प्र ख्यात लेखिका तसलीमा नसरीन ने जयपुर साहित्य उत्सव (जयपुर लिटरेचर फेस्टीवल) के मंच से एक महत्त्वपूर्ण बहस को हवा दी है। सदैव चर्चा में रहने वाली बांग्लादेशी लेखिका तसलीमा नसरीन ने साहित्य उत्सव में माँग की है कि देश में तुरंत समान नागरिक संहिता लागू की जाए। तसलीमा बेबाकी से मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों पर अपनी बात रखने के लिए जानी जाती हैं। इस कारण वह मुस्लिम कट्टरपंथियों के निशाने पर भी रहती हैं। समान नागरिक संहिता की माँग करते वक्त उन्होंने कहा भी कि जब वह हिंदुत्व का विरोध करती हैं तब किसी को कोई परेशानी नहीं होती है, लेकिन जब इस्लाम की आलोचना करती हैं या फिर मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की बात करती हैं, तब उन्हें जान से मारने की धमकी दी जाती है। उन्हें खत्म करने के लिए गैरकानूनी फतवा तक जारी कर दिया जाता है।
तसलीमा जब यह कह रही थीं, तब जयपुर की सड़कों पर कट्टरपंथी उनके कहे को सिद्ध कर रहे थे। महिला अधिकारों के लिए समान नागरिक संहिता की माँग करना कट्टरपंथियों को इतना नागवार गुजरा कि वे तसलीमा के खिलाफ तत्काल जयपुर की सड़कों पर उतर आए। यहाँ विचारणीय है कि आखिर इस देश में तथाकथित सेक्युलर ब्रिगेड और सहिष्णुता के झंडाबरदार तसलीमा के मसले पर चुप्पी क्यों साध लेते हैं? एक लेखिका को जान से मारने की धमकी देना क्या असहिष्णुता नहीं है? क्या यह अभिव्यक्ति की आजादी के लिए खतरा नहीं है? क्या यह देश में स्वतंत्र सोच पर हमला नहीं है? सवाल यह भी है कि उन्हें नागरिकता देने से तथाकथित सेक्युलर सरकारें डरती क्यों हैं?
बहरहाल, तसलीमा नसरीन द्वारा उठाई गई माँग पर लौटते हैं। भारत में समान नागरिक संहिता की माँग लम्बे समय से की जा रही है। हालाँकि प्रारंभ में इसकी माँग गैर-मुस्लिमों ने की थी। लेकिन, जैसे-जैसे मुस्लिम समाज में शिक्षा का उजियारा आया, उसके साथ ही वहाँ से भी अब समान नागरिक संहिता की माँग उठना शुरू हो गई है। खासकर मुस्लिम महिलाओं ने इसे एक आंदोलन का रूप दे दिया है। क्योंकि, समान नागरिक संहिता की सबसे अधिक आवश्यकता मुस्लिम महिलाओं को ही है। मुस्लिम पर्सनल लॉ की आड़ में इस आधुनिक युग में भी महिलाओं के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता है। धार्मिक कानूनों का दुरुपयोग कर महिलाओं के आत्म-सम्मान को चोट पहुंचाई जा रही है और जीवन के अधिकारों का हनन किया जा रहा है। पिछले दिनों देश में समान नागरिक संहिता को लेकर लम्बी बहस चली है। उस बहस को एक बार फिर तसलीमा नसरीन ने हवा देने की कोशिश की है। देखना होगा कि हमारे देश का तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग और तथाकथित महिलावादी समूह मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के लिए इस बहस को कितना आगे ले जाते हैं।
भारत के संविधान की दुहाई देने वालों को भी सबके लिए समाज अधिकार की माँग को जोर-शोर से उठाना चाहिए, क्योंकि भारतीय संविधान के अनुच्छेद-44 में समान नागरिक संहिता का पक्ष लिया गया है। समान नागरिक संहिता की माँग में वह सब मसाला भी है, जो उक्त समूहों को सक्रिय करने के लिए पर्याप्त है। समान नागरिक संहिता सांप्रदायिकता के खिलाफ बड़ी लड़ाई है। सेक्युलर देश के लिए अनिवार्य आवश्यकता है कि सभी नागरिकों के लिए एक कानून हो। समान नागरिक संहिता महिला अधिकारों की रक्षा के लिए सबसे अधिक आवश्यक है। हम जानते हैं कि इसके बावजूद तथाकथित प्रगतिशील संगठन, बुद्धिजीवी और महिलावादी समूह इस माँग का समर्थन नहीं करेंगे, बल्कि दबे-छिपे स्वर से इसका विरोध ही करेंगे। कानून मंत्रालय ने जब लॉ कमीशन को चिट्ठी लिखकर देश में समान नागरिक संहिता लागू करने के संबंध में राय माँगी थी, तब उक्त समूहों का दोगलापन उजागर हुआ था। बहरहाल, एक साहसी लेखिका तसलीमा नसरीन ने जायज माँग उठाई है, जिसका यथासंभव समर्थन किया जाना चाहिए, बल्कि जयपुर साहित्य उत्सव के मंच से उठी उनकी इस आवाज को समूचे देश में एक बार फिर बुलंद किया जाना चाहिए।
बहुत ही बढ़िया article लिखा है आपने। ........Share करने के लिए धन्यवाद। :) :)
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