शुक्रवार, 16 जुलाई 2021

समान नागरिक संहिता की आवश्यकता


देश में लंबे समय से समान नागरिक संहिता की माँग हो रही है, लेकिन वोटबैंक की राजनीति करने वालों ने इस मामले को मुस्लिम समुदाय से जोड़कर अत्यधिक संवेदनशील बना दिया है। मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति का ही असर है कि देश में सबके लिए समान नागरिक संहिता नहीं है, जबकि संविधान में इसका आग्रह किया गया है। समान नागरिक संहिता नहीं होने से सर्वाधिक नुकसान उसी मुस्लिम संप्रदाय का है, जिसके नाम पर समान नागरिक संहिता का विरोध किया जाता है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने समान नागरिक संहिता पर महत्वपूर्ण टिप्पणी कर लंबे समय से चली आ रही माँग को तेज कर दिया है। मीणा जनजाति की एक महिला और उसके पति के बीच तलाक के प्रकरण की सुनवाई के दौरान दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि देश में समान नागरिक संहिता की आवश्यकता है और इसे लाने का यही सही समय है। उच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार से इस मामले में जरूरी कदम उठाने को कहा है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि भारतीय समाज में जाति, धर्म और समुदाय से जुड़े अंतर समाप्त हो रहे हैं। इस बदलाव की वजह से दूसरे धर्म और दूसरी जातियों में शादी करने और फिर तलाक होने में दिक्कतें आ रही हैं। आज की युवा पीढ़ी को इन दिक्कतों से बचाने की जरूरत है। इस समय देश में समान नागरिक संहिता होनी चाहिए। अनुच्छेद-44 में समान नागरिक संहिता को लेकर जो बात कही गई है, उसे हकीकत में बदलना होगा। 

उच्च न्यायालय की टिप्पणी के बाद जैसा कि तय था- देश में स्वयं को सेकुलर एवं संविधान हितैषी कहलाने वाला वर्ग समान नागरिक संहिता के विरोध में उतर आया। बुद्धिजीवियों का यह वर्ग आज तक इस बात को नहीं समझा सका है कि समान नागरिक संहिता भला किस प्रकार से किसी संप्रदाय के विरुद्ध हो सकती है? एक तरफ यह वर्ग संविधान से देश चलना चाहिए, इस बात की रट लगाता है, वहीं दूसरी ओर अनेक विषयों में संविधान को दरकिनार करना चाहता है। यह दकियानूसी सोच उस समय भी सक्रिय हो गई थी, जब बाबा साहेब डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर देश की आधी आबादी (महिलाओं) को उनके अधिकार देने के लिए समान नागरिक संहिता का विधेयक प्रस्तुत करना चाहते थे। विरोध को देखते हुए डॉ. अंबेडकर ने प्रस्ताव किया कि समान नागरिक संहिता पर एक राय बनाकर उचित समय पर इसे लागू किया जाना चाहिए। दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि आज तक इस पर एक राय नहीं बन सकी है। अब तक सत्ता के केंद्र में रहे राजनीतिक दलों ने कभी इस दिशा में आम सहमति बनाने के प्रयास भी नहीं किए। बल्कि उन्होंने तो इस माँग को वोटबैंक की राजनीति का माध्यम बना लिया। 

उल्लेखनीय है कि इससे पूर्व सर्वोच्च न्यायालय भी समान नागरिक संहिता लागू करने की बात कह चुका है। उस समय तो अल्पसंख्यक समुदाय (ईसाई) के एक व्यक्ति ने ही सर्वोच्च न्यायालय में याचिका लगाई थी कि एक देश में अलग-अलग कानून क्यों हैं? विरोध करने वाले कूपमंडूकों को समझना चाहिए कि समान नागरिका संहिता सबको समान अधिकार देगी। इसलिए इसका स्वागत किया जाना चाहिए। केंद्र सरकार से अपेक्षा है कि वह जल्द ही इस दिशा में आवश्यक कदम उठाए। 

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