क्रिकेट की सबसे बड़ी
प्रतियोगिता ‘विश्वकप’ के
सेमीफाइनल में न्यूजीलैंड से हारने के बाद भारतीय टीम की जमकर आलोचना हो रही है।
हार का ठीकरा फोडऩे के लिए अलग-अलग सिर तलाशे जा रहे हैं। कुछ लोग विराट कोहली की
कप्तानी, टीम के चयन और कुछ लोग धोनी की धीमे खेल पर अंगुली
उठा रहे हैं। यह बात सही है कि सेमीफाइनल में भारत की टीम ने वैसा प्रदर्शन नहीं
किया, जिसकी उससे अपेक्षा थी। इस विश्वकप में भारतीय टीम को
सबसे अधिक मजबूत माना जा रहा था। विश्वकप के पहले चरण में सात मुकाबले जीतकर
भारतीय क्रिकेट टीम ने अपनी दावेदारी को और प्रबल किया। हालाँकि, अफगानिस्तान, बांग्लादेश और इंग्लैंड से हुए मुकाबले
में भारतीय क्रिकेट दल की कमजोरियाँ उजागर भी हुई। शीर्ष क्रम के धराशाही होने पर
समूची टीम लडख़ड़ा जाती है।
धीमे खेल के लिए जो लोग पूर्व कप्तान महेंद्र
सिंह धोनी की आलोचना कर रहे हैं, उन्हें यह समझ लेना चाहिए
कि अगर धोनी न होते तो कई मैच में सम्मानजनक स्कोर तक पहुँचना मुश्किल हो जाता।
धोनी बहुत अनुभवी खिलाड़ी हैं, वह परिस्थितियों को समझते
हैं। इस बात का आश्चर्य जरूर है कि सेमीफाइनल में उन्हें ऊपर क्यों नहीं भेजा गया?
विश्वकप-2011 के फाइनल मुकाबले को याद कीजिए,
जब धोनी कप्तान थे। सचिन तेंदुलकर और सहवाग के जल्दी आउट होने पर
कप्तान धोनी चौथे क्रम पर बल्लेबाजी करने आए और भारत की विजय सुनिश्चित की।
क्रिकेट संभावनाओं का खेल होने के साथ ही
अनुभव, रणनीति और धैर्य का भी खेल है। इसलिए पूरी संभावना है
कि यदि न्यूजीलैंड के विरुद्ध शीर्ष क्रम के बिखरने के बाद ऋषभ या कार्तिक की जगह
धोनी आए होते तो परिणाम कुछ और होता। धोनी खुद तो भारतीय पारी को संभालते ही,
अलबत्ता साथी खिलाड़ी को भी समझाइश देते रहते, जैसा कि उन्होंने रवीन्द्र जडेजा को दीं।
‘बीती ताही बिसार दे, आगे
की सुधि लेय’ कहावत पर चलते हुए भारतीय टीम को भविष्य की
तैयारियों पर जोर देना चाहिए। क्रिकेट की सबसे बड़ी इस प्रतियोगिता में एक बात
साफतौर पर समझ में आई है कि भारतीय टीम का मध्यमक्रम बहुत कमजोर है। वहाँ अनुभवी
और अच्छे बल्लेबाज की जरूरत है। मध्यमक्रम में इसी प्रतियोगिता में भारत ने कई
प्रयोग करके देख दिए, लेकिन सफलता नहीं मिली। भारतीय टीम को
अपनी इस कमजोरी को अविलंब दूर करना चाहिए।
संभव है कि क्रिकेट के भीतर चलने वाली
राजनीति के कारण टीम को पूर्ण आकार देने में दिक्कत आ रही हो। केएल राहुल, विजय शंकर, केदार जाधव, यजुवेंद्र
चहल को लगातार अवसर देते रहना, इसी ओर इशारा कर रहे हैं।
अंबाती रायडु के अचानक संन्यास लेने से इस बात की चर्चा भी है कि ‘चहेतों’ को लगातार अवसर दिए जा रहे हैं। भारतीय
क्रिकेट नियंत्रण बोर्ड और अन्य समितियों को इस दिशा में तत्काल ध्यान देना चाहिए।
भारतीय टीम किसी एक-दो व्यक्ति की पसंद से नहीं चुनी जा सकती। करोड़ो भारतीयों की
उम्मीदें इसके साथ जुड़ी होती हैं। इसलिए किस खिलाड़ी को कितना अवसर दिया जाएगा,
इस संबंध में एक स्पष्ट और पारदर्शी नीति बनानी चाहिए। ताकि यह भाव
किसी भी खिलाड़ी के मन में न आए कि वह चहेता नहीं है, इसलिए
उसे कम अवसर दिए गए। सबको समान अवसर मिलना चाहिए।
भारतीय टीम ने विश्वकप में एक अनुशासित और
संगठित दल के रूप में प्रदर्शन किया, उसके कारण ही पहले चरण
में शानदार सफलताएं प्राप्त हुईं। टीम में यह अनुशासन बना रहना चाहिए। किसी एक पर
हार का ठीकरा फोडऩे से ज्यादा अच्छा है कि ईमानदार समीक्षा के बाद भविष्य की
तैयारियाँ प्रारंभ की जाएं।
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