राष्ट्रीय शिक्षा नीति के बहाने तमिलनाडु में फिर से हिन्दी विरोध की राजनीति होते देखना अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन और उनके पुत्र उपमुख्यमंत्री उदयनिधि स्टालिन ने अपनी राजनीतिक जमीन को बचाने के लिए हिन्दी विरोध की राजनीति को हवा देना शुरू कर दिया है। उनको लगता है कि राज्य में अपनी प्रासंगिकता को बचाने और भाजपा के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए यही एक रास्ता है। आश्चर्यजनक बात यह है कि इस संबंध में मुख्यमंत्री स्टालिन झूठ का सहारा लेने में भी संकोच नहीं कर रहे हैं। जब भारत के दक्षिणी हिस्से से उन्हें हिन्दी विरोध में कोई खास समर्थन मिलता नहीं दिखा तो उन्होंने अपनी कुटिल मानसिकता का प्रदर्शन करते हुए बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, हिमाचल सहित अन्य राज्यों में भाषायी संघर्ष का विस्तार करने की दृष्टि से बयानबाजी प्रारंभ कर दी है। एक संवैधानिक पद पर बैठा व्यक्ति क्षुद्र राजनीति करने के लिए ऐसे मूखर्तापूर्ण बयान दे रहा है कि उससे उसकी ही जगहंसाई हो रही है।
भारत के उत्तरी हिस्से के राज्यों के नागरिकों को भाषा के आधार पर भड़काने के लिए उन्होंने कहा कि “अन्य राज्यों के प्यारे बहनों और भाइयों, क्या आपने कभी सोचा है कि हिन्दी ने कितनी भारतीय भाषाओं को निगल लिया है? हिन्दी उत्तर भारत की भाषाओं को निगल गई है। भोजपुरी, मैथिली, अवधी, ब्रज, बुंदेली, गढ़वाली, कुमाऊंनी, मगही, मारवाड़ी, मालवी, छत्तीसगढ़ी, संथाली, अंगिका, खरिया, खोरठा, कुरमाली, कुरुख, मुंडारी जैसी भाषाएं अब अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही हैं”।
हद है, उन्हें भाषा और बोली का अंतर भी नहीं पता। उन्हें भाषा के विकास का इतिहास पढ़ना चाहिए। यह सब भाषाएं नहीं हैं अपितु हिन्दी की बोलियां हैं, जो हिन्दी के संसार को समृद्ध करती हैं। हिन्दी ने इन्हें निगला नहीं है अपितु इनका संरक्षण किया है। यदि भारत में भारतीय भाषाओं को निगलने का काम कोई कर रहा है, तो वह अंग्रेजी है। हमारे नीति-नियंताओं ने स्वतंत्रता के बाद भारतीय भाषाओं की विरासत को महत्व देने की जगह अंग्रेजी के प्रभुत्व को स्वीकार कर लिया था। जिसके कारण नयी पीढ़ी विदेशी भाषा को सीखने के प्रयत्न में अपनी मातृभाषा से दूर होने लगी।
यदि स्टालिन वाकई तमिल भाषा को लेकर संवेदनशील हैं, तब उन्हें अंग्रेजी के प्रभुत्व का विरोध करना चाहिए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा सरकार का तो उन्हें धन्यवाद देना चाहिए, जिन्होंने तमिल एवं अन्य भारतीय भाषाओं के महत्व को स्थापित करने के अनेक प्रयास किए हैं। तमिल भाषा और संस्कृति की महिमा का बखान करने में प्रधानमंत्री मोदी कोई अवसर नहीं चूकते हैं। उन्होंने इस बात पर बार-बार बल दिया है कि तमिल दुनिया की सबसे पुरानी भाषाओं में से एक है, जो पूरे देश के लिए गर्व का विषय है। तमिल इतिहास के संरक्षण और सम्मान के प्रति उनकी प्रतिबद्धता सिंगापुर में तिरुवल्लुवर सांस्कृतिक केंद्र की स्थापना, जकार्ता के मुरुगन मंदिर में महाकुंभाभिषेकम समारोह में उनकी भागीदार और संसद में सिंगोल की प्रतिष्ठा से प्रदर्शित हुई। उनकी पहल पर ‘काशी-तमिल संगमम’ और ‘सौराष्ट्र-तमिल संगमम’ जैसी अनूठी पहल प्रारंभ हुई है। इस पहल के संदर्भ में प्रधानमंत्री मोदी कहते हैं कि “काशी और तमिलनाडु के बीच शाश्वत सभ्यतागत संबंधों का उत्सव मनाते हुए, यह मंच सदियों से विकसित आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक संबंधों को एक साथ लाता है”।
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन जिस राष्ट्रीय शिक्षा नीति के बहाने वे हिन्दी विरोध की राजनीति करना चाह रहे हैं, वह शिक्षा नीति तो भारतीय भाषाओं का संरक्षण करती है। पहली बार है जब शिक्षा नीति में मातृभाषा में अध्ययन-अध्यापन को प्राथमिकता दी है।
शिक्षा नीति के त्रिभाषा सूत्र को अपनाने और एक भाषा के रूप में भारतीय भाषा सीखने को हिंदी थोपना नहीं कह सकते। त्रिभाषा सूत्र में विद्यार्थी अपनी रुचि की भाषा को चुन सकता है। उसके सामने कोई बंधन या मजबूरी नहीं है। हिन्दी को थोपने के आरोप तब सही माने जाते जब हिन्दी सीखना अनिवार्य किया जाता। इसलिए स्टालिन का हिन्दी विरोध केवल और केवल संकीर्ण राजनीति है। उन्हें अपना राजनीतिक भविष्य अंधकारमय दिख रहा है। हिन्दी विरोध को हवा देकर वे भ्रम का वातावरण खड़ा करना चाहते हैं, ताकि उसमें से अपनी राजनीतिक जमीन के लिए कुछ रास्ता बनाया जा सके। उम्मीद है कि तमिलनाडु की जनता उनकी इस संकीर्ण राजनीति में नहीं उलछेगी।
कहना होगा कि तमिलनाडु समेत पूरे दक्षिण भारत के तमाम राज्यों में हिन्दी के प्रति अब वह व्यवहार नहीं रहा, जो दशकों ऐसी ही संकीर्ण राजनीति ने बनाया था। अब वहाँ के लोग हिन्दी सीखने में उत्साह दिखा रहे हैं क्योंकि हिन्दी सीखने से उनके लिए संपूर्ण भारत में रोजगार के अवसर खुलते हैं। एक तरह से देखें तो हिन्दी विरोध की राजनीति तमिलनाडु की जनता के विकास के मार्ग को भी अवरुद्ध करती है। इसलिए भी ऐसा माना जा सकता है कि तमिलनाडु के लोग स्टालिन के भड़काने से भड़केंगे और बहकेंगे नहीं। वे सब दशकों पुरानी मानसिकता और छलावे से निकलकर बहुत दूर आ चुके हैं।