प्रभात झा बने मध्यप्रदेश भाजपा अध्यक्ष
राज्यसभा सांसद प्रभात झा को मप्र में भारतीय जनता पार्टी का निर्विरोध प्रदेश अध्यक्ष चुन लिया गया है। भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष एवं मप्र भाजपा चुनाव पर्यवेक्षक कलराज मिश्र भोपाल में इसकी घोषणा की।
प्रभात का प्रदेश अध्यक्ष बनना
माना जा रहा है कि पत्रकार से सांसद बने प्रभात झा के भाजपा प्रदेश अध्यक्ष बनने से पार्टी कार्यकताओं में नया जोश व ऊर्जा का संचार होगा। प्रभात को संगठन और जमीनी स्तर के कार्यकर्ता पसंद करते हैं इसी का परिणाम है कि उनके अध्यक्ष बनने पर किसी ने उंगली नहीं उठाई सिवाय ताई (इंदौर से भाजपा की सांसद सुमित्रा महाजन)। चूंकि वे भी प्रदेश अध्यक्ष बनने के लिए लालायतित थीं। लेकिन, पार्टी संगठन की डोर में बंधे होने के कारण उन्हें पीछे हटना पड़ा। वहीं फग्गन सिंह कुलस्ते का भी मन प्रदेश अध्यक्ष बनने का था लेकिन वे संगठन के मनाने पर मन गए। खैर ये राजनीति की बाते हैं अपुन को ज्यादा तो समझ आती नहीं.......
प्रभात जी से मेरा प्रत्यक्ष का संपर्क है सो मैं लिख रहा हूं उनसे हुईं मुलाकात का जिक्र.....
कैंटीन में सीखी उनसे पत्रकारिता
बात उन दिनों की है जब मैं अपने साथियों के साथ जीवाजी यूनिवर्सिटी में थे और तब हम किताबों में पत्रकारिता पढ़ा करते थे। किसी पत्रकार या बड़े आदमी से हम कुछ सीखने की ललक से मिला करते थे। जब भी कोई बड़ा आदमी और नामचीन पत्रकार आता तो बड़ा सम्भलकर बात करना पड़ती थी। साथ में उनके सम्मान का भी पूरा ख्याल रखना पड़ता था।
....... भले ही प्रभात जी पत्रकार से राज्यसभा सांसद हो गए हों लेकिन, पत्रकारिता आज भी उनके लिए सर्वोपरि है। गर्मियों के दिन थे शायद मई-जून होगी। प्रभात जी ग्वालियर प्रवास पर आए हुए थे। हमने और हमारे शिक्षक ने सोचा क्यों न प्रभात जी को विश्वविद्यालय आमंत्रित किया जाए और कुछ मार्गदर्शन लिया जाए। हमने उन्हें फोन किया और उनसे आग्रह किया, वे मान गए और दोपहर का दो बजे का समय दिया। हम हमेशा की तरह अपने मेहमान के स्वागत की जुगत भिड़ाने लगे। तब हमें ख्याल आया अरे यार आज तो संडे है। राजनीति विभाग के एचओडी से कॉनफ्रेंस हॉल की अनुमति के लिए गए। चूंकि वे मन से कांग्रेसी ठहरे सो उन्होंने संडे का बहाना लेते हुए मना कर दिया। हांलाकि इससे पूर्व हम वहां संडे के दिन ही एक आयोजन कर चुके थे। खैर अब हमारा दिमाग खराब हो रहा था। दोपहर के दो बज गए श्री प्रभात जी विश्वविद्यालय परिसर में आए तो हमने उन्हें अपनी परेशानी से अवगत कराया। उन्होंने सहज लेते हुए कहा-बात करने के लिए किसी खास जगह की क्या जरूरत है कहीं भी बैठ लेते हैं। भगवान का शुक्र था कि कैंटीन खुली थी। उन्होंने कैंटीन खुली देख कर कहा चलो कैंटीन की टीनशेड में ही बैठ लेते हैं। हम सभी असहज थे लेकिन वो बिल्कुल सहज दिख रहे थे। करीब उन्होंने एक घंटे का समय बिताया और अपने अनुभव बांटे साथ ही पत्रकारिता करियर के लिए कुछ टिप्स भी दिए। एक राज्यसभा सांसद और एक वरिष्ठ पत्रकार को इतना सहज कभी नहीं देखा।
कर्मयोगी सहज उपलब्ध
पत्रकारिता जीवन की शुरुआत होने के बाद की मुलाकात भी जेहन में है। प्रभात जी ने ग्वालियर की तमाम छोटी-मोटी गलियां और हर ओर जाने वाली सड़कें अपने कदमों से नापी हैं अपने पत्रकारिता जीवन में। मेरे मामाजी (नरोत्तम यादव) उनके अच्छे मित्र थे। एक दफा मैंने बातों बातों में मामा जी से कहा-मैं पत्रकार बनना चाहता हूं। तब उन्होंने प्रभात जी के बारे में मुझे बताया कि पत्रकारिता आसान नहीं, प्रभात जी कांधे एक थैला टांगे सुबह घर से निकलते हैं और पैदल-पैदल सब दूर हो आते हैं। (तब मैं प्रभात जी को न जानता था).... उनकी बातों से मुझे जान पड़ा पत्रकारिता तो अपने बस की नहीं। लेकिन किस्मत को तो इसी झमेले में फंसाना था, फंसा ही लिया। हां तो बात कर रहा था..... मैं जबलपुर नईदुनिया से इंटर्नशिप करके शहर लौटा था। एक भाईसाहब शाम को मुझसे मिलने आए। अचानक से उन्होंने कहा चलो प्रभात जी से मिल आएं। मैं फुरसत में था और मेरा उनसे मिलने का मन भी रहता है तो तुरंत चल दिया। पडाव स्थित उनके कार्यालय पहुंचे। काफी लोग उनसे मिलने के लिए बैठे थे। वे सो रहे थे। उठने पर जैसे ही उन्हें भाई साहब (राजेश पुरोहित) और मेरे आने के बारे में पता चला उन्होंने अंदर ही हमें बुला लिया। काफी देर तक बात होती रही। मेरे पत्रकारिता जीवन की शुरुआत की बधाई देते हुए कार्यकर्ता द्वारा लाई गई मिठाई से मेरा मुंह मीठा कराया। वे पैरों में दवा लगा रहे थे तब मैंने उनके पैरों की ओर देखा। तो उनकी तपस्या साफ-साफ दिखी। उन्होंने जो शिद्दत से पत्रकारिता की थी उसके निशा आज भी उनके पैरों में थे। ........... कोई अपने काम के प्रति कितना समर्पित होता है उनको देखकर पता चला।
रविवार, 9 मई 2010
बुधवार, 5 मई 2010
... और जीत गए जंग
हम सदा एक ही रोना रोते रहते हैं कि इस समय मैं कौन किसके लिए क्या करता है? सब अपने-अपने लिए जीते हैं। हकीकत में यह पूर्ण सत्य नहीं है आज भी दुनिया में कई लोग मौजूद हैं जो निस्वार्थ भाव से सेवा कार्य करते हैं। असल में उसमें उन्हें जो मजा आता है सुख मिलता है, बस इसी अद्भुत सुख की कामना उस निस्वार्थ भाव से किए जा रहे काम के पीछे का स्वार्थ होता है।
मेरा शहर है ग्वालियर। ग्वालियर का स्टेशन, यहां से होकर हजारों यात्री निकलते हैं। कोई नई बात नहीं सभी रेलवे स्टेशन पर यही होता है। पर एक खास चीज है, मेरे ग्वालियर के रेलवे स्टेशन की। यहां आपको कई युवक-युवती और बुजुर्ग लोग ट्रेन के हर डिब्बे तक दौड़-भाग कर पानी पिलाते नजर आएंगे। ये सभी पंजाबी परिषद के माध्यम से निशुल्क और निस्वार्थ भाव से रेलवे यात्रियों को भरी दोपहर में पानी पिलाते हैं। इसके लिए न तो सरकार-प्रशासन उन्हें कुछ देता है और न ही संस्था के माध्यम से उन्हें कुछ मिलता है। फिर भी बड़ी जीवटता से ये ४५-४८ डिग्री के प्राणसुखाऊ टेम्परेचर में भी सूख रहे गलों को तर करने के लिए दौड़-भाग करते हैं।
मुख्य बात यह है कि सात-एक दिन पहले प्रशासन ने स्टेशन पर पानी बेचने वालों के हित को ध्यान में रख कर फैसला लिया था कि कोई भी अब स्टेशन पर निशुल्क पानी उपलब्ध नहीं कराएगा। मुझे प्रशासन के इस आदेश से बड़ी हताशा हुई। खुद तो कोई व्यवस्था करता नहीं और कोई आगे आकर भला काम करना चाहे तो उसे करने नहीं देता। पंजाबी परिषद के लोगों ने इस आदेश के विरुद्ध आवाज बुलंद की। उनकी आवाज में सत्य था और उन करोड़ों लोगों की दुआएं थीं, जिनके सूखे गलों तक परिषद के लोगों ने नीर पहुंचाया था। आखिर में चार-एक दिन में ही प्रशासन को अपने फैसला बदलना पड़ा। आज जब स्टेशन पहुंचा तो उन्हें पानी पिलाते देख सुखद अनुभूति हुई।
---->> "एक याद है मेरी परिषद के साथ आप पढ़ो तो सुनाऊं। चूंकि अपुन का मन भी थोड़ा-सा सेवाभावी है। मैं कॉलेज में पढ़ रहा था तब मेरा भी मन हुआ कि खुद एक प्याऊ खोलूं। खर्चा पानी जोड़ा, अपने पॉकेट से बाहर का मामला दिखा। फिर सोचा किसी को स्पॉन्सर बना देते हैं, कुछेक नाम थे मेरे पास जो मेरा कहा नहीं टाल सकते थे। खैर ये आइडिया भी ड्राप किया। फिर डिसाइड किया कि क्यों न परिषद के काम में हाथ बंटाया जाए। अपने एक भाई साहब जी हैं उन्होंने रेलवे स्टेशन पर परिषद की उत्साही टीम से मिलवाया। ग्वालियर की गर्मी, उफ! बाबा। ऐसी गर्मी में सिर से बांधी सॉफी और पानी की ट्रॉली इधर से उधर दौड़ा कर डिब्बे-डिब्बे जाकर पानी पिलाया। कभी-कभी थकान होने पर बैठ जाते तो, ऊर्जा से लबालब बुजुर्ग कहते-क्या बेटा अभी तो खून गर्म है और इस गर्मी से उबल भी रहा होगा। आलस मत खाओ। उनका कहना सुनकर फिर अपने काम पर लग जाते। बड़ा अच्छा अनुभव रहा। खूब मजे आए थे सफर पर निकले लोगों को पानी पिलाने में......."
मेरा शहर है ग्वालियर। ग्वालियर का स्टेशन, यहां से होकर हजारों यात्री निकलते हैं। कोई नई बात नहीं सभी रेलवे स्टेशन पर यही होता है। पर एक खास चीज है, मेरे ग्वालियर के रेलवे स्टेशन की। यहां आपको कई युवक-युवती और बुजुर्ग लोग ट्रेन के हर डिब्बे तक दौड़-भाग कर पानी पिलाते नजर आएंगे। ये सभी पंजाबी परिषद के माध्यम से निशुल्क और निस्वार्थ भाव से रेलवे यात्रियों को भरी दोपहर में पानी पिलाते हैं। इसके लिए न तो सरकार-प्रशासन उन्हें कुछ देता है और न ही संस्था के माध्यम से उन्हें कुछ मिलता है। फिर भी बड़ी जीवटता से ये ४५-४८ डिग्री के प्राणसुखाऊ टेम्परेचर में भी सूख रहे गलों को तर करने के लिए दौड़-भाग करते हैं।
मुख्य बात यह है कि सात-एक दिन पहले प्रशासन ने स्टेशन पर पानी बेचने वालों के हित को ध्यान में रख कर फैसला लिया था कि कोई भी अब स्टेशन पर निशुल्क पानी उपलब्ध नहीं कराएगा। मुझे प्रशासन के इस आदेश से बड़ी हताशा हुई। खुद तो कोई व्यवस्था करता नहीं और कोई आगे आकर भला काम करना चाहे तो उसे करने नहीं देता। पंजाबी परिषद के लोगों ने इस आदेश के विरुद्ध आवाज बुलंद की। उनकी आवाज में सत्य था और उन करोड़ों लोगों की दुआएं थीं, जिनके सूखे गलों तक परिषद के लोगों ने नीर पहुंचाया था। आखिर में चार-एक दिन में ही प्रशासन को अपने फैसला बदलना पड़ा। आज जब स्टेशन पहुंचा तो उन्हें पानी पिलाते देख सुखद अनुभूति हुई।
---->> "एक याद है मेरी परिषद के साथ आप पढ़ो तो सुनाऊं। चूंकि अपुन का मन भी थोड़ा-सा सेवाभावी है। मैं कॉलेज में पढ़ रहा था तब मेरा भी मन हुआ कि खुद एक प्याऊ खोलूं। खर्चा पानी जोड़ा, अपने पॉकेट से बाहर का मामला दिखा। फिर सोचा किसी को स्पॉन्सर बना देते हैं, कुछेक नाम थे मेरे पास जो मेरा कहा नहीं टाल सकते थे। खैर ये आइडिया भी ड्राप किया। फिर डिसाइड किया कि क्यों न परिषद के काम में हाथ बंटाया जाए। अपने एक भाई साहब जी हैं उन्होंने रेलवे स्टेशन पर परिषद की उत्साही टीम से मिलवाया। ग्वालियर की गर्मी, उफ! बाबा। ऐसी गर्मी में सिर से बांधी सॉफी और पानी की ट्रॉली इधर से उधर दौड़ा कर डिब्बे-डिब्बे जाकर पानी पिलाया। कभी-कभी थकान होने पर बैठ जाते तो, ऊर्जा से लबालब बुजुर्ग कहते-क्या बेटा अभी तो खून गर्म है और इस गर्मी से उबल भी रहा होगा। आलस मत खाओ। उनका कहना सुनकर फिर अपने काम पर लग जाते। बड़ा अच्छा अनुभव रहा। खूब मजे आए थे सफर पर निकले लोगों को पानी पिलाने में......."
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