अमरकंटक के जंगल में, ऊंचे पहाड़ पर एक चट्टान ऐसी है, जिसमें 12 महीने पानी रहता है। चट्टान में एक छेद है,
उसमें हाथ डाल कर अंजुली भर जल निकाल सकते हैं। इस आश्चर्यजनक
चट्टान को भृगु का कमंडल कहा जाता है। मेरे मित्र अशोक मरावी और मुकेश ने जब मुझे
यह बताया गया, तो उस चट्टान को देखने की तीव्र जिज्ञासा मन
में जागी। अगली सुबह इस अनोखी चट्टान को देखने जाने का तय किया। माँ नर्मदा मंदिर
से लगभग 4 किमी दूर घने जंगल और ऊंचे पहाड़ पर भृगु कमंडल
स्थित है।
भृगु कमंडल तक पहुँचना कठिन तो नहीं है, लेकिन बाकी
स्थानों की अपेक्षा यहाँ पहुँचने में थोड़ा अधिक समय और श्रम तो लगता ही है। कुछ
दूरी तक आप मोटरसाइकिल या चारपहिया वाहन से जा सकते हैं, परंतु
आगे का रास्ता पैदल ही तय करना होता है। भृगु कमंडल के लिए जाते समय आप एक और
नैसर्गिक पर्यटन स्थल धूनी-पानी पर प्रकृति का स्नेह प्राप्त कर सकते हैं। यह
स्थान रास्ते में ही पड़ता है। बहरहाल, हम मोटरसाइकिल से
भृगु ऋषि की तपस्थली के लिए निकले। रास्ता कच्चा और ऊबड़-खाबड़ था। मोटरसाइकिल पर
धचके खाते हुए हम उस स्थान पर पहुँच गए, जहाँ से पैदल आगे
जाना था। घने जंगल के बीच स्थित भृगु कमंडल तक पहुँचने के लिए पहले पहाड़ उतरकर
धूनी-पानी पहुँचे और फिर वहाँ से आगे जंगल में कीटों और पक्षियों का संगीत सुनते
हुए पहाड़ चढ़ते गए। अमरकंटक के जंगलों में पेड़ों पर एक कीट सिकोड़ा पाया जाता है,
जो एक विशेष प्रकार से टी-टी जैसी ध्वनि निकालता रहता है। शांत वन
में पेड़ों पर झुंड में रहने वाले सिकोड़ा कीट जब टी-टी का सामुहिक उच्चार करते
हैं तब विशेष प्रकार की ध्वनि उत्पन्न होती है। इस वर्ष जब भोपाल में भी यह ध्वनि
सुनाई दी, तब मेरे मित्र हरेकृष्ण दुबोलिया ने उस पर समाचार
बनाया था। उसके अनुसार यह कीड़ा हेमिपटेरा प्रजाति का है, जो
पेड़ो पर रहकर उसकी छाल से पानी अवशोषित करता है और सूखी पत्तियों को अपना भोजन
बनाता है। सिकोड़ा कीट उष्ण कटिबंधीय (गर्म) क्षेत्रों में पाया जाता है। इनके लिए
अनुकूल तापमान 40 से 50 डिग्री
सेल्सियस के बीच है। तापमान 40 डिग्री सेल्सियस के पार जाता
है, तो इनकी संख्या तेजी से बढ़ती है, किंतु
तापमान जैसे ही 50 डिग्री सेल्सियस के पार जाता है, यह मरने लगते हैं।
बहरहाल, घने जंगल और पहाड़ों से होकर हम भृगु कमण्डल
तक पहुँच गए। ऊंचे पहाड़ पर यह एक निर्जन स्थान है। यहाँ कम ही लोग आते हैं।
ध्यान-साधना करने वाले साधुओं का यह प्रिय स्थान है। यहाँ एक बड़ी चट्टान है,
जिसे भृगु ऋषि का कमण्डल कहा जाता है। कमण्डल की आकृति की इस चट्टान
में एक छेद है, जिसमें हाथ डाल श्रद्धालु पानी निकालते हैं
और पास ही प्रतिष्ठित शिवलिंग पर चढ़ाते हैं। ऐसा विश्वास है कि इस स्थान पर भृगु
ऋषि ने कठोर तप किया था, जिसके कारण उनके कमण्डल से एक नदी
निकली, जिसे करा कमण्डल भी कहा जाता है। कहते यह भी भृगु ऋषि
धूनी-पानी स्थान पर तप करते थे। बारिश के दिनों में वहाँ धूनी जलाना मुश्किल हो
जाता था, तब भृगु ऋषि उस स्थान पर आए जिसे आज भृगु कमण्डल
कहते हैं। जब ऋषि भृगु यहाँ आए तब उनके सामने जल का संकट खड़ा हो गया। उनकी
प्रार्थना पर ही माँ नर्मदा उनके कमंडल में प्रकट हुईं। यहाँ एक सुरंग है, जिसे भृगु गुफा कहा गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि बड़ी-बड़ी चट्टानों के
मेल से यह गुफा बनी है। आज भी धार्मिक पर्यटक और श्रद्धालु गुफा में एक ओर से
प्रवेश करते हैं और दूसरी ओर से निकलते हैं। बारिश के मौसम में इसी गुफा में ऋषि
भृगु धूनी रमा कर तप करते थे। हमें यहाँ
एक बाबा मिला, जिसने यहीं झोंपड़ी बना रखी थी। वह यहीं रहकर
पूजा-पाठ करते हैं। बाबा के निर्देश पर उनके एक चेले ने हम सबके लिए चाय बनाई। चाय
वाकई शानदार बनी थी। हमने बाबा और उनके चेले को धन्यवाद दिया और वहाँ से लौट पड़े।
भृगु कमंडल (चट्टान) में हाथ डालकर जल निकलता श्रद्धालु |
आश्चर्य का विषय यह है कि मई-जून की गर्मी में भी कमण्डल रूपी इस चट्टान
में पानी कहाँ से आता है? ऐसे में धार्मिक मान्यता पर
विश्वास करने के अलावा कोई और विकल्प रहता नहीं है। निश्चित ही यह प्रकृति का
चमत्कार है। बहरहाल, चमत्कार में भरोसा और रुचि नहीं रखने
वालों के लिए भी यह स्थान सुखदायक है। प्रकृति प्रेमियों को ऊंचे पहाड़ पर पेड़ों
की छांव में बैठना रुचिकर लगेगा ही, साल के ऊंचे वृक्षों की
बीच से होकर यहाँ तक की यात्रा भी आनंददायक है।
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