स्वराज्य 350 : आज से प्रारंभ हो रहा है छत्रपति शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक एवं हिन्दू साम्राज्य की स्थापना का 350वाँ वर्ष
आज का दिन बहुत पावन है। आज से ‘हिन्दवी स्वराज्य’ की स्थापना का 350वां वर्ष प्रारंभ हो रहा है। विक्रम संवत 1731, ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष त्रयोदशी (6 जून, 1674) को स्वराज्य के प्रणेता एवं महान हिन्दू राजा श्रीशिव छत्रपति के राज्याभिषेक और हिन्दू पद पादशाही की स्थापना से भारतीय इतिहास को नयी दिशा मिली। कहते हैं कि यदि छत्रपति शिवाजी महाराज का जन्म न होता और उन्होंने हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना न की होती, तब भारत अंधकार की दिशा में बहुत आगे चला जाता। महान विजयनगर साम्राज्य के पतन के बाद भारतीय समाज का आत्मविश्वास निचले तल पर चला गया। अपने ही देश में फिर कभी हमारा अपना शासन होगा, जो भारतीय मूल्यों से संचालित हो, लोगों ने यह कल्पना करना ही छोड़ दिया। तब शिवाजी महाराज ने कुछ वीर पराक्रमी मित्रों के साथ ‘स्वराज्य’ की स्थापना का संकल्प लिया और अपने कृतित्व एवं विचारों से जनमानस के भीतर भी आत्मविश्वास जगाया। विषबेल की तरह फैलते मुगल शासन को रोकने और उखाड़ फेंकने का साहस शिवाजी महाराज ने दिखाया। गोविन्द सखाराम सरदेसाई अपनी पुस्तक ‘द हिस्ट्री ऑफ द मराठाज-शिवाजी एंड हिज टाइम’ के वॉल्यूम-1 के पृष्ठ 97-98 पर लिखते हैं कि ‘मुस्लिम शासन में घोर अन्धकार व्याप्त था। कोई पूछताछ नहीं, कोई न्याय नहीं। अधिकारी जो मर्जी करते थे। महिलाओं के सम्मान का उल्लंघन, हिंदुओं की हत्याएं और धर्मांतरण, उनके मंदिरों को तोड़ना, गोहत्या और इसी तरह के घृणित अत्याचार उस सरकार के अधीन हो रहे थे।। निज़ाम शाह ने जिजाऊ माँ साहेब के पिता, उनके भाइयों और पुत्रों की खुलेआम हत्या कर दी। बजाजी निंबालकर को जबरन इस्लाम कबूल कराया गया। अनगिनत उदाहरण उद्धृत किए जा सकते हैं। हिन्दू सम्मानित जीवन नहीं जी सकते थे’। ऐसे दौर में मुगलों के अत्याचारी शासन के विरुद्ध शिवाजी महाराज ने ऐसे साम्राज्य की स्थापना की जो भारत के ‘स्व’ पर आधारित था। उनके शासन में प्रजा सुखी और समृद्ध हुई। धर्म-संस्कृति फिर से पुलकित हो उठी।
हिन्दवी स्वराज्य 350 वर्ष के बाद भी प्रासंगिक है क्योंकि वह जिन आदर्शों पर खड़ा था, वे सार्वभौमिक और कालजयी हैं। हिन्दवी स्वराज्य की चर्चा इसलिए भी प्रासंगिक है क्योंकि संयोग से केंद्र में आज ऐसी शासन व्यवस्था है, जो भारत को उसके ‘स्व’ से परिचित कराने के लिए कृत-संकल्पित है। हिन्दवी स्वराज्य का स्मरण एवं उसका अध्ययन हमें ‘स्व’ के और अधिक समीप लेकर जाएगा। प्रसिद्ध इतिहासकार जदुनाथ सरदार के अनुसार, “शिवाजी के राजनीतिक आदर्श ऐसे थे कि हम उन्हें आज भी लगभग बिना किसी परिवर्तन के स्वीकार कर सकते हैं। उन्होंने अपनी प्रजा को शांति, सार्वभौमिक सहिष्णुता, सभी जातियों और पंथों के लिए समान अवसर, प्रशासन की एक लाभकारी, सक्रिय और शुद्ध प्रणाली, व्यापार को बढ़ावा देने के लिए एक नौसेना और मातृभूमि की रक्षा के लिए एक प्रशिक्षित सेना देने का लक्ष्य रखा”। यदि हम वर्तमान मोदी सरकार की शासन व्यवस्था के सिद्धाँतों को देखें, तो उसके केंद्र में भी लगभग यही विचार है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बार-बार यह उल्लेखित करते हैं कि उनकी सरकार ‘सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास’ के मंत्र को लेकर चल रही है। शिवाजी महाराज ने राज्य को ‘स्व’ का आधार देते हुए भारत केंद्रित नीतियों को बढ़ावा दिया, जैसे- फारसी और अरबी को हटाकर स्वभाषा का प्रचलन, विदेशी मुद्रा की जगह स्वराज्य की नयी मुद्रा शुरू करना, किसानों और सरकार के बीच से बहुत समय से प्रचलित आढ़ती व्यवस्था को हटाकर राजस्व संग्रह करने के लिए रैयतवाडी व्यवस्था प्रारंभ की, सीमा सुरक्षा के नये प्रबंध, विदेश नीति में बदल, राज्य व्यवस्था को सुचारू बनाने के लिए अष्टप्रधान मंडल की व्यवस्था, सैन्य सशक्तिकरण पर जोर और मुगलों की अन्य व्यवस्थाओं को ध्वस्त करके नयी व्यवस्थाएं खड़ी करना। हिन्दवी स्वराज्य की भाँति ही वर्तमान केंद्र सरकार भी मानती है कि कृषि एवं उद्योग को प्रोत्साहन देकर लोगों की आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति की जा सकती है। जब लोग आत्मनिर्भर होंगे, तब ही राज्य भी आत्मनिर्भर होकर प्रगति की दिशा में आगे बढ़ेगा। वर्तमान सरकार ने कृषि सुधारों के लिए आगे बढ़कर पहल की है। हालांकि कुछ लोगों की जिद के कारण सरकार को तीन ऐतिहासिक कृषि कानून वापस लेने पड़े। मुद्रा प्रबंधन में भी सरकार शिवाजी महाराज की तरह सजग है। जाली नोटों से निपटने एवं कालेधन पर चोट करने के लिए केंद्र सरकार ने विमुद्रीकरण की प्रक्रिया को अपनाया। जब एक बार फिर सरकार को लगा कि दो हजार रुपये के नोट के रूप में कालाधन जमा होने लगा है और जाली नोट की संख्या भी बढ़ रही है, तब एक बार फिर सरकार ने मुद्रा प्रबंधन के सिद्धांत का पालन करते हुए इस बड़े नोट के प्रचलन को बंद कर दिया।
कल्याणकारी राज्य की स्थापना का एक और सिद्धांत है कि राजनीति में परिवारवाद के लिए स्थान नहीं होना चाहिए। जब छत्रपति शिवाजी महाराज ने ‘स्वराज्य’ की स्थापना की, तब उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया था कि यह भोंसले घराने का शासन नहीं है, यह मराठा साम्राज्य भी नहीं है, यह हम सबका ‘स्वराज्य’ है। इसमें सबकी समान भागीदारी है। यह ईश्वरी की इच्छा से स्थापित ‘हिन्दू साम्राज्य’ है। इसलिए उन्होंने अपने साम्राज्य को महाराष्ट्र साम्राज्य, मराठी साम्राज्य, भोंसले साम्राज्य नाम न देकर, उसे ‘हिन्दवी साम्राज्य’ और ‘हिन्दू पद पादशाही’ कहा। मुगल साम्राज्य के ज्यादातर किलों का प्रमुख औरंगजेब का कोई रिश्तेदार ही था। जबकि हिन्दवी स्वराज्य में किलेदार की नियुक्ति की कड़ी और पारदर्शी व्यवस्था थी, तय मापदंड पर खरा उतरनेवाले व्यक्ति को ही किले की जिम्मेदारी मिलती थी। उनके राज्य के शासन में किसी के लिए अनुशासन में ढील नहीं थी। जो नियम सामान्य नागरिक के लिए थे, उनका पालन महाराज भी उतनी ही कठोरता से करते थे। अपराध करने पर उनके रिश्तेदार भी सजा और कानून से बच नहीं सकते थे। उनका शासन सही अर्थों में प्रजा का शासन था। मछुआरों से लेकर वेदशास्त्र पंडित, सभी उनके राज्यशासन में सहभागी थे। स्वराज्य में छुआछूत के लिए कोई स्थान नहीं था। पन्हाल गढ़ की घेराबंदी में नकली शिवाजी बनकर महाराज की रक्षा करनेवाले शिवा काशिद, जाति से नाई थे। अफजल खान के समर प्रसंग में शिवाजी के प्राणों की रक्षा करनेवाला जीवा महाला था। आगरा के किले में कैद के दौरान उनकी सेवा करने वाला मदारी मेहतर था।
हिन्दवी स्वराज्य के 350वें वर्ष में जब हम उसका अध्ययन करेंगे तो एक बात स्पष्ट तौर पर दिखायी देगी कि छत्रपति शिवाजी महाराज मात्र एक व्यक्ति या राजा नहीं, वे एक विचार और एक युगप्रवर्तन के शिल्पकार थे। इसलिए जब ईस्वी सन् 1680 में शिवाजी महाराज ने हिन्दवी स्वराज्य की राजधानी दुर्गदुर्गेश्वर ‘रायगढ़’ की गोद में अंतिम सांस ली, तो उनका विचार उनके साथ समाप्त नहीं हुआ। अकसर यह होता है कि कोई प्रतापी राजा अपने बाहुबल और सैन्य कौशल से बड़े साम्राज्य की स्थापना करता है लेकिन उसकी मृत्यु के बाद वह साम्राज्य ढह जाता है। शिवाजी महाराज के साथ ठीक उलटा हुआ। उनके देवलोकगमन के बाद हिन्दवी साम्राज्य का अधिक विस्तार हुआ और वह समय भी आया जब मुगलिया सल्तनत धूलि में मिल गई तथा भारतवर्ष में हिन्दवी स्वराज्य का परम पवित्र भगवा ध्वज गर्व से लहराने लगा।
सह्याद्रि की पर्वत शृंखलाओं में सांय-सांय करती हवा पर कान धरा जाए तो आज भी वीर बालक शिवा की प्रतिज्ञा की वह गूंज सुनी जा सकती है, जिसने धर्मद्रोही मुगलिया सल्तनत को उखाड़ फेंक दिया था...
— लोकेन्द्र सिंह (Lokendra Singh) (@lokendra_777) April 26, 2023
हिन्दवी स्वराज्य प्रतिज्ञा दिवस पर @Swadeshbhopal में प्रकाशितhttps://t.co/hbOi4BYsok pic.twitter.com/CKeoYfmQEH
छत्रपति शिवाजी महाराज के निधन के समय मुगल साम्राज्य उत्तर में काबुल प्रांत से लेकर दक्षिण में तिरुचिरापल्ली तक, पश्चिम में गुजरात तक और पूर्व में असम के बहुत बाहरी इलाके तक, , भारत के एक बड़े हिस्से पर फैला हुआ था। ऐसा कह सकते हैं कि मुगल बादशाह की हुकूमत देश के हर हिस्से में चलती थी। लेकिन 1719 में अत्याचारी औरंगज़ेब की मृत्यु के 12 वर्षों के भीतर ही मराठों ने दिल्ली में प्रवेश किया और मुगल राजधानी के मुख्य मार्गों में भगवा ध्वज लेकर पथ-संचलन साफ संदेश दे दिया कि अब भारत विदेशी आक्रांताओं के चंगुल से स्वतंत्र होकर रहेगा। 1740 तक मालवा और बुंदेलखंड पर मराठों का आधिपत्य हो गया। 1751 में उन्होंने उड़ीसा पर कब्जा कर लिया और बंगाल और बिहार पर चौथ लगाया। 1757 में उन्होंने गुजरात की राजधानी अहमदाबाद पर कब्जा कर लिया और 1758 में हम उन्हें पंजाब को अधीन करते हुए और अटक के किले पर भगवा ध्वज लहरा दिया। महादजी सिंधिया ने 1784 में दिल्ली से मुगल सल्तनत को पूरी तरह उखाड़कर फेंक दिया। 1784 से 1803 तक दिल्ली के लाल किले की प्राचीर पर हिन्दू संस्कृति का परम पवित्र ‘भगवा ध्वज’ गर्व से लहराया। अब भारत की सीमाओं की सुरक्षा की जिम्मेदारी हिन्दवी स्वराज्य के योद्धाओं के कंधों पर आ गई थी। इसलिए दक्षिण में तटीय क्षेत्रों को पुर्तगालियों के कब्जों से मुक्त कराना हो या फिर उत्तर में अफगानिस्तान के मैदानों से प्रवेश करनेवाले आक्रांताओं के वार झेलने हों, हिन्दू साम्राज्य की सेना ही मोर्चा लिए दिखायी देती है। हमें इस तथ्य से सबको अवगत कराना चाहिए कि अंग्रेजों के हाथों में भारत के शासन के सूत्र मुगलों से नहीं, अपितु हिन्दुओं के पराभव से पहुँचे। सन् 1803 में असई की लड़ाई के साथ ही भारत में अंग्रेजों का वर्चस्व बढ़ गया, जो तीसरे आंग्ल-मराठा युद्ध-1818 में अंग्रेजों की जीत के साथ लंबे समय तक स्थायी हो गया। स्मरण रखें कि हिन्दवी स्वराज्य पर हमला करने के लिए मुगलों ने ही अंग्रेजों को आमंत्रित किया था।
हिन्दवी स्वराज्य का यह सामर्थ्य, उसका वैभव, उसके सिद्धांत और आदर्श, आज भी हमारे लिए प्रेरणा और पथ-प्रदर्शक हैं। इसलिए ‘स्वराज्य-350’ के स्वर्णिम अध्याय के पृष्ठ उलटने के कर्मकांड से ऊपर उठकर उसके आदर्श को धरातर पर उतारने और उसे प्रगाढ़ करने का वातावरण बनाना चाहिए।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की ओर से शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक के 350वां वर्ष प्रारंभ होने पर वक्तव्य जारी करके स्वयंसेवकों एवं समाज के सभी बंधुओं से आह्वान किया है कि इस संदर्भ में होनेवाले कार्यक्रमों में सहभागिता करें। प्रतिनिधि सभा की ओर से माननीय सरकार्यवाह श्री दत्तात्रेय जी होसबाले के आह्वान का अधिकतम अनुपालन होना चाहिए। राज्याभिषेक को केंद्र में रखकर जो कार्यक्रम आयोजित हों, उनमें हमें सहभागिता करने के साथ ही अपने स्तर पर भी राज्याभिषेक की घटना के महत्व को प्रकाश में लाकर, ‘स्व’ की भावना को जगाने में सहयोग करना चाहिए। समूचा देश जब स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहा है, तब छत्रपति शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक की ऐतिहासिक घटना का स्मरण करना इसलिए भी प्रासंगिक होगा कि हम ‘स्वराज्य’ की संकल्पना को सही अर्थों में समझ पाएंगे।
भोपाल से प्रकाशित दैनिक समाचारपत्र 'सुबह सवेरे' में 2 जून 2023 को प्रकाशित |
Informational content 👍
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