द शहरा प्रतीक का पर्व है। बुराई की हार और अच्छाई की जीत का प्रतीक पर्व। शक्ति स्वरूपा मां दुर्गा की साधना, उपासना के साथ ही आध्यात्मिक और सद्शक्तियों के जागरण के पर्व नवरात्र के दौरान ही बुराइयों के पिण्ड रावण को जलाने के लिए सब ओर तैयारियां शुरू हो जाती हैं। मोहल्लों में रहने वाले बच्चे खुद ही रावण तैयार कर रहे होते हैं जबकि बड़ी मंडलियां बाजार से बड़े से बड़ा 'रेडीमेड' रावण खरीदने के लिए चंदा जमा करते हैं। अंतत: छोटे-बड़े सभी रावणों को गली-मैदान में स्वाह कर उल्लास मनाते हैं कि बुराई का अंत कर दिया। सब माया है। सब कर्मकाण्ड है। गली-मैदानों में धूं-धूं कर पुतला ही जलता है, रावण तो जिन्दा रहता है। हम सबके भीतर। तैयारी उसे मारने की होनी चाहिए। भीतर का रावण एक तीर से नहीं मरता, उसके लिए रोज सजग रहना पड़ता है कमान खींचकर, जैसे ही सिर उठाए, तीर छोड़ देना होता है। कई दिन तो रोज उसे मारना पड़ता है। इसके बाद फिर समय-समय पर उसका वध करना होता है। यह सतत प्रक्रिया है। लेकिन, हम मार किसे रहे हैं, बाहर के रावण को, वह भी पुतले को। असल रावण तो जीते रहते हैं, हम में और तुम में। ये हम और तुम का रावण मर गया फिर सब ठीक हो जाएगा। अब सवाल यह है कि आखिर भीतर कौन-सा रावण बैठा है। जैसा कि हम जानते हैं कि रावण दस बुराइयों का प्रतीक है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी। ये रावण के दस सिर हैं। दशहरा इन्हीं दस प्रकार के पापों के परित्याग की प्रेरणा देता है। दशहरा दस पापों को हरने का पर्व है। भगवान श्रीराम का युद्ध इन्हीं दस पापों से था। रावण के इन्हीं दस पापों को परास्त कर श्रीराम महापराक्रमी बने। पूज्य और आराध्य बने। समाज के प्रेरणास्त्रोत बने। दस प्रकार के पापों के पिण्ड रावण को जलाना ही प्रत्येक मनुष्य की प्राथमिकता होनी चाहिए। यदि मनुष्य अंतर्मन में छिपकर बैठे इन रावणों को मार सका तो सही अर्थों में वह श्रीराम के दिखाए मार्ग पर चल रहा है। इन बुराइयों पर विजय पाने का सामथ्र्य हर किसी में है, हर किसी के भीतर राम भी बैठे हैं। तो अपने भीतर के राम को पहचानो। रोज रावण मारो और राम बनो।
ध्यान देने की बात यह है कि काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी, ये दस पाप ही मनुष्य को रावण बनाते हैं। ये पाप आपस में संबद्ध हैं। एक दूसरे से जीवन पाते हैं। इसके अलावा प्रत्येक पाप के भी दस-दस सिर हैं। एक भी पाप भीतर जिंदा है तो सब जिंदा हैं। इसलिए सबका अंत जरूरी है। काम में अंधा होकर ख्यातनाम व्यक्तित्व भी धूमिल हो जाता है, क्षणभर में। सिर्फ व्यक्तित्व ही धूमिल नहीं होता बल्कि उसके साथ जुड़े मानबिन्दुओं पर भी प्रश्न चिह्न खड़े होते हैं। यदि धार्मिक चोला ओढ़कर बैठा व्यक्ति काम का शिकार हो जाता है तो लोगों का विश्वास डिगता है। इसका फायदा धर्म-परंपरा विरोधी लोग उठाते हैं। धर्म-परंपरा के नाम पर अपना जीवनयापन कर रहे चारित्रिक रूप से कमजोर व्यक्ति की आड़ में धर्म विरोधी लोग हमलावर भूमिका में आ जाते हैं। वे संबंधित धर्म पर आक्षेप लगाते हैं। परंपराओं पर अंगुली उठाते हैं। हालांकि जिस धर्म और समाज पर अगुंली उठाई जा रही होती है, वह धर्म और समाज ही चारित्रिक रूप से पतित व्यक्ति को स्वीकार नहीं करता है। रावण को प्रकांड ब्राह्मण बताया जाता है लेकिन इसके बावजूद हिन्दू समाज में उसका आदर नहीं है। कारण, उसका अमर्यादित आचरण। इसलिए आपने जीवनभर नाम रूपी जो पूंजी कमाई है, उसे बचाए रखना चाहते हैं, अपनी आने वाली पीढ़ी को हस्तांतरित करना चाहते हैं तो वासना रूपी रावण का अंत बार-बार करते रहिए।
मनुष्य जब विवेकशून्य हो जाता है, तब उसे क्रोध आता है। क्रोध में वह सदैव ऐसा निर्णय लेता है जिस पर उसे बाद में पश्चाताप होता है। सच मायने में क्रोध के वक्त व्यक्ति सारी मनुष्यता खो देता है। वह रावण बन जाता है। क्रोध में ही मनुष्य अपनी सबसे प्रिय वस्तु का भी नाश कर देता है। हत्या तक कर देता है। समाज और राष्ट्र के संदर्भ में देखें तो हड़ताल, प्रदर्शन और दंगे में हम क्या करते हैं? क्रोध के गुलाम होकर मनुष्यों की क्षति, समाज की क्षति, राष्ट्रीय संपत्ति की क्षति, स्वयं की क्षति और अपनी आत्मा की क्षति। क्रोध पर विजय पाना हमारी प्राथमिकता में होना चाहिए।
हम ध्यानपूर्वक देखें कि लोभ के कारण आज देश की क्या स्थिति है? आम समाज को क्या नुकसान हो रहा है? लोभ मनुष्य को भ्रष्टाचारी बनाता है। लोभ ही बेईमान भी बनाता है। लोभ पर शुरुआत से ही काबू नहीं किया गया तो यह बढ़ता ही जाता है। यह कभी-भी कम नहीं होता। लोभी मनुष्य ने पहले हजारों के घोटाले किए फिर लाखों के और अब लाखों के घोटाले उनके लिए घोटाले ही नहीं हैं। क्योंकि लोभ बढ़ गया। यानी भ्रष्टाचार की सीमा बढ़ गई। देश-समाज का नुकसान ज्यादा बढ़ गया। यही हाल मोह का है। मोह में पड़कर आदमी क्या नहीं कर रहा। अपनी जिम्मेदारी भूल गया है। स्वकेन्द्रित होकर रह गया है। अपने परिवार के लिए समाज और देश के साथ बेईमानी भी कर रहा है।
दशहरा चूंकि शक्ति का पर्व है। इस दिन क्षत्रिय अपने हथियारों की पूजा करते हैं। पूर्वजों ने समाज को एक संदेश देने की कोशिश की है कि ताकत हासिल कीजिए। साथ में यह भी संकेत कर दिया कि इसका दुरुपयोग मत कीजिए। समाज में अपनी प्रतिष्ठा के मद में चूर मत होईए। प्रभावशाली होने का अंहकार मत पालिए। शक्ति का उपयोग हिंसा के लिए मत कीजिए। गरीब, असहाय पर अपनी ताकत का प्रदर्शन नहीं करें बल्कि उनकी रक्षा के लिए आगे खड़े रहें। लेकिन, समाजकंटकों को यह आभास भी दिलाते रहिए कि आप शक्तिशाली हैं ताकि वह आपकी ओर, आपके समाज और देश की ओर आंख दिखाने की हिम्मत न जुटा सके। दरअसल, कमजोर को हर कोई दबाना चाहता है। भारतीय राजनीति इसका अच्छा उदाहरण है। यहां बाहुबली नेतागिरी कर रहे हैं। कमजोर की कोई पूछ नहीं। जो शक्तिशाली है, संगठित वोट बैंक हैं उनकी भारतीय राजनीति में भारी पूछपरख है, मौज भी उनकी ही है। शासन की योजनाएं भी उनके लिए हैं जबकि असंगठित बहुसंख्यक समाज की फिक्र तक किसी को नहीं। उसकी भावनाएं भी जाती रहें चूल्हे में।
मजबूत और शक्तिशाली दिखने की जरूरत जितनी व्यक्तिगत स्तर पर है, उससे कहीं अधिक एक देश के लिए आवश्यक है। इजराइल के संबंध में इसे समझा जा सकता है। इजराइल छोटा-सा देश है लेकिन साहस उसका किसी ऊंचे पर्वत से भी विशाल है। सब ओर से शत्रु देशों से घिरा है लेकिन मजाल है कि कोई उसकी तरफ आंख उठाकर देख जाए। इजराइल ने अपनी शक्तिशाली छवि यूं ही नहीं बनाई है। उसने करके दिखाया है। अपने शत्रुओं को ईंट का जवाब पत्थर से दिया है। जबकि भारत और पाकिस्तान में ऐसा नहीं दिखता। पाकिस्तान बार-बार गुर्राता है। भारत की ओर आंखें तरेरता है। चार युद्ध हारने के बाद भी उसकी इतनी हिम्मत भारत के कमजोर नेतृत्व के कारण है। भारत सरकार बार-बार उसके अमर्यादित व्यवहार को माफ करती है। जबकि होना यह चाहिए कि पाकिस्तान की ओर से कोई संदिग्ध गतिविधि की आशंका दिखे तो घटना घटने से पहले ही भारत की ओर से कार्रवाई कर दी जानी चाहिए। यदि ऐसा हो जाए तो पाकिस्तान की अक्ल ठिकाने आ जाए। वह भारत विरोधी कदम उठाने से पहले सौ बार सोचेगा। अब समय चीन को भी चेताने का आ गया है। वह भी बार-बार सीमा का उल्लंघन कर रहा है।
दशहरा महज उल्लास का पर्व नहीं है। बल्कि बहुत कुछ संकेत की भाषा में बताने की कोशिश करता है। अपने भीतर के तमाम रावणों को मारो-जलाओ बाकि बाहर सब ठीक हो जाएगा। खुद सशक्त बनो तो समाज ताकतवर बनेगा और देश को भी मजबूती मिलेगी। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों ने अपने वार्षिक उत्सव में लघु नाटक 'प्रतीकात्मक रामायण' का मंचन किया। यह उद्देश्यपूर्ण, सार्थक और प्रभावशाली प्रस्तुति रही। 'प्रतीकात्मक रामायण' के निर्देशक और लेखक मयंक मिश्रा ने रावण के दस सिरों को दस बुराइयों का प्रतीक माना। राम ने एक-एक कर इन बुराइयों का सर्वनाश कर रावण पर विजय प्राप्त की। रावण दरअसल हम सबके भीतर बैठे पापों का ही नाम है। जब ये पाप हावी हो जाते हैं तो मनुष्य रावण बन जाता है। मनुष्य रावण न बने इसलिए रोज इन बुराइयों को मारते रहे। प्रतीकों के माध्यम से दशहरे का यही संदेश है।
देखा तो यह जा रहा है कि प्रतिवर्ष रावणों कि संख्या में इजाफा होता जा रहा है .यानी रावनों के प्रतीक के रूप में पुतलों में . ये रावण कभी ण ख़त्म होने वाला रावण है . जिस दिन ये रावनों के पुतलों कि संख्या कम हो जाए या ख़त्म हो जाए समझ लिया जायेगा कि बुराईयों का अंत हो गया है .....इसलिए देखते हैं हम सबका मन का रावण कब मरता है .
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर , सर धन्यवाद !
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