यो जना आयोग ने भारतीय गरीबी का जिस तरह मजाक बनाया है। उस पर हो-हल्ला होना लाजमी है। योजना आयोग की ओर से गढ़ी गई गरीबी की नई परिभाषा से भला कौन, क्यों और कैसे सहमत हो सकता है। २० सितंबर २०११ मंगलवार को आयोन ने सुप्रीम कोर्ट में दायर हलफनामें में कहा है कि खानपान पर शहरों में ९६५ रुपए और गांवों में ७८१ रुपए प्रति माह खर्च करने वाले व्यक्ति को गरीब नहीं माना जा सकता। यानी शहर में ३२ रुपए और गांव में २६ रुपए रोज खर्च करने वाले व्यक्ति बीपीएल (गरीबी रेखा के नीचे) के तहत मिलने वाली कल्याणकारी सुविधाओं का लाभ नहीं उठा सकता। गरीबी की इस परिभाषा के अनुसार तो निश्चित ही रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड और अन्य सार्वजनिक स्थानों पर दिखाई देने वाली भिखारियों की भीड़ भी अमीर हो गई। धन्य है योजना आयोग, जिसने कितने करोड़ भारतीयों की किस्मत छूमंतर कह कर बदल दी। अभिशप्त गरीबी झेलने को मजबूर करोड़ों लोगों को अमीर कर दिया। जय हो उनकी जिन्होंने इस रिपोर्ट के मार्फत एक ही झटके में भयानक महंगाई (डायन) के दौर में गरीबों के आंसू पौंछ दिए।
इस रिपोर्ट पर माननीय प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के हस्ताक्षर हैं। अर्थात् उन्होंने इसका ठीक ढंग से अवलोकन किया होगा। वैसे भी देश से महंगाई और गरीबी दूर करने के लिए लम्बे समय से प्रधानमंत्रीजी एक जादू की छड़ी ढूंढ़ रहे थे। शायद यह रिपोर्ट उन्हें वही जादू की छड़ी लगी और उन्होंने इस पर तपाक से अपने हस्ताक्षर ठोंक दिए। ताकि अगली बार जनता से कह सकें देखो मेरे प्यारे देशवासियों मैंने जादू की छड़ी घुमाकर देश से काफी हद तक गरीबी दूर कर दी। गौरतलब है कि योजना आयोग का अध्यक्ष देश का प्रधानमंत्री होता है। योजना आयोग का उद्देश्य आर्थिक संवृद्धि, आर्थिक व सामाजिक असमानता को दूर करना, गरीबी का निवारण और रोजगार के अवसरों में वृद्धि के लिए काम करना और योजनाएं बनाना है। इसके लिए उपलब्ध आर्थिक संसाधनों का ही बेहतर उपयोग करना है। वैसे भारत में आर्थिक आयोजन संबंधी प्रस्ताव सर्वप्रथम सन् १९३४ में 'विश्वेश्वरैया' की पुस्तक 'प्लांड इकोनोमी फॉर इंडिया' में आया था। इसके बाद सन् १९३८ में अखिल भारतीय कांग्रेस ने ऐसी ही मांग की थी। सन् १९४४ में कुछ उद्योगपतियों द्वारा 'बंबई योजना' के तहत ऐसे प्रयास किए गए। सरकारी स्तर पर स्वतंत्रता के बाद सन् १९४७ में पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में आर्थिक नियोजन समिति गठित हुई। बाद में इसी समिति की सिफारिश पर १५ मार्च १९५० को योजना आयोग का गठन असंवैधाकि और परामर्शदात्री निकाय के रूप में किया गया। भारत के प्रधानमंत्री को इसका अध्यक्ष बनाया गया। इसके बाद योजना आयोग ने भारत उक्त उद्देश्यों को ध्यान में रखकर कार्य करना शुरू किया था।
कांग्रेस नीत यूपीए सरकार ने अपने दोनों चुनाव (२००४ और २००९) महंगाई को नियंत्रित करने और आम आदमी की दशा को सुधारने के नारे के साथ लड़े। जनता ने उसे इसी भरोसे दोनों बार संसद पहुंचाया। लेकिन, दोनों बार इस सरकार ने आम जनता के विश्वास को छला है। यूपीए के दूसरे कार्यकार्य ने तो साफ-साफ बता ही दिया कि वह आम आदमी की कितनी हमदर्द है। लगातार पेट्रो उत्पाद के महंगे कर जनता की कमर तोड़कर कर रख दी। उसे इस पर भी चैन नहीं मिली कि वह फिर से पेट्रोल के दाम बढ़ाने की तैयारी करने लगी है। एलपीजी सिलेंडर से सब्सिडी खत्म कर उसे भी महंगा करने की जुगत सरकार के कारिंदे भिड़ा रहे हैं। इस सब में बेचारे आम आदमी का जीना मुश्किल है। इधर, योजना आयोग को भी पता नहीं क्या मजाक सूझी की उसने गरीबी की यह परिभाषा गढ़ दी। योजना आयोग के इस हलफनामे और तर्कों पर सब ओर से कड़ी प्रतिक्रिया आ रही है। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने इसे तुरंत वापस लेने की मांग की है। वहीं सुप्रीम कोर्ट की ओर से नियुक्त खाद्य आयुक्त ने इसे असंवेदनशील बताया है। उन्होंने कहा है कि यह पैमाना तो उन परिवारों के लिए सही है जो भुखमरी के कगार पर हैं, गरीबों के लिए नहीं।
योजना आयोग गरीबी पर नया क्राइटीरिया सुझाते हुए कहता है कि दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरू, और चेन्नई जैसे महानगरों में चार सदस्यों वाला परिवार यदि महीने में ३८६० रुपए खर्च करता है तो उसे गरीब नहीं कहा जा सकता। अब भला इस रिपोर्ट को तैयार करने वाले साहब लोगों को कौन बताए कि इतने रुपए में इन महानगरों में सिर छुपाने को ठिकाना भी मुश्किल है। इतना ही नहीं आयोग कहता है कि ५.५० रुपए दाल पर, १.०२ रुपए चावल व रोटी पर, २.३३ रुपए दूध पर, १.५५ रुपए तेल पर, १.९५ पैसे साग-सब्जी पर, ४४ पैसे फल पर, ७० पैसे चीनी पर, ७८ पैसे नमक व मसालों पर, ३.७५ पैसे ईंधन पर खर्च करें तो एक व्यक्ति स्वस्थ्य जीवनयापन कर सकता है। इतना ही नहीं योजना आयोग कहता है कि यदि आप ९९ पैसा प्रतिदिन शिक्षा पर खर्च करते हैं तो आपको शिक्षा के संबंध में कतई गरीब नहीं माना जा सकता। ऐसे में तो गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वालों के लिए बनी तमाम कल्याणकारी योजनाओं का लाभ लेने से लाखों-करोड़ों लोग वंचित हो जाएंगे। सरकार का भारी भरकम बजट जो इन योजनाओं पर खर्च हो रहा है जरूर बच जाएगा। लेकिन, गरीबी में जी रहे लोगों को जीने के लाले पड़ जाएंगे।
इन आंकड़ों के हिसाब से मुझे तो नहीं लगता कि देश में भुखमरी से पीडि़त को छोड़कर कोई गरीब मिलेगा। इस तरह देखें तो वाकई यह रिपोर्ट जादुई है। जिसने भारत से कागजों में गरीबी दूर करने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाई है। योजना आयोग के अध्यक्ष और भारत के प्रधानमंत्री की जादुई छड़ी शायद यही रिपोर्ट है जिसे वो इतने दिन से ढूंढ़ रहे थे।
बस कीमतें इधर-उधर हुई हैं
15 साल पहले एक समोसा 50 पैसे का और एक फोन कॉल 7 रुपए की। आज एक फोन कॉल 50 पैसे की और एक समोसा 7 रुपए का। महंगाई बढ़ी नहीं बस कीमतें इधर-उधर हुईं हैं। - मनमोहन सिंह
सुन्दर एवं सार्थक लेख!
जवाब देंहटाएंदुर्गा पूजा पर आपको ढेर सारी बधाइयाँ और शुभकामनायें !
मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://seawave-babli.blogspot.com
http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/
Lokendra ji
जवाब देंहटाएंसार्थक पोस्ट के लिए बहुत- बहुत आभार .
कृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारने का कष्ट करें.
अर्थशास्त्री की बात माने तो ग़रीबों को समोसे की जगह फ़ोन-क़ॉल खाकर जीना सीख लेना चाहिये। आँकड़ों की ऐसी ग़लती को मैं निर्दयता ही समझता हूँ।
जवाब देंहटाएंइस तरह गरीबी मिट गई
जवाब देंहटाएंआपको एवं आपके परिवार को दशहरे की हार्दिक बधाइयाँ एवं शुभकामनायें !
जवाब देंहटाएंmontek sahab ne garibi kitabon me dekhi hai.unhe bastar, lalgadh, giridih ,kalahandi jaise sthanon ke zamini hakikat se parichay nahi hai....
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