शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2021

सिनेमा के निशाने पर हिन्दू संस्कृति

फिल्म निर्माता प्रकाश झा की विवादित वेबसीरीज ‘आश्रम’ के कारण एक बार फिर आम समाज में यह विमर्श चल पड़ा है कि सिनेमाई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एवं रचनाधर्मिता के निशाने पर हिन्दू संस्कृति ही क्यों रहती है? फिल्मकार अन्य संप्रदायों पर सिनेमा बनाने का साहस क्यों नहीं कर पाते हैं? हिन्दू संस्कृति एवं प्रतीकों को ही अपनी तथाकथित रचनात्मक अभिव्यक्ति के लिए चुनने के पीछे का एजेंडा क्या है? मुस्लिम कलाकार भी अपने धर्म की आलोचनात्मक प्रस्तुति करने की जगह हिन्दू धर्म पर ही व्यंग्य करना पसंद करता है। पिछले दिनों एम्स दिल्ली के विद्यार्थियों ने भी रामलीला का आपत्तिजनक मंचन किया, जिसका निर्देशन शोएब नाम के लड़के ने किया था। हिन्दू बार-बार इन प्रश्नों के उत्तर माँगता है, लेकिन उसको कभी भी समाधानमूलक उत्तर मिले नहीं। परिणामस्वरूप अपमानजनक एवं उपेक्षित परिस्थितियों और चयनित आलोचना एवं चुप्पी ने उसके भीतर आक्रोश को जन्म देना प्रारंभ कर दिया है।

देखें : 'आश्रम' पर खुलकर बोले 'दबंग' के लेखक दिलीप शुक्ला

वेबसीरीज ‘आश्रम’ को लेकर भोपाल से शुरू हुए विरोध में अब देशभर से हिन्दू समाज का आहत स्वर शामिल होने लगा है। साधु-संत समाज ने भी अपनी पीड़ा और आक्रोश प्रकट किया है। ‘आश्रम’ भारतीय संस्कृति, सभ्यता एवं जीवनशैली की गौरवमयी परंपरा है। हिन्दू संस्कृति में आश्रम किसी साधु-संत के स्थान तक सीमित नहीं है। हिन्दू जीवनशैली में मानव के संपूर्ण जीवन का प्रबंधन चार हिस्सों में किया गया है, जिन्हें ‘आश्रम’ की संज्ञा दी गई है- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। इसके साथ ही ऋषि-मुनियों के तपस्थान, आवास, ज्ञानार्जन के केंद्रों को आश्रम कहा गया। अर्थात् भारतीय संस्कृति में आश्रम शिक्षा, धर्म, ध्यान एवं तपस्या के केंद्र हैं। आश्रमों में व्यक्तियों का जीवन नियमों एवं अनुशासन से आबद्ध रहता है। आश्रमों में विभिन्न उपक्रमों से साधक जीवन के दर्शन को सीखते हैं। समाज की सांसारिक समस्याओं का समाधान खोजते हैं। ईश्वर का सामीप्य प्राप्त करने के प्रयास करते हैं। समाज संस्कारवान हो, इसके उपदेश करते हैं। 

अब आधुनिक समय में कोई व्यक्ति आश्रम जैसी ही संरचना खड़ी करके निंदनीय व्यवहार करे, तब क्या वह आश्रम व्यवस्था का प्रतिनिधि हो जाएगा? क्या उसकी व्यवस्था को आश्रम कहना भी चाहिए? संस्कृति विरोधी उसके आचरण के आधार पर हम समूची आश्रम व्यवस्था को कठघरे में खड़ा कर देंगे? नीतिगत दृष्टि तो यही है कि उसके प्रपंच को आश्रम कहकर ‘आश्रम’ जैसी महान परंपरा को संदिग्ध होने से बचाना चाहिए। परंतु, यहाँ तो एक फिल्मकार बड़ी चतुराई से ‘आश्रम’ के प्रति सामान्य नागरिकों के मन में नकारात्मक भाव पैदा करने का प्रयास कर रहा है। चूँकि हिन्दू धर्म अकसर इस प्रकार के सिनेमाई छल-प्रपंच पर कठोर प्रतिक्रिया नहीं देता है, इसलिए सब प्रकार की रचनात्मकता का प्रयोग हिन्दू धर्म के प्रति नकारात्मक वातावरण बनाने में ही किया जाता है। जिस प्रकार के उदाहरण को आधार बनाकर यह वेबसीरीज बनाई गई है, वैसे उदाहरण तो चर्च, मदरसों एवं जमातों में अनेक मिलते हैं। उन पर फिल्म या वेबसीरीज क्यों नहीं बनती? सामान्य-सा उत्तर है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के ये झंडाबरदार उनसे भय खाते हैं। इन्हें सहिष्णु हिन्दू ही अपनी कुंठित रचनात्मकता के लिए मिलता है। परंतु अब फिल्मकारों से लेकर अन्य सभी रचनाकारों को यह बात समझ लेनी चाहिए कि वे इस तरह हिन्दू संस्कृति का अपमान नहीं कर सकते हैं। उन्हें हिन्दू धर्म को लक्षित करने की प्रवृत्ति का त्याग करना होगा।

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