आ प सबने निश्चित ही चमत्कारी पत्थर पारस की खूबी के बारे में सुना होगा। पारस से जंग लगे लोहे को स्पर्श भी करा दिया जाए तो वह चौबीस कैरेट का खरा सोना बन जाता है। पत्रकारिता और साहित्य के क्षेत्र में विष्णु नागर ऐसा ही एक नाम है। उन्होंने जिस काम को भी हाथ लगाया, वे ख्याति के शिखर तक उसे लेकर गए।
संघर्ष, संवेदनशीलता, सरोकार और सहजता की पूंजी के सहारे विष्णु नागर ने पत्रकारिता और फिर साहित्य में अपनी धमक दर्ज कराई। वर्ष 1974 में टाइम्स ऑफ इंडिया से बतौर ट्रेनी पत्रकार अपने पत्रकारीय जीवन की शुरुआत करने वाले विष्णु नागर ने आगे चलकर कई मीडिया संस्थानों में प्रभावी भूमिकाओं का सफलतापूर्वक निर्वाहन किया। नवभारत टाइम्स में उन्होंने सबसे लम्बी पारी खेली। यहां उन्होंने पूरे 23 साल तक अपनी सेवाएं दीं। 1998 में एचटी ग्रुप से जुड़कर हिंदुस्तान के नेशनल ब्यूरो में काम किया तो पांच साल तक कादंबिनी जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका का संपादन भी किया। इसी बीच पत्रकारिता के क्षितिज पर चमचमाते हिन्दी के इस सितारे ने दुनिया के आकाश में भी भारत की बिन्दी को रोशन किया। विख्यात रेडियो सर्विस डायचेवेले के बुलावे पर विष्णु नागर जर्मनी गए। वहां दो साल तक डायचेवेले की हिन्दी सर्विस के संपादक के रूप में काम किया।
निरंतर कर्मशील विष्णु नागर ने मध्यप्रदेश के प्रतिष्ठित समाचार-पत्र नईदुनिया से जुड़कर उसे दिल्ली में मजबूत किया। उनके संपादकीय कार्यकाल के दौरान हिन्दी पत्रकारिता में संडे नईदुनिया ने एक खास मुकाम बनाया। प्रयोगधर्मी और कल्पनाशील विष्णु नागर के मन में सक्रिय पत्रकारिता से हटकर कुछ नया आकाश रचने की छटपटाहट होने लगी थी। उन्होंने आलोक मेहता को अपना इस्तीफा भेज दिया। लम्बी बातचीत के बाद बेमन से मेहता जी ने उनका इस्तीफा मंजूर किया। आखिर कोई भी 'पारस' को अपने से क्यों दूर होने देना चाहेगा? विचारों का संमन्दर अपने अन्दर समेटे विष्णु नागर ने साहित्य के लिए खाली समय का भरपूर उपयोग किया। हालांकि जल्द ही वे फिर से पत्रकारिता के मैदान में आकर डट गए। वे साप्ताहिक पत्रिका 'शुक्रवार' के सम्पादक हो गए। पाठकों की नब्ज को अच्छे से समझने वाले विष्णु नागर के संपादकीय कौशल से 'शुक्रवार' जल्द ही पहले से बाजार में मौजूद चोटी की समाचार पत्रिकाओं को टक्कर देने लगी। उनके हाथों की जादुई छुअन से होकर लगातार आ रहे शुक्रवार के साहित्यिक विशेषांक तो संग्रहणीय हैं। देशभर में पाठक शुक्रवार और विशेषांकों को चाव से पढ़ रहे हैं। पत्रकारिता पर जितनी पकड़ और अधिकार विष्णु नागर का है, उतना ही प्यार उन्हें साहित्य से भी है। उनकी कई कविताओं का अनुवाद अंग्रेजी, जर्मन और रूसी भाषा में हो चुका है।
64 की उम्र में भी युवा जोश और ऊर्जा से भरे विष्णु नागर का बचपन बड़े कष्ट और संघर्ष के बीत बीता है। कंटक भरे मार्ग पर चलकर ही विष्णु नागर का व्यक्तित्व तपा है। कह सकते हैं उसी तप की ताकत से आज भी वे एक युवा की तरह हिन्दी पत्रकारिता और साहित्य दोनों की सेवा कर रहे हैं।
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"बेहद सरल और सहज हैं विष्णु नागर जी। वे नए लोगों को लिखने के लिए हौसला देते हैं और प्रोत्साहित भी करते हैं। उन्हें नक्सलवाद पर एक स्टोरी भेजी थी, इसी विषय पर एक बड़े लेखक ने भी उन्हें स्टोरी भेज दी। उन्होंने मुझे फोन किया और स्टोरी प्रकाशित नहीं करने पर खेद जताया। ऐसा अमूमन कोई संपादक करता नहीं है।"- आशीष कुमार अंशु, पत्रकार
सुंदर प्रस्तुति ॥
जवाब देंहटाएंBahut acchi jaankari va prastuti !!
जवाब देंहटाएंआपने विष्णु नागर जी का बारे में ठीक कहा है की वो पारस सामान हैं. कादम्बिनी में उनकी रचनाओं का इंतज़ार रहता था. इस बीच उन्हें नहीं पढ़ा, अब आपकी इस पोस्ट ने उनको पढ़ने की इच्छा जगा दी है.
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