू ठेकेदार बने हुए हैं?
पुस्तक इस विडंबना को रेखांकित करती है और यह बताती है कि राष्ट्रीय प्रतीकों के साथ सच्चा संबंध केवल दिखावे से नहीं, सेवा, समर्पण और निष्ठा से बनता है, जो संघ ने हर मौके पर साबित किया है।
निष्कर्ष: एक वैचारिक सर्जरी
“राष्ट्रध्वज और आरएसएस” केवल एक इतिहास की पुनर्पाठ नहीं है, यह एक वैचारिक सर्जरी है। यह पुस्तक उस प्रपंच को उजागर करती है जिसमें तिरंगे के नाम पर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को अपमानित किया गया। यह पाठक को सोचने पर मजबूर करती है कि आखिर झंडे का अपमान किसने किया? जिन्होंने उसे सहेजा और सेवा में जीवन समर्पित किया, या जिन्होंने दशकों तक उसे अपने दफ्तरों से गायब रखा?
लेखक लोकेन्द्र सिंह की यह पुस्तक इतिहास के उस कोने को प्रकाश में लाती है जिसे जानबूझकर अंधकार में रखा गया। यह केवल संघ और तिरंगे की बात नहीं करती, यह भारतीय राष्ट्रवाद की उस लड़ाई का प्रतिनिधित्व करती है जो प्रतीकों, झंडों और विचारों के माध्यम से लड़ी जा रही है।
और अंततः यह पुस्तक पाठक के सामने एक सीधा प्रश्न रखती है, क्या राष्ट्रध्वज का मान केवल सरकारों का दायित्व है या समाज के प्रत्येक उस हिस्से का जिसने इसे अपने जीवन की आस्था बनाया है?
समीक्षा का सार बस यही है कि यदि आप तिरंगे से प्रेम करते हैं, तो उन हाथों को पहचानिए जिन्होंने इसे केवल फहराया नहीं, बल्कि हर तूफान में इसे संभाला भी है। यही संदेश है “राष्ट्रध्वज और आरएसएस” का जो मिथकों का ही नहीं, सच्चाई का ध्वजवाहक है।
माखनलालजी का समाचारपत्र ‘कर्मवीर’ बना अनूठा शिलालेख
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के परिसर में स्थापित पंडित माखनलाल चतुर्वेदी की प्रतिमा और उस पर लगा अनूठा शिलालेख
स्मारक, भवन, परिसर इत्यादि के भूमिपूजन या उद्घाटन प्रसंग पर पत्थर लगाने (शिलालेख) की परंपरा का निर्वहन किया जाता है। यह इस बात का दस्तावेज होता है कि वास्तु का भूमिपूजन/ उद्घाटन / लोकार्पण कब और किसके द्वारा सम्पन्न किया गया। ये शिलालेख एक प्रकार से इतिहास और महत्वपूर्ण घटनाओं के विवरण को समझने में सहायता करते हैं। इन शिलालेखों का एक तयशुदा प्रारूप है, हम सबने देखे ही हैं। किंतु, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के नवीन परिसर में स्वतंत्रतासेनानी एवं प्रखर संपादक पंडित माखनलाल चतुर्वेदी के प्रतिमा अनावरण प्रसंग पर लगाया गया शिलालेख अनूठा है और अपने आप में अद्भुत है। मुझे विश्वास है कि ऐसा शिलालेख आपने पहले नहीं देखा होगा। माखनलालजी की प्रतिमा के ‘पेडस्टल’ पर आपको समाचारपत्र का प्रथम पृष्ठ चस्पा दिखायी देगा। दरअसल, समाचारपत्र का यह ‘फ्रंट पेज’ ही दादा माखनलाल चतुर्वेदी की इस प्रतिमा का ‘शिलालेख’ है। यह रचनात्मक और अभिनव शिलालेख अपने सृजनात्मक लेखन के लिए पहचाने जानेवाले विश्वविद्यालय के कुलगुरु श्री विजय मनोहर तिवारी की सुंदर कल्पना है। अगर आप माखनलालजी की प्रतिमा के समीप आ रहे हैं, तो यह शिलालेख आपको विश्वविद्यालय की 35 वर्ष की यात्रा, उसकी उपलब्धियों और भविष्य के स्वप्नों से भेंट करा देगा।
क्या अंग्रेजों के डर से जर्मनी भाग गए थे नेताजी सुभाषचंद्र बोस? केरल की कम्युनिस्ट सरकार ने बच्चों को यही पढ़ाने की तैयारी कर रखी थी
कम्युनिस्ट सरकार केरल के विद्यालयों में बच्चों को पढ़ा रही थी कि स्वतंत्रता सेनानी नेताजी सुभाषचंद्र बोस ‘अंग्रेजों के डर से जर्मनी भाग गए थे’। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने जब इस मामले को उठाया और डटकर सरकार का विरोध किया, तब कम्युनिस्ट सरकार को अपने कदम वापस खींचने को मजबूर होना पड़ा है। राज्य शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एससीईआरटी) की चौथी कक्षा की एक हैंडबुक में सुभाष चंद्र बोस के बारे में यह दावा किया गया है। यह सिर्फ एक तथ्यात्मक गलती नहीं है, बल्कि भारत के एक महानतम स्वतंत्रता सेनानी के शौर्य और बलिदान को जानबूझकर विकृत करने का एक निंदनीय प्रयास है। नेताजी सुभाष चंद्र बोस डर से नहीं, बल्कि अंग्रेजों के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय समर्थन जुटाने और एक सशक्त सैन्य मोर्चा बनाने के दृढ़ संकल्प के साथ भारत से बाहर गए थे। उनकी आजाद हिंद फौज (आईएनए) ब्रिटिश शासन के लिए एक बड़ी चुनौती थी और आज भी यह लोगों को प्रेरणा देती है। हालांकि केरल सरकार कह रही है कि यह गलती है, हम इसे सुधार रहे हैं और भविष्य में ध्यान रखेंगे। यह गलती है या कम्युनिस्टों की नेताजी सुभाषचंद्र बोस के प्रति वास्तविक सोच है, इसका विश्लेषण करने के अनेक प्रमाण उपलब्ध हैं। क्योंकि यह अकेली या आकस्मिक घटना नहीं है, यह कम्युनिज्म विचारधारा के उस ओछी मानसिकता को प्रदर्शित करती है, जो नेताजी के प्रति उनके मन में शुरू से रही है।
प्रजापिता ब्रह्माकुमारीज ईश्वरीय विश्वविद्याल के मीडिया आयाम की ओर से 30 जुलाई से 3 अगस्त, 2025 तक पहली बार ‘सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स रिट्रीट : रोल ऑफ डिजिटल मीडिया इन ट्रांसफॉर्मिंग सोसायटी’ का आयोजन किया गया, जिसमें देशभर से सोशल मीडिया के प्रभावशाली उपयोगकर्ता आए। कई जाने-पहचाने थे तो कुछ से नया परिचय हुआ। उनके काम ने नया सीखने और करने की ललक पैदा की। जब मैं ब्रह्माकुमारीज के इस आयोजन के लिए भोपाल से प्रस्थान कर रहा था तब हृदय में उत्साह था, मन में जिज्ञासा और आत्मा कहीं भीतर से एक नए अनुभव के लिए पुकार रही थी। इस यात्रा का उद्देश्य मात्र एक ‘रिट्रीट’ में भाग लेना नहीं था, बल्कि अपने भीतर छुपी उस नीरव शांति को खोज पाना था, जिसे रोज़मर्रा की भागदौड़ ने जैसे ढंक लिया है। यकीनन, मेरे लिए यह आयोजन ‘सोशल मीडिया रिट्रीट’ से कहीं अधिक स्वयं से साक्षात्कार का अवसर बन गया। आबू रोड स्थित ब्रह्माकुमारी के मनमोहिनीवन परिसर में प्रवेश करते ही आध्यात्मिक ऊर्जा की अनुभूति हुई। पहले ही दिन प्रतीत हो गया कि आगामी चार दिन, अविस्मरणीय होनेवाले हैं। यह आयोजन मेरे जीवन का एक ऐसा अनमोल अनुभव बना जिसने मेरी सोच, दृष्टिकोण और आत्मिक ऊर्जा को एक नया आयाम दिया। यहाँ से आध्यात्मिक चेतना से जुड़ने की दिशा में एक नये सफर की शुरुआत करने का प्रयास रहेगा।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक के बारे में अज्ञानता से घिरे लोग अकसर यह प्रश्न पूछते हैं कि स्वतंत्रता आंदोलन में संघ की क्या भूमिका रही है? कुछ लोग इससे भी आगे बढ़ जाते हैं और पूछते हैं कि संघ के किसी एक कार्यकर्ता का नाम ही बता दीजिए, जिसने स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया हो? संघ की स्थापना जिन्होंने की, वे डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार स्वयं ही जन्मजात देशभक्त थे। डॉ. हेडगेवार क्रांतिकारी भी रहे, कांग्रेस में रहकर राजनीतिक संघर्ष किया और जेल भी गए। बाद में, देश की सर्वांग स्वतंत्रता और स्वतंत्रता को स्थायी बनाने के उद्देश्य से उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की। डॉ. हेडगेवार अकेले नहीं हैं, अपितु स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सा लेनेवाले संघ के ज्ञात-अज्ञात कार्यकर्ताओं की लंबी शृंखला है। जो संगठन अपने कार्यकर्ताओं को यह शपथ दिलाता हो कि “मैं हिन्दूराष्ट्र को स्वतंत्र कराने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का घटक बना हूँ”, उसने कितने ही लोगों के मन में स्वतंत्रता प्राप्ति का भाव भरा होगा, उसकी सहज कल्पना की जा सकती है।
भारत में प्रतिज्ञा का बहुत महत्व है। हमें भीष्म प्रतिज्ञा का स्मरण है। राजा हरिशचंद्र की सत्य बोलने की प्रतिज्ञा ध्यान है। मुगलिया सल्तनत के अत्याचार के विरुद्ध महाराण प्रताप की प्रतिज्ञा को कौन भूल सकता है। छत्रपति शिवाजी महाराज ने शिव को साक्षी मानकर प्रतिज्ञा करके ‘स्वराज्य’ की नींव रखी, जिसे साकार करने में संपूर्ण समाज प्राणपण से जुट गया। संघ के स्वयंसेवक भी इसी भाव के साथ प्रतिज्ञाबद्ध होते हैं कि वह जो प्रतिज्ञा ले रहे हैं, उसको पूर्ण करने में अपना सर्वस्व देंगे और प्रतिज्ञा को आजन्म निभाएंगे। मार्च 1928 में नागपुर के निकट एक पहाड़ी पर स्वयंसेवकों को एकत्र करके, भगवाध्वज के समक्ष प्रतिज्ञा का पहला कार्यक्रम सम्पन्न कराया गया था। देश की पूर्ण स्वतंत्रता एवं विकास के लिए स्वयंसेवकों को वीरव्रती बनाने के निमित्त आयोजित इस प्रथम कार्यक्रम में 99 स्वयंसेवकों ने प्रतिज्ञा की थी। इस अवसर पर डॉ. हेडगेवार ने संघ के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए जो भाषण दिया, वह स्वतंत्रता प्राप्ति की संघ की आकांक्षा को स्पष्टतौर पर व्यक्त करता है। उन्होंने कहा- “हमारा उद्देश्य हिन्दू राष्ट्र की पूर्ण स्वाधीनता है। संघ का निर्माण इसी महान लक्ष्य के लिए हुआ है”। इस स्पष्ट अभिव्यक्ति के बाद कहने के लिए कुछ और भी बचता है क्या? यह भी समझना होगा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता अपनी नित्य प्रार्थना में कहते हैं कि इस राष्ट्र को परम वैभव पर लेकर जाना है। क्या कोई पराधीन राष्ट्र परम वैभव पर जा सकता है? स्पष्ट है कि भारत की स्वतंत्रता का लक्ष्य संघ की स्थापना में निहित था।
स्वतंत्रता से पूर्व संघ के स्वयंसेवकों द्वारा की जानेवाली प्रतिज्ञा
डॉक्टर साहब ने 1929 में वर्धा में आयोजित प्रशिक्षण वर्ग में भी स्वयंसेवकों एवं नागरिकों की एक सभा में प्रखरता के साथ कहा- “ब्रिटेन की सरकार ने अनेक बार भारत को स्वतंत्र करने का आश्वासन दिया है, परंतु वह झूठा साबित हुआ। अब यह साफ हो गया कि भारत अपने बल पर स्वतंत्रता प्राप्त करेगा”। याद रहे कि डॉ. हेडगेवार ने महात्मा गांधी के आह्वान पर ‘नमक सत्याग्रह’ में शामिल होकर विदर्भ प्रांत में 1930 में ‘जंगल सत्याग्रह’ किया। इस आंदोलन में उनके साथ अनेक प्रमुख स्वयंसेवकों ने हिस्सा लिया। सत्याग्रहियों को पुलिस ने गिरफ्तार किया और जेल भेज दिया। डॉक्टर साहब को नौ माह का कठोर कारावास दिया गया। इससे पूर्व 1921 के आंदोलन में भी डॉक्टर साहब को जेल की सजा हुई थी। महात्मा गांधी के सविनय अवज्ञा आंदोलन को मध्यभारत में सफल बनाने के लिए स्वयंसेवकों ने अथक प्रयास किया। संघ के सरकार्यवाह जीएम हुद्दार, नागपुर के संघचालक अप्पा साहेब हलदे, सिरपुर के संघचालक बाबूराव वैद्य, संघ के सरसेनापति मार्तंडराव जोग के साथ संघ के अन्य प्रमुख कार्यकर्ताओं के आंदोलन में शामिल होने के कारण चार-चार माह का कारावास मिला।
अपनी स्थापना के कई वर्षों बाद कांग्रेस को जनमानस के दबाव के कारण 31 दिसंबर, 1929 को लाहौर में रावी के तट पर पहली बार ‘पूर्ण स्वराज्य’ का प्रस्ताव पारित करना पड़ा। याद रहे कि डॉ. हेडगेवार ने 1920 में नागपुर में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में ही पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव पारित कराने का प्रयास किया था। उन्होंने कांग्रेस की प्रस्ताव समिति के सामने सुझाव रखा था कि कांग्रेस का उद्देश्य भारत को पूर्ण स्वतंत्र कर भारतीय गणतंत्र की स्थापना करना और विश्व को पूंजीवाद के चंगुल से मुक्त करना होना चाहिए। बहरहाल, सम्पूर्ण स्वतंत्रता का उनका सुझाव कांग्रेस ने 9 वर्ष बाद 1929 के लाहौर अधिवेशन में स्वीकृत किया। कांग्रेस का यह निर्णय संघ के घोषित उद्देश्य के अनुरूप था। इसलिए इससे आनंदित होकर सरसंघचालक डॉ. हेडगेवार ने संघ की सभी शाखाओं को 26 जनवरी, 1930 को कांग्रेस का अभिनंदन करने, राष्ट्रध्वज का वंदन करने और स्वतंत्रता दिवस मनाने के लिए निर्देशित किया। साथ ही यह भी कहा कि शाखाओं पर भाषण करके स्वतंत्रता के वास्तविक अर्थ एवं महत्व को समझाया जाए। सरसंघचालक के निर्देशानुसार, संघ की सभी शाखाओं पर 26 जनवरी, 1930 को सायं 6 बजे स्वतंत्रता दिवस मनाया गया।
26 जनवरी, 1930 को संघ की सभी शाखाओं में स्वतंत्रता दिवस मनाने के लिए आरएसएस संस्थापक सरसंघचालक डॉ. हेडगेवार ने लिखा पत्र
संघ के स्वयंसेवकों ने 1942 के ‘अंग्रेजो, भारत छोड़ो’ आंदोलन में भी सहभागिता की। 8 अगस्त, 1942 को मुंबई के गोवलिया टैंक मैदान पर कांग्रेस अधिवेशन में महात्मा गांधीजी ने आंदोलन की घोषणा की। दूसरे दिन से ही देशभर में आंदोलन प्रारंभ हो गया। विदर्भ में बावली (अमरावती), आष्टी (वर्धा) और चिमूर (चंद्रपुर) में हुए आंदोलनों में संघ के स्वयंसेवकों ने ही नेतृत्व किया। चिमूर के समाचार बर्लिन रेडियो पर भी प्रसारित हुए। यहां के आन्दोलन का नेतृत्व कांग्रेस के उद्धवराव कोरेकर और संघ के अधिकारी दादा नाईक, बाबूराव बेगडे, अण्णाजी सिरास ने किया। चिमूर के इस आन्दोलन में अंग्रेज की गोली से एकमात्र मृत्यु बालाजी रायपुरकर की हुई, जो संघ स्वयंसेवक थे। इस आंदोलन के अंतर्गत राजस्थान में प्रचारक जयदेवजी पाठक, आर्वी (विदर्भ) में डॉ. अण्णासाहब देशपांडे, जशपुर (छत्तीसगढ़) में रमाकांत केशव (बालासाहब) देशपांडे, दिल्ली में वसंतराव ओक एवं चंद्रकांत भारद्वाज और पटना (बिहार) में अधिवक्ता कृष्ण वल्लभप्रसाद नारायण सिंह (बबुआजी) ने भाग लिया।
अंग्रेज सरकार संघ के बढ़ते प्रभाव से घबरा गई थी। इसलिए उसने संघ पर आंशिक प्रतिबंध लगाने शुरू कर दिए ताकि संघरूपी आंदोलन को रोका जा सके। गुप्तचर विभाग की रिपोर्ट के आधार पर अंग्रेज सरकार ने सबसे पहले 15 दिसंबर, 1932 को एक सर्कुलर निकालकर सरकारी कर्मचारियों को संघ में भाग लेने से प्रतिबंधित कर दिया। वहीं, 5 अगस्त, 1940 को ब्रिटिश सरकार ने संघ की सैनिक वेशभूषा और प्रशिक्षण पर पूरे देश में प्रतिबंध लगा दिया। क्योंकि सरकार को गुप्तचर रिपोर्ट में यह जानकारी मिलने लगी थी कि संघ के स्वयंसेवक पूर्ण स्वतंत्रता की ओर तेजी से अग्रसर हैं। राष्ट्रीय आंदोलनों में बढ़-चढ़ कर सहभागिता कर रहे हैं। उल्लेखनीय है कि संघ के प्रचारक बाबा साहब आप्टे ने 12 दिसंबर, 1943 को जबलपुर में गुरुदक्षिणा उत्सव पर स्वयंसेवकों से कहा- “अंग्रेजों का अत्याचार असहनीय है, देश को स्वतंत्रता के लिए तैयार हो जाना चाहिए”। संघ अपनी स्थापना के समय से ही देश की स्वतंत्रता का स्वप्न लेकर चल रहा था। भारत की सर्वांग स्वतंत्रता के लिए संघ के स्वयंसेवक प्रतिज्ञाबद्ध थे इसलिए अवसर आने पर उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलनों में सहभागिता की, जेल गए और बलिदान भी दिया।
आवारा कुत्तों को सड़कों से हटाकर आश्रय स्थल में भेजने के निर्णय का विरोध करने जो 'डॉग लवर्स' सोशल मीडिया/सड़कों पर मोमबत्ती लेकर उतरे हैं, उनमें से कई लोग कई जीवों का भक्षण बहुत स्वाद से करते होंगे। जब ये लोग बोटी/हड्डी को चटकारे लेकर चबाते हैं तब क्या इनके भीतर से आवाज नहीं आती कि अपने स्वाद के लिए किसी के प्राण ही ले लिए? यहां तो कुत्तों को मारा नहीं जा रहा है, उन्हें केवल सड़क से शेल्टर में शिफ्ट किया जा रहा है। कभी सोचा है कि आप लोग तो अपनी जीभ के स्वाद के लिए कितने की बकरों/मुर्गों की हत्या के कारण बन चुके हो?