शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2021

शिक्षक के हाथ में राष्ट्र के उत्थान-पतन की बागडोर

‘स्वतंत्र भारत के 75 वर्ष और शिक्षकों की भूमिका’




तत्कर्म यन्न बन्धाय सा विद्या या विमुक्तये।

आयासायापरं कर्म विद्यान्या शिल्पनैपुणम्॥ - श्रीविष्णुपुराण 1-19-41

अर्थात, कर्म वही है जो बन्धन का कारण न हो और विद्या भी वही है जो मुक्ति की साधिका हो। इसके अतिरिक्त और कर्म तो परिश्रम रुप तथा अन्य विद्याएँ कला-कौशल मात्र ही हैं॥

आज जब हम शिक्षक दिवस के प्रसंग पर ‘स्वतंत्र भारत के 75 वर्ष और शिक्षकों की भूमिका’ विषय पर महत्वपूर्ण चर्चा सुनने के लिए एकत्र आए हैं, तब हमें शिक्षकीय परंपरा एवं उसके गुरुतर दायित्व पर गंभीरता से स्वाध्याय भी करना चाहिए। 

व्यक्ति निर्माण से लेकर राष्ट्र के उत्थान-पतन की बागडोर शिक्षक के हाथ में होती है। यह कोई पंच लाइन नहीं है। हमारे इतिहास के अनेक पृष्ठ इस पंक्ति को पुष्ट करते हैं। 

भारत विश्वगुरु के गौरवमयी पद पर सुशोभित था, तो शिक्षकों के कारण था। विक्रम, तक्षशिला और नालंदा में ज्ञान प्राप्ति के लिए दुनियाभर के लोग आते थे। 

भारत में शिक्षा के केंद्र सिर्फ ये विश्वविद्यालय ही नहीं थे बल्कि गाँव-गाँव शिक्षा का केंद्र था। इस संबंध में महात्मा गांधी के वास्तविक अनुयायी धर्मपाल जी द्वारा लिखे शोधपूर्ण ग्रंथ ‘रमणीय वृक्ष/अ ब्यूटीफुल ट्री’ को पढऩा चाहिए। 

याद हो महात्मा गांधी ने इस बात पर अंग्रेज अधिकारी से लंबे समय तक जिरह की था कि भारत शिक्षा के क्षेत्र में शीर्ष पर था, जिसे अंग्रेजों ने ध्वस्त किया। 

1931 में गोलमेज सम्मलेन में भाग लेने के लिए महात्मा गाँधी लन्दन गए थे। वहां लन्दन की ‘रॉयल इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंटरनेशनल अफेर्स’ नाम की संस्था में व्याख्यान देने के लिए गांधीजी को आमंत्रण मिला। 20 अक्टूबर, 1931 के दिन उस सभा में इंग्लैंड के अनेक प्रबुद्ध नागरिक उपस्थित थे। 

‘भारत का भविष्य’ विषय पर अपने प्रवचन में गाँधीजी ने कहा कि भारत में 50-100 वर्ष पहले शिक्षा की जो स्थिति थी, आज उसके मुकाबले अधिक निरक्षरता है। अंग्रेज अधिकारी शिक्षा सम्बंधित विषयों पर ध्यान देने की बजाय शिक्षा पद्धति को नष्ट-भ्रष्ट कर रहे हैं। उन्होंने भारत की शिक्षा के प्राण ले लिए हैं। हमारी शिक्षा पद्धति की जड़ें नींव से ही उखाड़ दी हैं, फलत: हमारा शिक्षा रुपी वृक्ष आज नष्ट हो रहा है। 

महात्मा गांधीजी ने पूर्ण विश्वास और अधिकार के साथ यह सब बातें सभी के समक्ष कहीं। क्या आज कोई भी तथाकथित गाँधीवादी भारत के पक्ष को इतनी दमदारी से रखते हुए दिखाई देता है। 

गांधीजी के इस भाषण पर एक अंग्रेज सर फिलिप हार्तोग ने उन्हें चुनौती दी कि गांधीजी ने भारत की शिक्षा व्यवस्था के बारे में गलत तथ्य दिए हैं। महात्मा गाँधीजी ने उसकी चुनौती को स्वीकार किया और उसे प्रमाण उपलब्ध कराये। दोनों के मध्य इस विषय पर लम्बा पत्राचार चला। 

माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में 05 सितम्बर, 2021 को शिक्षक दिवस पर आयोजित कार्यक्रम में

पिछले 75 वर्ष में शिक्षक की सत्ता को राजनीतिक एवं नौकरशाही सत्ता से चुनौती मिली है। शिक्षक की महत्ता को कम करने का प्रयास रहा है। जनगणना से लेकर घरों की गिनती और उस पर मकान नंबर लिखने तक का काम शिक्षकों से कराया गया। शिक्षकों को गैर-शिक्षकीय कार्य में लगाकर हमने उनके उत्साह हो तो कम किया ही, इस गुरुतर दायित्व की प्रतिष्ठा को भी चोट पहुंचाई। शिक्षकों के सम्मान को कम करने के लिए हम सिर्फ और सिर्फ राजनीती और नौकरशाही व्यवस्था को दोष नहीं दे सकते। इसमें कहीं न कहीं शिक्षक स्वयं भी जिम्मेदार हैं... उस सन्दर्भ में हमें आत्मचिंतन करने की आवश्यकता है। 

गोविन्द की कृपा है कि गुरु के सम्मान को बढ़ाने का योग फिर से बना दिए हैं। वर्षों बाद मिली राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 का एक सबसे बड़ा उद्देश्य शिक्षक के खोये हुए सम्मान को पुनर्स्थापित करना भी है। हम सबके लिए उत्साह की बात है कि प्रो. केजी सुरेश जी हमें कुलगुरु के रूप में प्राप्त हुए हैं, उनके प्रयासों से हमने राष्ट्रीय शिक्षा नीति की दिशा में सबसे पहले पहल की है। गुरु का सम्मान बढ़े इसलिए उनकी प्रेरणा से पहली बार गुरु-पूजन जैसा आयोजन यहाँ संपन्न हुआ। 

(माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में 05 सितम्बर, 2021 को शिक्षक दिवस पर आयोजित कार्यक्रम की प्रस्तावना के तौर पर दिया गया व्याख्यान)

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