संघ शताब्दी वर्ष : संघ के विकास का पहला चरण
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज जिस विराट स्वरूप में दिखायी देता है, ऐसा स्वरूप उसके बीज में ही निहित था। यह बात संघ के संस्थापक आद्य सरसंघचालक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार को पहले दिन से पता थी। संघ सृष्टि और संघ दृष्टि सब डॉक्टर साहब की दूरदृष्टि में शामिल थी। संघ के विकास के लिए जिस प्रक्रिया की आवश्यकता थी, उसी के अनुरूप उन्होंने संघ का वातावरण तैयार किया। शिक्षा के संदर्भ में स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि “शिक्षा मनुष्य में पहले से ही विद्यमान पूर्णता की अभिव्यक्ति है”। विद्यार्थी को केवल उपयुक्त वातावरण की आवश्यकता होती है। संघ कार्य के बारे में डॉक्टर साहब ने भी कहा है कि “मैं कोई नया कार्य प्रारंभ नहीं कर रहा हूँ। यह पहले से हमारी संस्कृति में है। परंपरा से चले आ रहे व्यक्ति निर्माण का कार्य करने के लिए यह तंत्र अवश्य नया है”। हनुमानजी में असीम शक्तियां पहले से विद्यमान थी लेकिन उन्हें भान नहीं है। जामवंत जी ने हनुमान जी से कहा, “कवन सो काज कठिन जग माहीं” (ऐसा कौन-सा कार्य है जो इस दुनिया में कठिन है), जो आपसे नहीं हो सकता है। उन्होंने रामकाज के लिए हनुमान जी को उनकी शक्ति और बुद्धि का स्मरण कराया। इसी प्रकार हिन्दू समाज सब प्रकार से सामर्थ्यवान है, उसे बस बीच-बीच में जागृत करना पड़ता है। हिन्दू समाज को उसका सामर्थ्य याद दिलाने के लिए समय-समय पर अनेक महापुरुष आए और उन्होंने अपने दृष्टिकोण से कार्य किया। इसलिए डॉक्टर साहब ने कहा कि वह कोई नया कार्य प्रारंभ नहीं कर रहे हैं। लेकिन यह याद रखना होगा कि संघ कार्य की पद्धति बाकी सबसे अलग है, जिसका विकास देश-काल परिस्थिति के अनुरूप हुआ है। जैसे-जैसे संघ का सामर्थ्य बढ़ा, संघ ने अपने कार्य का विस्तार किया है। यह भी कह सकते हैं कि समाज को जब जिस प्रकार की आवश्यकता रही, संघ ने उसके अनुसार अपना कार्य विस्तार किया है। जब हम आरएसएस की 100 वर्ष की यात्रा का सिंहावलोकन करते हैं तो संघ के विकास के पाँच चरण प्रमुखता से दिखायी देते हैं-
1. संगठन (1925 से 1950)
2. कार्य विस्तार (1950 से 1988)
3. सेवाकार्यों को गति (1889 से 2006)
4. समाज की सज्जनशक्ति के साथ कदमताल (2006 से 2025)
5. समाज ही बने संघ (शताब्दी वर्ष से आगे की योजना)
अपनी स्थापना के बाद पहले चरण में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेतृत्व ने पूरा ध्यान संगठन की जड़ों को मजबूत करने पर दिया। क्योंकि डॉक्टर साहब देख रहे थे कि भविष्य में स्वयंसेवकों को समाज जीवन के विविध क्षेत्रों में कार्य करना है, उसके लिए मजबूत संगठन चाहिए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय सह प्रचार प्रमुख नरेन्द्र कुमार लिखते हैं कि “डॉ. हेडगेवार ने संघ स्थापना का लक्ष्य सम्पूर्ण हिन्दू समाज को संगठित कर हिन्दुत्व के अधिष्ठान पर भारत को समर्थ और परमवैभवशाली राष्ट्र बनाना रखा। इस महत्वपूर्ण कार्य हेतु वैसे ही गुणवान, अनुशासित, देशभक्ति से ओत-प्रोत, चरित्रवान एवं समर्पित कार्यकर्ता आवश्यक थे। ऐसे कार्यकर्ता निर्माण करने के लिए उन्होंने एक सरल, अनोखी किन्तु अत्यंत परिणामकारक दैनन्दिन ‘शाखा’ की कार्यपद्धति संघ में विकसित की”।
नागपुर के बाहर भी संघ की शाखाएं शुरु होनी चाहिए इसी उद्देश्य के साथ 18 फरवरी, 1926 को डॉक्टर साहब अप्पाजी जोशी के पास वर्धा गए। अर्थात् नागपुर के बाहर वर्धा में पहली शाखा लगी। 1930 से डॉक्टर साहब ने कार्यकर्ताओं को प्रचारक के रूप में देश के अलग-अलग हिस्सों में भेजकर शाखाएं शुरु करायीं। भाऊराव देवरस (लखनऊ), राजाभाऊ पातुरकर (लाहौर), वसंतराव ओक (दिल्ली), एकनाथ रानाडे (महाकौशल), माधवराव मूळे (कोंकण), जनार्दन चिंचालकर एवं दादाराव परमार्थ (दक्षिण भारत), नरहरि पारिख एवं बापूराव दिवाकर (बिहार) और बालासाहब देवरस (कोलकाता) ने संघ कार्य का विस्तार करना शुरू किया। परिणामस्वरूप, लगभग एक दशक बाद देशभर में 600 से अधिक शाखाएँ और लगभग 70,000 स्वयंसेवक सक्रिय हो गए। वर्ष 1939 तक दिल्ली, पंजाब, बंगाल, बिहार, कर्नाटक, मध्य प्रांत, बंबई (वर्तमान महाराष्ट्र और गुजरात) में संघ शाखाएँ लगनी शुरू हो गईं। सन् 1940 तक असम तथा उड़ीसा छोड़कर शेष सभी प्रान्तों में संघ शाखाएँ प्रारम्भ हो गई थीं।
डॉक्टर साहब 15 वर्षों तक संघ के पहले सरसंघचालक रहे। इस दौरान शाखाओं के माध्यम से संगठन खड़ा करने की प्रणाली उन्होंने विकसित कर ली थी। डॉक्टर साहब कहते थे- “अच्छी संघ शाखाओं का निर्माण कीजिए, उस जाल को अधिकतम घना बुनते जाइए, समूचे समाज को संघ शाखाओं के प्रभाव में लाइए, तब राष्ट्रीय स्वतंत्रता से लेकर हमारी सर्वांगीण उन्नति करने की सभी समस्याएं निश्चित रूप से हल हो जाएंगी”।
संघ ठीक प्रकार से चले इसके लिए प्रशिक्षण का महत्व ध्यान में आया तब 1927 से संघ शिक्षा वर्ग प्रारंभ किए गए। पहले वर्ग 17 चयनित कार्यकर्ताओं का प्रशिक्षण हुआ, तब इसे ‘अधिकारी शिक्षण वर्ग’ कहते थे। 1940 में आयोजित संघ शिक्षा वर्ग में 1400 स्वयंसेवक शामिल हुए थे। तब डॉक्टर साहब ने कहा था कि “मैं अपनी आँखों के सामने एक लघु भारत देख रहा हूँ”। संघ कार्य को दृढ़ करने के लिए संगठन का आत्मनिर्भर होना आवश्यक है। इसी दृष्टि से डॉक्टर साहब ने 1928 में गुरु दक्षिणा की अभिनव पद्धति प्रारंभ करके संघ को स्वावलंबी बना दिया। उसी वर्ष पहली बार ‘प्रतिज्ञा’ कार्यक्रम भी सम्पन्न हुआ। प्रतिज्ञा, संघ कार्य के प्रति स्वयंसेवकों के मन में श्रद्धा एवं निष्ठा उत्पन्न करती है।
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| स्वदेश ज्योति में संघ शताब्दी वर्ष पर प्रति रविवार प्रकाशित होनेवाले कॉलम में प्रकाशित आलेख |
