शुक्रवार, 28 नवंबर 2014

विश्व बंधुत्व और शांति का संदेश देता है सांची


साँची स्थित मुख्य स्तूप (स्तूप क्रमांक-1) फोटो : लोकेन्द्र सिंह/Lokendra /Singh 
 जी वन में चलने वाले रोज-रोज के युद्धों से आपका मन अशांत है, आपकी आत्मा व्यथित है, आपका शरीर थका हुआ है तो बौद्ध तीर्थ सांची चले आइए आपके मन को असीम शांति मिलेगी। आत्मा अलौकिक आनंद की अनुभूति करेगी। शरीर सात्विक ऊर्जा से भर उठेगा। सांची के बौद्ध स्तूप प्रेम, शांति, विश्वास और बंधुत्व के प्रतीक हैं। मौर्य सम्राट अशोक को बौद्ध धर्म की शिक्षा-दीक्षा के लिए प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर एकान्त स्थल की तलाश थी। ताकि एकांत वातावरण में बौद्ध भिक्षु अध्ययन कर सकें। सांची में उनकी यह तलाश पूरी हुई। जिस पहाड़ी पर सांची के बौद्ध स्मारक मौजूद हैं उसे पुरातनकाल में बेदिसगिरि, चेतियागिरि और काकणाय सहित अन्य नामों से जाना जाता था। यह ध्यान, शोध और अध्ययन के लिए अनुकूल स्थल है। कहते हैं महान सम्राट अशोक की महारानी ने उन्हें सांची में बौद्ध स्मारक बनाने का सुझाव दिया था। महारानी सांची के निकट ही स्थित समृद्धशाली नगरी विदिशा के एक व्यापारी की पुत्री थीं। सम्राट अशोक के काल में ही बौद्ध धर्म के अध्ययन और प्रचार-प्रसार की दृष्टि से सांची कितना महत्वपूर्ण स्थल हो गया था, इसे यूं समझ सकते हैं कि सम्राट अशोक के पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा ने भी कुछ समय यहीं रहकर अध्ययन किया। दोनों भाई-बहन बौद्ध धर्म की शिक्षाओं के प्रचार-प्रसार के लिए सांची से ही बोधि वृक्ष की शाखा लेकर श्रीलंका गए थे। सांची के स्तूप सिर्फ बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए ही श्रद्धा के केन्द्र नहीं हैं बल्कि दुनियाभर के लोगों के लिए आकर्षण का केन्द्र हैं। ये स्तूप आज भी भगवान बुद्ध की शिक्षाओं को देश-दुनिया में पहुंचा रहे हैं। दुनिया को शांति, सह अस्तित्व और विश्व बंधुत्व की भावना के साथ रहने का संदेश दे रहे हैं।
       भगवान गौतम बुद्ध ने जब देह त्याग किया तो उनके शरीर के अवशेषों पर अधिकार पाने के लिए उनके अनुयायी राजा आपस में झगड़ा करने लगे। तब, एक बौद्ध संत ने इन राजाओं को समझाया और भगवान बुद्ध के शरीर के अवशेष को आठ हिस्सों में इन राजाओं को बांटकर सुलह कराई। इन अवशेषों पर प्रारंभ में आठ स्तूपों का निर्माण किया गया। इसके बाद बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार इन स्तूपों को प्रतीक मानकर किया जाने लगा। विद्वान मानते हैं कि सम्राट अशोक ने इन आठों स्तूपों को खुलवाकर उनमें से भगवान बुद्ध के अवशेषों को निकालकर कई हिस्सों में बांटा और उन पर अनेक स्तूप बनाये। सांची का स्तूप भी उनमें से एक है। लोक मान्यता है कि सांची के महास्तूप (स्तूप क्रमांक-1) में भगवान बुद्ध के अस्थि अवशेष सुरक्षित हैं। हालांकि, अंग्रेज जनरल कनिंघम ने महास्तूप को खुलवाया था, तब उसमें किसी भी प्रकार के अवशेष प्राप्त नहीं हुए। सम्राट अशोक द्वारा निर्मित महास्तूप सांची स्थित सभी स्तूपों में बड़ा और सर्वाधिक आकर्षण का केन्द्र भी। महास्तूप का आकार प्रारंभ में इतना विशाल नहीं था जितना वर्तमान में है। शुंग काल में महास्तूप का परिवर्धन-परिवर्तन कराया गया था। इससे स्तूप का आकार लगभग दोगुना हो गया। स्तूप के चारों ओर भूमिस्थ वेदिका, चारों दिशाओं में चार अलंकृत तोरण, मेधि वेदिका और मेधि तक पहुंचने के लिए सोपान हैं। चारों ओर बने तोरणों पर जातक कथाओं और भगवान बुद्ध के जीवन से संबंधित घटनाओं को उत्कीर्ण किया गया है। इनमें दो कथाएं बेहद मार्मिक हैं। एक कथा युवराज वसंतारा से संबंधित है। वसंतारा ने धर्म और दया की स्थापना के लिए अपने धन, अपनी पत्नी और बच्चों तक को दान में दे दिया था। दूसरी कथा तथागत से संबंधित है। जिसमें भगवान बुद्ध ने महान वानरराज के रूप में अपने सहकर्मियों की प्राण रक्षा के लिए अपना ही उत्सर्ग कर दिया। पत्थर पर यह कारीगरी इस तरह मालूम पड़ती है जैसे किसी अत्यंत कुशल कलाकार ने कागज पर पेंसिल से चित्रकथा बनाई हो। इन तोरण-द्वारों का निर्माण शुंग सातवाहन काल में हुआ था। इसका प्रमाण दक्षिणी तोरण-द्वार पर अंकित अभिलेख से मिलता है। चारों तोरणों के सामने स्तूप से सटकर भगवान बुद्ध की चार मूर्तियों की स्थापना पांचवी सदी में की गई थी। स्तूप के सबसे ऊपर केन्द्र में छत्र और इसके चारों ओर वर्गाकार हर्मिका है। 
मुख्य स्तूप के द्वार पर कलाकृति. फोटो : लोकेन्द्र सिंह 
       महास्तूप के साथ ही यहां स्तूप क्रमांक-दो और तीन भी आकर्षण के केन्द्र हैं। आकार-प्रकार में ये भी महास्तूप के समान अर्धचन्द्राकार हैं। दरअसल, अर्धचन्द्राकार स्तूप वस्तुत: आकाश अथवा ब्रह्माण का प्रतीक माना जाता है। बौद्ध स्तूपों के ऊपरी भाग में चौकोर हर्मिका होती थी। इस हर्मिका में धातु को रखा जाता था। वस्तुत: यह हर्मिका स्वर्गलोक का प्रतीक होती थी। हर्मिका की छत्र-यष्टि साधना का प्रतीक थी। छत्र तीन, सात या चौदह होते थे। स्तूप से सटकर चबूतरे पर चारों ओर वृत्ताकार प्रदक्षिणा-पथ बनाया जाता था। इस पथ को 'मेधि' कहा जाता है। स्तूप के आसपास भूमि पर भी एक और प्रदक्षिणा-पथ बनाया जाता था। यह प्रदक्षिणा-पथ उपासकों के स्तूप से कुछ दूर रहकर परिक्रमा करने के लिए बनाया जाता था। इसका उद्देश्य स्तूपों की पवित्रता को बनाये रखना था। स्तूप क्रमांक-दो में दस बौद्ध भिक्षुओं के अस्थि अवशेष सुरक्षित हैं। स्तूप क्रमांक-तीन में तथागत (बुद्ध) के दो शिष्यों सारिपुत्त और महामोगलनस के अस्थि शेष प्राप्त हुए हैं। इन्हें श्रीलंका भेज दिया गया था लेकिन भारत की स्वाधीनता के बाद वहां से वापस मंगवाकर सांची में बनाए गए बौद्ध मंदिर में इन्हें रखवा दिया गया है। प्रतिवर्ष नवम्बर माह के अंतिम रविवार को इन अस्थियों को दर्शनार्थ रखा जाता है। बाद में, इन्हें स्तूपों के चारों ओर प्रदक्षिणा करके मंदिर में रख दिया जाता है। बुद्ध के शिष्यों की अस्थियों के दर्शन के लिए सांची में देश-दुनिया से धर्मावलंबी आते हैं। 
बौद्ध विहार इक्यावन. फोटो : लोकेन्द्र सिंह
       सम्राट अशोक के समय में सांची बौद्ध शिक्षा-दीक्षा और साधना का बड़ा केन्द्र बन गया था। यहां स्थित बौद्ध मंदिर, चैत्यालय और विहार के अवशेष आज भी इसकी गवाही देते हैं। महास्तूप (स्तूप क्रमांक-1) के सामने ही चैत्यालय है। यहां बौद्ध भिक्षुओं को शिक्षा दी जाती थी। इसका ऊपरी भाग नष्ट हो चुका है। यहां शिक्षा लेने वाले बौद्ध भिक्षुओं के रहने के लिए विहार और संघाराम के अस्तित्व भी सांची में हैं। जिनमें विहार इक्यावन बड़ा है। भिक्षुओं के आवास के लिए इसमें कई कक्ष हैं। यह विहार पूर्व से पश्चिम में 32.69 मीटर चौड़ा और उत्तर से दक्षिण में 33.22 मीटर लंबा है। विहार में अशोक के समय की ईंटें भी देखी जा सकती हैं। विहार इक्यावन के पीछे ही पत्थर का विशाल कटोरा है, जिसमें से भिक्षुओं को अन्न बांटा जाता था। महास्तूप के दक्षिणी तोरण-द्वार के पास ही सम्राट अशोक द्वारा बनवाया गया स्तम्भ दस है। स्तम्भ पर ब्राह्मी लिपि में मौर्य सम्राट अशोक की राजज्ञा अंकित है। इसके समीप ही बौद्ध मंदिर भी स्थित है। 
साँची स्थित प्राचीन मंदिर. फोटो : लोकेन्द्र सिंह
      मौर्य, शुंग, कुषाण सातवाहन और गुप्तकाल तक सांची बौद्ध शिक्षा का प्रमुख केन्द बना रहा। राजपूत काल में भी इन बौद्ध स्मारकों की कीर्ति थी लेकिन मुगलों की सत्ता आने के बाद सांची गुमनामी के अंधेरे में खो गया था। वर्ष 1818 में अंग्रेज जनरल टेलर ने इन बौद्ध स्मारकों की पुन: खोज की। बाद में जनरल जॉनसन, जनरल कनिंघम, कैप्टन मैसी, मेजर कोल और सर जॉन मार्शन ने इन बौद्ध स्मारकों का अन्वेषण, उत्खनन और संरक्षण करवाया। वर्ष 1989 में यूनेस्को ने जब सांची स्थित बौद्ध स्मारकों को विश्व धरोहरों की सूची में शामिल किया तब इन्हें अन्तरराष्ट्रीय पहचान मिल गई। सांची स्थित बौद्ध स्मारक फिर से दुनिया की नजर में आ गए हैं। सांची के आसपास बौद्ध स्मारकों का खजाना है। सांची से लगभग 14 किलोमीटर की दूरी पर चौथी से दसवीं शताब्दी तक निर्मित उदयगिरी की गुफाएं भी स्थित हैं। सांची के नजदीक ही बौद्ध धर्म से संबंधित सतधारा और सोनारी भी है। विदिशा से करीब 46 किलोमीटर की दूरी पर ग्यारसपुर है। ग्यारसपुर में आठ खम्बों का विशाल मंदिर सहित अन्य पुरातत्व महत्व के मंदिरों के अवशेष हैं। इसके साथ ही ग्यारसपुर में बौद्ध स्तूपों के अवशेष भी हैं। पत्थरों के मुख से इतिहास को सुनने की रुचि आपकी है तो सांची एक अच्छा स्थान है। यहां आकर आप मौर्य, शुंग और गुप्तकाल में निर्मित बौद्ध स्मारकों की सादगीपूर्ण भव्यता देखकर आल्हादित तो होओगे ही, शांत वातावरण में भगवान बुद्ध के संदेशों को भी समझ सकोगे।  
कैसे पहुंचे : सांची रायसेन जिले का एक छोटा-सा कस्बा है। मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से करीब 50 किलोमीटर की दूरी है जबकि विदिशा से महज 10 किलोमीटर की दूरी पर सांची है। सांची रेलवे लाइन से तो जुड़ा है लेकिन एक्सप्रेस गाडिय़ां यहां नहीं रुकती हैं। सांची आने के लिए सबसे बढिय़ा है कि आप पहले भोपाल आएं। भोपाल घूमें। भोपाल से निजी कार या बस से सांची पहुंचें। निजी वाहन से आए तो सांची के आसपास के रमणीय और पुरातत्व महत्व के स्थान देखने में सुविधा होगी। हवाई मार्ग से आना हो तो भोपाल सबसे नजदीकी हवाई अड्डा है। ठहरने के लिए सांची में मध्यप्रदेश पर्यटन का गेटवे रिट्रीट है। रेस्ट हाउस भी एक अच्छा विकल्प है। श्रीलंका महाबोद्धी सोसाइटी के गेस्ट हाउस में भी ठहरने की व्यवस्था है। कुछेक निजी होटल भी हैं। यूं तो वर्षभर यहां पर्यटक और धर्मावलंबी आते हैं लेकिन सांची देखने का सबसे अच्छा वक्त अक्टूबर से मार्च है। 
भोपाल से साँची के रास्ते में. फोटो : हरेकृष्ण दुबोलिया 

मित्र हरेकृष्ण दुबोलिये. फोटो : लोकेन्द्र सिंह

मुख्य स्तूप का प्रवेश द्वार. फोटो : लोकेन्द्र सिंह

बौद्ध विहार इक्यावन के सामने. फोटो : हरेकृष्ण दुबोलिया 

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (29-11-2014) को "अच्छे दिन कैसे होते हैं?" (चर्चा-1812) पर भी होगी।
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    चर्चा मंच के सभी पाठकों को
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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